न जाने जीवन भर कितनी बड़ी मात्रा में भय रह रह कर और आ आ कर हमे अस्त व्यस्त एवं त्रस्त कर डालता है। इस भय को आने के लिए कोई अनुमति नहीं लेनी पड़ती और यह हमारे सबसे गहरे स्तरों पर घुस कर ऐसी घुस पैठ करने लगता है की प्रतीत हो जाता है की अब किसी काम के नहीं रहे। दिमाग की स्थिरता इसके दुष्प्रभाव से हवा हो जाती है , स्मृतियाँ खोने लगती हैं , निर्णय लेना असंभव सा प्रतीत होने लगता है। अच्छा खासा व्यक्ति धेले का नहीं बचता है।

और जिनके भीतर इस भय के बहुत ने लम्बे समय तक डेरा जमाया हो उन्हें तो डिप्रेशन जैसे उन्माद नकारात्मकता का साम्राज्य लिए हुए बक्शते ही नहीं हैं। सोचने की बात यहाँ पर यह है की क्या इससे कोई बचने का मार्ग है , क्या इसके नाग पाश से अपने आप को छुड़ाया जा सकता है।

देखो भाई सत्य तो यह है अँधेरे में झाड़ी भी बहुत का ही प्रभाव डालती है और उसी प्रकार यह भय का भूत उससे कहीं अधिक गहराई पर पहुँच कर हमे छिन्न भिन्न कर जाता है। इस पुस्तक के कुछ पृष्ठ तुम्हे उस सत्य से अवगत करवाएंगे जिन्हे जान कर और मान कर तुम भविष्य में अकारण भय का शिकार नहीं बनोगे। सार्थक खतरों से भयभीत होना तो समझ में आता है परन्तु निरर्थक कारणों से तार तार हुए चले जाना बिलकुल भी समझ में नहीं आता है। आओ चलो अब इस पुस्तक पर अपना ध्यान लगाओ।

दिनेश कुमार

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