मन का छल - एक ही मन दो की प्रतीति में उलझा देता है

 मन का छल - एक ही मन दो की प्रतीति में उलझा देता है
ट्रांसक्रिप्शन अशोक सत्यमेव 
कल के सत्संग के प्रकाश में कल रात्रि शयन से पूर्व मैं आज के लिए मनन कर रहा था कि किस प्रकार मन के धरातल पर बहुत कुछ जीवन भर होता चला जाता है॥ हम अधिकार पूर्वक हस्तक्षेप कर ही नहीं पाते॥ बुद्धि सबल ही नहीं हो पाती॥ मुझे एक बहुचर्चित हिन्दी फिल्म का दृश्य याद आया॥ बड़ा रोचक दृश्य है जिसमें निर्बल बुद्धि और मायावी मन जो इतना मायावी है कि वह अपने आप में एक हो कर भी अनेक बन कर सामने आता है॥ मन है तो एक किन्तु पर वह एक समूह का आभास भी दे सकता है॥ अर्थात् है वह एक पर अनेक होने की प्रतीति दे सकता है॥ बुद्धि निर्बल एक ओर किनारे खड़े-खड़े देखती है, निर्बल बुद्धि कभी हँस देती है कभी रो देती है॥ सामान्यत: तो निर्बल बुद्धि, सबल मन की इच्छा का ही आनन्द लेती है॥ सबल जिस मूड में हो उसी में निर्बल स्वयं को अनुभव करता है॥ सबल खुश तो निर्बल भी खुश॥

वह दृश्य ऐसा है कि एक लड़की का विवाह होने वाला है॥ आपने यदि देखा है तो बस वह दृश्य अपनी कल्पना में लीजिए॥ जिससे कि आप और मैं दोनों एक ही धरातल पर हों॥ वह लड़की जिसका विवाह होने वाला है, उसकी माँ उसके साथ साड़ियाँ खरीदने एक दुकान पर जाती हैं॥ दुकानदार का एक व्यक्ति उन्हें साड़ियाँ दिखाता है पर उन्हें पसन्द नहीं आती॥ सेल्समैन अपनी बातचीत में उन्हें प्रभावित नहीं कर पाता॥ तब दुकानदार स्वयं उन्हें साड़ियाँ दिखाना आरम्भ करता है॥ इतने में वह दुकानदार उन्हें पूछ लेता है कि आप क्या लेंगे?
यहाँ से आगे का दृश्य हमारे आज के सत्संग से सन्दर्भ रखता है॥ इससे पूर्व का दृश्य हमारे सन्दर्भ में नहीं है॥

वह दुकानदार बुद्धि रूपी दुकानदार, उन्हें बैठाए रखने के लिए, सामान दिखाने के लिए उनसे पूछ लेता है आप क्या लेंगे? चाय, कॉफी, लस्सी, कुल्फी फलूदा, क्या लेंगे? यह बोलने के साथ ही अपनी ओर से लड़की को सुझाव देता है, हालांकि वह अधिक पतली नहीं है फिर भी सुझाव देता है आप तो 'डाइट कोक' ही लोगे आप की तो शादी है॥ वह मुस्कुरा देती है॥

वह लड़की और माँ मन का प्रतीक है॥ उसकी माँ कहती है 'नहीं रहने दीजिए'
दुकानदार - नहीं कुछ तो लीजिए
इतने में माँ लड़की से पूछती है (अब यह मन एक से दो रूप हो गया)
मन एक है किन्तु प्रतीति दो की दे रहा है॥ इनमें माँ और बेटी को नहीं, मन के खेल को देखिए॥ निर्बल बुद्धि प्रतीक्षा कर रही है कि यह क्या कहेंगे॥ निर्बल बुद्धि सुझाव दे चुकी है कि आपकी शादी हो रही है आप तो डाइट कोक ही लो॥
माँ बेटी से पूछती है ' तू लेगी कुछ?' बेटी उत्तर नहीं देती, प्रत्युत्तर में कहती है 'आप लोगे कुछ?'
माँ फिर उत्तर नहीं, प्रत्युत्तर में कहती है 'ले ले कुछ'
इतने में बेटी का सुझाव आता है 'ठीक है कुछ लाइट लेते हैं, आप हमारे लिए कुल्फी फलूदा मँगा दीजिए'
दुकानदार अवाक् रह जाता है
कहाँ तो बुद्धि रूपी दुकानदार सुझाव दे रहा था डाइट कोक का और कहाँ मन का सुझाव आ रहा है 'कुल्फी फलूदा'
और बेटी कहती है हाफ-हाफ ले लेंगे, माँ भी कहती है 'हाँ ठीक है आधा-आधा शेयर कर लेंगे'
बुद्धि रूपी दुकानदार आदेश देता है कुलफी फलूदा ले आओ
जिसे आदेश देता है वह भी सुनकर हैरान होता है कुल्फी फलूदा?
हमारे सन्दर्भ में दृश्य यहाँ समाप्त होता है

क्योंकि यहाँ एक मन, एक से दो होने की प्रतीति देते हुए किस प्रकार अपने नए ढंग चुनता है॥ लाइट लेंगे हम, हैवी नहीं खाना॥ लाइट में क्या है? कुल्फी फलूदा॥ और वह लाइट कैसे है? इस प्रकार से है कि हमने 'हाफ-हाफ' कर लिया॥ क्या कर लिया? 'हाफ-हाफ'
फुल हैवी होता है न? इसलिए हाफ-हाफ कर लिया लाइट हो गया कुल्फी फलूदा॥ डाइट कोक, चाय कॉफी लस्सी हैवी हो सकती थी इसलिए हमने हाफ-हाफ कुलफी फलूदा ले लिया॥

बुद्धि अवाक् रह गई॥ बुद्धि अर्थात् दुकानदार के पास कोई उत्तर नहीं है॥ वह तो अपनी झेंप मिटा रहा है कि मैंने डाइट कोक का सुझाव दिया ही क्यों? इनका 'लाइट' और 'मेरा सुझाव' इन दोनों मे कितना भेद है! यह दृश्य हमारे जीवन में भी बड़ी रोचकता से हम सबके भीतर होता है॥ हम सबके भीतर बुद्धि एक बार तो सुझाव देती है कि यह नहीं यह कर लेते हैं॥ मन उसके दिए गए सुझाव की केवल अनदेखी ही नहीं करता अपितु बुद्धि से कहता है तुम चुप रहो, थोड़ी देर के लिए तर्क भी मेरे पास छोड़ दे॥ बल्कि अपने गढ़े हुए तर्क अपने मापदण्ड (Scale), यह अपने विज्ञान की खोज से प्रस्तुत कर देता है॥ मन का विज्ञान अलग है बुद्धि का विज्ञान अलग है॥ मन का विज्ञान कुल्फी फलूदा को आधा करके लाइट मानता है बुद्धि का विज्ञान ऐसा नहीं मानता॥ पर बुद्धि निर्बल है, किनारे खड़ी है, उसके पास बोलने का अधिकार ही नहीं है॥ क्या साहस है दुकानदार का कि वह डाँटकर कहे 'तुम्हारी शादी होने वाली है तुम अभी से हैवी दिख रही हो, और तुम कुल्फी फलूदा हाफ-हाफ ले रही हो? चुप कर के डाइट कोक लो ॥ क्या साहस था? नहीं

खैर वह तो एक दुकानदार था पर इस दृश्य को समझाने के उद्देश्य से लिया गया। बुद्धि की निर्बलता इतनी होती है कि वह सबलता से कुछ कह ही नहीं पाती॥ केशव के हाथ में लगाम दे ही नहीं पाते हम॥ सबसे पहला संशय तो हमें केशव पर ही है कि वह है भी अथवा नहीं॥
यही तो सब खेल है भगवद गीता का - 'संशयात्मक मन और अनिश्चयात्मक बुद्धि'
बुद्धि निश्चित नहीं होती, और मन का काम है अपना काम चलाना और काम चलाने के लिए जो भी गलत है अनुचित है ले आओ, बस अपना काम चलना चाहिए॥ इसलिए वह अपना विज्ञान गढ़ लेगा, नए स्केल बना लेगा, नए मानक स्थापित कर देगा, सब कुछ करेगा॥ क्योंकि उसे एक बात पता है कि प्रतिरोध आने वाला ही नहीं है॥ क्यों? क्योंकि बुद्धि का साहस नहीं कि हस्तक्षेप करे॥ नहीं कर सकती

तुम्हें मालूम है बहुत बार गौरव, गरिमा, ईत्यादि जैसे शब्द जब प्रयोग किए जाते हैं॥ गौरवशाली, गर्व का अनुभव करना आदि जैसे शब्द समाजशास्त्री जब बड़ी-बड़ी क्रान्तियों को खड़ा करने के लिए प्रयोग करते हैं॥ आज मैं उसके पीछे का विज्ञान दे रहा हूँ॥ समाजशास्त्री, विशेष रूप से वे समाजशास्त्री जो कोई क्रान्ति खड़ी करना चाहते हैं, वे किसी एक परिवर्तन के साथ गौरव को जोड़ देते हैं॥ किसे़? गौरव, गर्व, गौरवशाली अनुभव करो, उस क्रान्ति को खड़ा करने के लिए 'गौरव' शब्द जोड़ दो॥ क्योंकि ये ही शब्द हैं 'गौरव, गर्व, अस्मिता' ईत्यादि जो जगा देते हैं॥ किसे? उसे जो कुम्भकर्ण की तरह सोया है पर शक्ति उसमें अनन्त है॥ कौन? अहंकार! अहंकार को जगा दो॥ अहंकार के दो स्वरूप हैं एक पवित्र एक विकृत

अहंकार को जगाते हैं क्योंकि यदि अहंकार जाग गया तो मन बुद्धि चित्त में कोई क्षमता नहीं कि उसके समक्ष खड़े हो सकें॥ चूँकि वह सोया पड़ा रहता है, ऐसा कुम्भकर्ण जो बारह महीने सोया रहता है, कुम्भकर्ण तो 6 महीने सोया रहता था, यह 12 महीने सोया पड़ा रहता है॥ बल्कि जीवन भर सोया रहता है॥ क्योंकि जब यह 'पवित्र अहंकार' जाग गया, गौरव के नाम से, गर्व और अस्मिता के नाम से जब यह जाग गया तो उसके सामने फिर मन की चलने वाली नहीं है॥

बहुत से लोग जीवन में बड़े बड़े परिवर्तन तब ला पाते हैं जब कहीं उनका अहंकार आहत होता है, आत्म सम्मान को ठेस पहुँची, अस्मिता पर आँच आ गई, और अहंकार जाग गया॥ पवित्र अहंकार (अस्तित्व से सम्बन्धित है)॥ जब अहंकार को कोई छेड़ देता है जैसे नाग के फन को छेड़ दिया वह फुँफकार मारकर उठ खड़ा होता है और उसके सामने मन बुद्धि चित्त टिक नहीं पाते॥ इसीलिए कहते हैं आपने यह सब कैसे कर दिया?
बस भीतर अपमान अनुभव हुआ, आभास हुआ कि यह मेरा घोर अपमान है॥ अपमान किसने अनुभव किया? मन ने ? नहीं॥ बुद्धि अथवा चित्त को अपमानित होना पड़ा? नहीं॥ सोए हुए अहंकार ने अपमान का अनुभव किया॥
जिस दिन अहंकार यह अनुभव कर लेता है उस दिन मन अपनी दुकान मकान सब छोड़कर भाग चुका होता है॥ बुद्धि तो नए मालिक के सत्कार के लिए उपस्थित है॥ और चित्त तो बेचारा रिकॉर्ड रूम, कहता है 'जी मैं तो बीच में था ही नहीं, पहले भी नहीं था अब भी नहीं हूँ॥ मुझे तो जो कहोगे लिख दूँगा, जो dictation दोगे मैं वही लिखता हूँ॥ मेरा काम है डिक्टेशन लेना, आप जो बोलोगे वह लिखूँगा॥ मेरा काम नहीं है मैं अपनी ओर से सुझाव दूँ कि आप यह लिखें'॥

यह सब हमारे भीतर अदृश्य रूप में होता है॥ होता किसमें है? हमारे ही भीतर, अदृश्य रूप में होता है॥ हम अदृश्य जगत पर अविश्वास करें तो सबसे पहले हम अपने ही ऊपर अविश्वास कर रहे हैं॥ सबसे प्राथमिक अदृश्य जगत हमारे ही भीतर है, हमारे मन बुद्धि चित्त और अहंकार के स्वरूप में॥ हमारे भीतर के अदृश्य जगत में हमारी सबल बुद्धि जिससे आशा है उचित तर्क लाने की, जिससे आशा है उचित दृष्टिकोण अपनाने की, जब तक उसे सबल नहीं किया जाएगा, बात बनने वाली नहीं है॥ उसे सबल करने के लिए बार-बार अध्यात्म में भी कहा जाता है जीवन व्यर्थ चला जाएगा, नरपशु बनके जिओगे॥ यह नरपशु किसे कहा गया? शरीर को? अँगूठे को क्या पता नरपशु क्या होता है? मन को? मन तो सुन के भी कहेगा 'हुँह'॥ बुद्धि की चलती नहीं और चित्त रिकॉर्ड रूम में है॥ यह नरपशु कहकर उसी अहंकार को जगाया जाता है॥ नरपशु होकर जीना है क्या? नरपशु होकर मरना है क्या? ऐसे यही सब करते-करते ही मर जाना है क्या?

उसी गर्व को, गौरव, गरिमा, अस्तित्व, आत्मसम्मान, अस्मिता, अस्ति को ... अस्ति भी (क्योंकि अस्ति भाव भी अहंकार से ही सम्बन्धित है), उसी को जगाया जाता है॥ उसी को जगाकर के, मन के नियन्त्रण से लगाम छीनकर बुद्धि को पकड़ाई जाती है॥ और बुद्धि को सबल जागृत होने के निर्देश दिया जाता है॥

बुद्धि को झिड़ककर उसे उसका अधिकार बोध कराया जाता है थामो अपने हाथ में लगाम और चलाओ अपने अनुसार॥ इसीलिए कहते हैं धियो योन: प्रचोदयात्

प्रचोदयात् शब्द को गहराई से समझना, यह झकझोर देने वाला शब्द है॥ अर्थात् पूरी तरह से प्रेरित कर देना, कोई विकल्प नहीं छोड़ना, कोई If & But के बहाने नहीं छोड़ना, अच्छा कल देखते हैं॥ हाँ देखेंगे, सोचेंगे, नहीं अभी इसी समय, right now.

एक बड़े वर्चस्वी अधिकारी थे, 30-35 वर्ष पूर्व भारत सरकार के सचिव थे॥ कई योजनाओं पर मैं उनके साथ काम कर रहा था, केवल सेवा के नाते और कुछ नहीं॥ मैं देखता था उनकी कार्य शैली में एक बहुत अच्छा पुट था॥ जब भी किसी योजना पर बात करते थे तो प्राय: कहते थे 'ठीक है, Fix the Calendar'. अभी फिक्स करो साथ-साथ॥ क्या करेंगे, कब करेंगे, अभी तिथियाँ निर्धारित करो, टाइमफ्रेम निर्धारित करो॥ मूल्यांकन कब होगा निर्धारित करो॥ कहते थे इसके बिना तो यह कभी नहीं होगा॥

जब कोई कसर न छोड़ी जाए, कि कब होगा, कैसे होगा, उसे कहते हैं प्रचोदयात्  Now there are no other choices left, it has to be done.

धियो योन: प्रचोदयात् - प्रचोदयात् अपने आप में Instant Implementation है, Instant Initiative, Instant Action ... Now at this moment.

यह Power of Now, गायत्री के प्रचोदयात् में है॥ इस पल की शक्ति, इस पल की सामर्थ्य प्रचोदयात् में है॥ और यही हमारे अन्तर्मन को पता है कि कभी इसमें 'प्रचोदयात्' की घोषणा नहीं होगी, क्योंकि अहंकार सोया हुआ है॥ वह पवित्र Ego सोई हुई है॥ इसलिए 'प्रचोदयात्' शब्द कभी नहीं आने वाला॥ और यही कार्य फिर गायत्री के द्वारा परोक्ष रूप से कराया जाता है मन्त्र की ऊर्जा के द्वारा, शब्द की सामर्थ्य के द्वारा॥

प्राणाकर्षण में भी जो प्राण हम अर्जित करते हैं उसका लाभ वस्तुत: किसे देने की चेष्टा करते हैं? गम्भीरता से जिन्होंने किया है वे सोचें॥ वस्तुत: सबल तो हम अन्त:करण को ही कर रहे हैं॥ कि मुझमें यह सामर्थ्य है कि मैं अपने शरीर में यह परिवर्तन ला सकूँ, मन में यह परिवर्तन ला सकूँ॥ अपने भय, आशंका, संकल्प, विकल्प में यह परिवर्तन ला सकूँ॥ हम ही तो अपने भीतर करते हैं, हम 'प्रचोदयात्' को ही तो 'घटित' कराते हैं॥ When something has to happen now. जहाँ चित्त वहाँ प्राण, यही 'प्रचोदयात्'॥ बुद्धि को लगाम देना, अर्थात् वह होना जो होना चाहिए॥ एक ब्रह्मर्षि की सामर्थ्य क्या है? जब जो जानना चाहे जान जाए, जब जो करना चाहे कर पाए, वह ब्रह्म ऋषि है॥ उसका सीमित अस्तित्व हम लोग भी अपने जीवन में हस्तगत करने की चेष्टाएँ करते हैं॥ अत: जिस दिन भी जीवन में कोई अनियमितता हो, खान-पान में, व्यवहार में हो, उस दिन अपने भीतर के इस मंचन के प्रकाश में स्मरण करते हुए, शाम को मूल्यांकन करना कि उस समय मेरे मन में चल क्या रहा था॥ मैं क्यों ऐसा असंयम करके खा गया अथवा अधिक खा लिया? मैंने खान-पान का असंयम क्यों किया? यह Recall करना और उसी दिन थोड़ा समय बिताकर याद करना, अगले दिन याद नहीं आएगा॥ क्या चल रहा था? अपने भीतर मूल्यांकन करके स्वयं से प्रश्न करो कि मैंने असंयम क्यों किया? तुम देखोगे कि उस समय मन के द्वारा कैसे एक छद्म रूप में, एक Deceptive Concoction हुई थी॥ Something got concocted.

विचार करना, आनन्द आएगा, अपने अन्तर्जगत के खिलाड़ियों के खेल देखकर, उसे अनुभव करके आनन्द आएगा॥ फिर उन पर अधिकार जताने में भी तुम्हें सामर्थ्य प्राप्त होगी॥ तुम अपने ही भीतर उस 'पवित्र अहंकार' को जगाकर और अधिकार का प्रयोग करके बहुत सहजता से मन को भी दबा पाओगे॥ जो अब तक सम्भव नहीं हुआ॥

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