गगन नीला दिखता पर वह नीला है नहीं, शंकराचार्य द्वारा रचित आत्म बोध श् -21

गगन नीला दिखता पर वह नीला है नहीं, शंकराचार्य द्वारा रचित आत्म बोध श् -21

आदि गुरु शंकराचार्य जी द्वारा रचित आत्मबोध श्लोक नंबर 21.

देहेन्द्रियगुणान्कर्माण्य अमले (पवित्र) सत चित् आत्मनि। अध्यस्यन्ति (आरोपित) अविवेकेन गगने नीलतादिवत् - 21

अलग-अलग रंगों में इन शब्दों को भिन्न करने की चेष्टा की है जहां तक संभव है.. शरीर इंद्रियों के गुण और कर्म.. देह और इंद्रियाँ अर्थात सूक्ष्म और स्थूल दोनों का उल्लेख है यहां पर। देह और इंद्रियां इनके गुण और कर्म.. गुण स्थाई है,और कर्म अभी है, अभी चल रहे थे,बैठ गये लेट रहे थे बैठ गये। इस प्रकार से,, तो गुण और कर्म यह दो प्रकार के गतिविधियां मूलतः, शरीर और इंद्रियों के द्वारा होते हैं। इन कर्मो की धूल से इनकी गतिविधियों से इनकी सक्रियता से उठा पटक से जो पवित्र अमले माने पवित्र सत् चित आत्मनि… जिसका स्वरूप सत्य प्रकाश स्वरूप आत्मा है। इनके गतिविधियों की धूल उस पर आरोपित हो जाती है, उस पर चढ़ जाती है। वैसे ही और यह अविवेक है,अज्ञानता है जैसे आकाश नीला दिखता है पर नीला वास्तविकता में नीला है नहीं, आकाश रंगहीन है।

पर हमारी इंद्रियों की सीमाओं के कारण और जो प्रकृतिजन्य जो अन्य घटक है वो नीला दिखता है। नीला है नहीं आकाश का कोई रंग नहीं है। जैसे आकाश का कोई रंग नहीं है फिर भी नीला दिखता है ठीक उसी प्रकार आत्मा पर आरोपित शरीर पर इंद्रियों के गुण कर्म की गतिविधियां उस पवित्र सत चित आत्मा पर, अजन्मा पर एक आवरण आरोपित करती है। और लगता है कि मैं इतना ही हूं मैं यही हूं मैं इससे अधिक इससे भिन्न में नहीं हूं जबकि यह आरोपित है। और जब तक उस आरोपण की सघनता बनी रहेगी,तब तक निश्चित रूप से वह सत चित आत्मा... मुझे,, मैं अपनी बात कर रहा हूं, उसका आभास, उसका साक्षात्कार मुझे नहीं होगा। तब तक आकाश की भाँति नीला मैं अपने स्वरूप को इतना ही जानता रहूंगा जितना वर्तमान में शरीर और इंद्रियों की गतिविधियां है।

गुण और कर्म में उन्होंने शरीर और इंद्रियों को दोनों को समेट लिया और दोनों को समेट करके उन्होंने वो सब कुछ की ओर संकेत कर दिया जो पतंजलि अपने यहां वृति स्वरूप में बताने की चेष्टा कर रहे हैं। पतंजलि का सूत्र है ना योगश्च चित्त वृत्ति निरोध:। योग का मर्म तात्पर्य यही है चित् पर उठने वाले समूची वृत्तियां, वो जितने भी आक्षेप है,वृत्तियां है डिस्टरबेंसेस उन्हें बिल्कुल रोक देना है। उन से ऊपर उठ जाना है। अतः हालांकि निरोध शब्द का तात्पर्य गहराई में जाएं तो बहुत अलग है,,,चित्तवृत्ति निरोध: क्यों? इसलिए क्योंकि आकाश जैसे रंगहीन होकर भी नीला दिखाई देता है। उसी प्रकार वृत्तियों की अर्थात यहां दूसरा शब्द लिया है देह और इंद्रिय के गुण कर्म इतनी डिस्टरबेंस करते हैं इतनी खलबली मचाते हैं कि सत चित आत्म स्वरूप दिखाई ही नहीं दिखाई देता,,

अर्थात उसका आभास उसका बोध हो कर भी नहीं हो पाता आकाश रंगहीन होकर भी रंगहीन नहीं दिखता है चूंकि इंद्रियों की सीमा है वह रंगहीन के विषय में नहीं जानती है उन्हें कुछ स्वरूप में चाहिए। उन्हें नाम और रूप कि सृष्टि चाहिए। और रूप में यहां सब कुछ आ गया गंध आ गया शब्द भी आ गया। नाम और रूप की सृष्टि से ऊपर वह नहीं है उसके साथ बंधी है वो उससे इतर नहीं जा पाती। क्योंकि उनकी सीमा है और अपनी ही गति में अपनी ही खिचड़ी में इतनी व्यस्त है अगर मोटा शब्द लें,अपनी दुनिया में इतनी व्यस्त है कि उनके पास वो विवेक ही नहीं है, कि वह सत चित आत्मा को जान सके।

अनेक शब्दों में एक ही संकेत दे दिया जा रहा है आवश्यक नहीं कि जो दिखता है नहीं वो है ही, नहीं आवश्यक नहीं कि जो बोध में आया नहीं वो है ही नहीं। वो सब कुछ भी तो अस्तित्व रखता है। जो विज्ञान ने धीरे-धीरे पलट-पलट पर करके आज जानने की चेष्टा की है। ठीक उसी प्रकार आत्मा का स्वरूप मुझे भले ही आज उसका कोई बोध नहीं पर ज्ञानियों ने वैज्ञानिकों ने जो चेतना के विज्ञान के वैज्ञानिक है… अध्यात्म जगत माने चेतना के विज्ञान के जगत जो वैज्ञानिक है उन्होंने स्थापना कि है कि जैसे ही यह झमाझम समाप्त होगी सत चित स्वरूप अपने आप समक्ष आना आरंभ हो जायेगा। इस भाव के साथ हम इस श्लोक को पूर्ण करते हैं।

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