Part - 4. भगवद गीता के प्रथम श्लोक की अथाह गहराई - व्यवस्थित चिन्तन विचारों की शक्ति का आधार है ;

Part - 4. भगवद गीता के प्रथम श्लोक की अथाह गहराई - व्यवस्थित चिन्तन विचारों की शक्ति का आधार है ; Transcription by Ashok Satyamev
श्रीमद भगवद गीता का प्रथम श्लोक याद करने के लिए, कल के सत्संग में कहा गया था॥ मनोमय कोष की साधना में विचारों की सामर्थ्य, विचारों की शक्ति, विचारों को व्यवस्था देने के उपरान्त ही प्राप्त हो सकती है॥ व्यवस्थित चिंतन ही विचारों की शक्ति का आधार है॥ यह बात गाँठ बाँध लो - व्यवस्थित चिंतन ही विचारों की शक्ति का आधार है॥ आपका चिंतन व्यवस्थित है तो आपके विचारों मे शक्ति है॥ और विचारों मे शक्ति है तो फिर बहुत कुछ आपके द्वारा सम्भव है॥ इसके लिए जिस प्रथम कसरत का उल्लेख कल किया गया आज उसी के सन्दर्भ से आगे बढ़ाते हैं॥

श्रीमद भगवद गीता का प्रथम श्लोक, इसे मैंने बहुत बार पढ़ाया और जितनी बार भी पढ़ाया तो न केवल आनन्द आया अपितु हर बार अपने लिए भी बहुत कुछ बटोरा॥ इसका अद्भुत सौन्दर्य है कि यह श्रीमद भगवद गीता का पहला श्लोक श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच न होकर के, धृतराष्ट्र के द्वारा कहा गया॥ 'धृतराष्ट्र उवाच' - धृतराष्ट्र बोल रहे हैं, पूछ रहे हैं॥ यह अद्भुत सौन्दर्य है कि श्रीमद भगवद गीता का समस्त वार्त्तालाप जब कृष्ण और अर्जुन के संवाद रूप में है तो उसमें  धृतराष्ट्र क्यों और वह भी पहले श्लोक में क्यों?

यहीं से पता चलता है कि 'कुरुक्षेत्र' केवल वह नहीं जो इस राष्ट्र में है; 'कुरुक्षेत्र' कहीं और भी है॥ 'साधना के संघर्ष' का क्षेत्र कहीं और भी है॥ मनुष्य के आत्मोत्कर्ष का क्षेत्र कहीं और भी है॥ अर्जुन और कृष्ण कालहीन हैं, 'गाण्डीव' कुछ और भी कहना चाहता है॥ इस प्रथम श्लोक में ही धृतराष्ट्र अपनी शंका का समाधान करना चाहते हैं; किसके द्वारा? उसके द्वारा जिसे आदिगुरु मुनि वेदव्यास अपनी कृपा से वह क्षमता दे गए कि तुम्हें यह सब दिखता रहेगा॥ यह क्षमता वे धृतराष्ट्र को देना चाहते थे पर सम्भवत: धृतराष्ट्र उसके लिए तत्पर नहीं थे॥ इसलिए एक योग्य सुपात्र संजय को यह क्षमता दी गई कि जो वृत्तान्त वहाँ घटित हो जैसा हो वैसा सूचित करो॥ एक प्रकार से कहा जाए तो उस प्राचीन काल में प्रथम पत्रकार, प्रथम निष्पक्ष Journalist का जन्म संजय के रूप में हुआ था॥ और वह 'संजय' हम सब में विद्यमान है॥ महाभारत के समूचे पात्र हम सब में कहीं न कहीं किसी न किसी स्वरूप में हम सब में विद्यमान हैं॥ गहराई से समझेंगे तो इनकी उपस्थिति हमारे भीतर भी है॥

धृतराष्ट्र जो सत्ता हड़पना चाहता है, येन केन प्रकारेण, और सत्ता हड़पने के लिए वह अन्धा है॥ उसे दिखाई नहीं देता क्या गलत क्या ठीक, वह उचित अनुचित से ऊपर उठ चुका है॥ उसके लिए वह सब कुछ जो उसे चाहिए, येन केन प्रकारेण चाहिए, बस उसके लिए वह सब ठीक है, न्यायोचित है॥ और उसी अधिकार को हड़पने के लिए, in order to usurp the right of others वह मनमानी कर बैठा है॥ जिसका परिणाम अब यह महाभारत का संग्राम है; और उस संग्राम के आरम्भ होने से पूर्व ही मन में संशय है॥ सेनाएँ तो दो हैं, एक ने केशव को चुन लिया है और दूसरे ने बहुत बड़े संसाधनों की सेना को चुन लिया है॥ जिधर केशव होंगे जय-विजय तो वहीं होगी॥ यह बात वह भीतर कहीं जानता है, अनीति जानती है, नीति क्या है॥ अनीति जानती है कि मैं सदैव खतरे में रहूँगी पर फिर भी अनीति अन्धी होती है॥ जानते हुए भी न मानना अन्धापन ही तो होगा॥ अनीति जानते हुए भी मानना नहीं चाहती है कि यह अन्धापन है॥

मुझे इस बात की बड़ी प्रसन्नता है कि नवरात्रि पर्व के आरम्भ में प्रथम दिवस से इस प्रथम श्लोक का जो कि चिंतन को व्यवस्थित करने के लिए, विचारों को शक्ति देने के लिए, 'मनोमय कोष' की साधना में एक पहली कसरत के रूप में सामने आ रहा है॥ जिस बात का बहुत हर्ष है॥ आज का दिव्य पर्व और इसका अध्ययन, यह ज्ञान यज्ञ बहुत सुन्दर स्वरूप में आरम्भ हो रहा है॥

धृतराष्ट्र अन्धा है, मनमानी हम सब अपने भीतर कुछ न कुछ अनधिकृत पाने में, करने में करते हैं॥ उस समय विवेक कार्य नहीं करता, ऐसा नहीं कि उस समय भीतर संजय मरा हुआ हो, संजय जीवित होता है॥ 'संजय' जिसकी सदैव जय ही होगी, जो पराजित नहीं होगा, वह जैसा देख रहा है वैसा अवगत करा रहा है, अपनी ओर से लेशमात्र भी जोड़ नहीं रहा है, कुछ भी नहीं जोड़ रहा॥ इसमें इतना कम इतना अधिक, कोई bias नहीं है, जो है जैसा है अवगत कराता है॥ वह अवगत कराता है जो नीति पक्ष में खड़े हैं उसे भी जो अनीतिपरक है उसे भी॥

यह कौरवों और पाण्डवों की सेना कहाँ है? मेरे और तुम्हारे भीतर है॥ मेरे और तुम्हारे भीतर ही संजय है जो हर समय हमारे भीतर इन दोनों सेनाओं को अवगत कराता है, क्या हो रहा है, क्या होने वाला है॥ उसी के समक्ष 'अनीति' जो हठ पर आरूढ़ है, जो अन्धी हो गई है, जो किसी की सुनना नहीं चाहती, किसी की मानना नहीं चाहती, वह प्रश्न उपस्थित करती है, जानना चाहती है - वहाँ रणभूमि में वस्तुस्थिति क्या है? यह रणभूमि 'कुरुक्षेत्र' है॥ कुरुक्षेत्र वह 'कर्म का क्षेत्र' है, घटनाक्रम का क्षेत्र है जो तुम्हारे और मेरे इस जीवन रूपी संग्राम में निरन्तर घटता है॥ यह निरन्तर घटने वाला जो संग्राम है, जो युद्धभूमि है, वही 'कुरुक्षेत्र' है॥ क्षेत्र से तात्पर्य केवल धरती नहीं है, क्षेत्र से तात्पर्य अंग्रेजी में हम Realms से भी देते हैं॥ क्षेत्र से संदर्भ हमारे भीतर की एक अवस्था से भी है॥ यह कर्म का क्षेत्र है, संग्राम का क्षेत्र है, युद्ध का क्षेत्र है॥ यह संग्राम, यह देवासुर संग्राम, यह कौरवों पाण्डवों का संग्राम प्रत्येक जीव में घटता है॥ प्रत्येक जीव में यह सेना है, 'असन्तुलन' की सेना के ये सौ सैनिक और 'सन्तुलन' के सैनिक बहुत थोड़े होते हैं इसीलिए सन्तुलन हारता है॥ असन्तुलन के सौ हैं, उसकी जननी और उसके पिता दोनों अन्धे हैं॥ एक जन्म से, क्योंकि वह अनधिकार करना चाहता है; और एक ने पति का धर्म निभाने के लिए आँखों पर पट्टी बाँध ली॥ माता-पिता दोनों दूर की नहीं देखते, दोनों न्याय की नहीं सोचते, दोनों इस विषय से अन्धे हो गए हैं॥ उनके द्वारा जन्मे सौ प्रकार के अनीतिपरक प्रभाव the maleific impacts with hundred faces, वे अपना प्रभाव दिखाना आरम्भ करते हैं, यही कुरुक्षेत्र है॥

यह कुरुक्षेत्र वहाँ तो है जहाँ पृथ्वी पर उसका स्थान है, पर केवल वहीं नहीं है॥ यह तुममें और मुझमें सबमें है॥  तुममें और मुझमें सबमें  केशव है, पाण्डव है, द्रौपदी है, संजय है, धृतराष्ट्र भी है, विदुर भी है, हममें ये सभी पात्र हैं जो एक-एक करके अपने स्वरूप में आकर मंचन करते हैं॥ पर क्या करें, सौ कौरव हैं भटकाने के लिए, कभी विचारों को भटकाते हैं, कभी स्मृतियों के द्वारा, कभी कल्पनाओं के द्वारा, कभी अधूरी अतृप्त कामनाओं  के द्वारा, कभी ईर्ष्या  के द्वारा,कभी द्वेष  के द्वारा,कभी काम-वासना के द्वारा, अनेक रूपों में आकर भटकाते हैं॥ हर भरसक चेष्टा होती है चीर हरण कर दिया जाए॥ यह हम सबमें घट रहा है॥ This is an ongoing process within each and every individual manifested on this sojourn. यहाँ आने वाले हर यात्री के लिए, यात्री क्यों और कैसे? हम यात्रा पर हैं, आए हैं और जाएँगे॥ हर यात्री के साथ यह संग्राम यह अन्त:देवासुर संग्राम होता है॥ प्रतिपल निष्पक्ष सूचना से अवगत कराने वाले संजय से यह कौन पूछ रहा है? वह जो मनमानी करने पर अड़ गया है, सुनेगा तब भी नहीं॥

पर यहाँ श्रीमद भगवद गीता में  प्रथम श्लोक में ही, बताने की चेष्टा की, यूँ ही नहीं व्यास ने पहला श्लोक धृतराष्ट्र को दे दिया॥ जबकि वहाँ कोई सन्दर्भ न कहानी से बैठता न उल्लेख से, वह तो कृष्ण और अर्जुन के बीच का संवाद है॥  धृतराष्ट्र तो मैदान में है भी नहीं जो संग्राम में स्वयं लड़ भी नहीं रहा, वह तो घर बैठा है, लड़ने आ ही नहीं सकता॥ फिर भी पहला श्लोक उसे दे दिया? इसलिए दे दिया क्योंकि इस रहस्य की, इस मर्म की, इस प्राचीन भारतीय मनीषा की गहराई जो कुछ और कहना चाहती है॥ यह पहले श्लोक से ही अवगत हो जाता है॥ पहले श्लोक से ही वह संजय से बात करते हैं, पूछना चाहते हैं 'निष्पक्ष' से, कि क्या होने वाला है? क्या होने वाला है यह प्रश्न उनके मन में है॥

इस श्लोक को आपने याद किया होगा॥ आज के लिए इतना ही है, इस पर आगे की चर्चा हम फिर कभी करेंगे, क्योंकि मनोमय कोष के लिए बहुत बड़ी कसरत है यह॥ कैसे, किस प्रकार, देखना कैसे खुलेगा इसका सौन्दर्य॥

मेरे साथ-साथ बोलो -
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवा:।
मामका पाण्डवाश्चैव किम् कुर्वत संजय:॥

यह श्रीमद भगवद गीता का प्रथम श्लोक है, आपमें से जितने लोगों ने भी याद किया उन्हें साधोवाद, जो नहीं कर पाए वे अभ्यास करें॥ निश्चित रूप से इसके द्वारा खुलने वाला रहस्य आपके पूरे जीवन को आलोकित करेगा॥

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