'आत्म बोध' आदिगुरु शंकराचार्य जी द्वारा रचित - श्लोक 5 ; https://youtu.be/Je3djvXR5Fs

'आत्म बोध' आदिगुरु शंकराचार्य जी द्वारा रचित - श्लोक 5 ; https://youtu.be/Je3djvXR5Fs

आदिगुरू शंकराचार्य जी द्वारा रचित 'आत्मबोध'

आज श्लोक संख्या 5

अज्ञान कलुषं (मैल) जीवं
ज्ञान (के) अभ्यासात् (श्रवण, मनन, निधिध्यासन) विनिर्मलम्।
कृत्वा ज्ञानं स्वयं नश्येज (साधना-विधि-प्रयास)
जलं कतक (निर्मली जलशोधक) रेणुवत् ।५।

अज्ञान कलुषं (मैल) जीवं - अज्ञान रूपी मैल जिसे हम आवरण (covering, coating, layering) भी कहते हैं, अज्ञान रूपी मैल जिसे कलुषं के नाम से उन्होंने यहाँ सम्बोधित किया, जीव से जब वह हटती है। कैसे हटती है? ज्ञान के अभ्यास से। यहाँ 'ज्ञान' शब्द का प्रयोग केवल बोध की दृष्टि से नहीं है। जैसे 'आत्मबोध' की साधना का बार-बार हम उल्लेख कर रहे हैं कि विज्ञानमय कोष की आत्मबोध की साधना में 'मैं' को टटोलना। यहाँ ज्ञान का अभ्यास वे अन्य सभी तैयारियाँ भी हैं जिनके अन्तर्गत 'श्रवण, मनन, निधिध्यासन' यह सब आता है। यह विषय आपने पूर्व में सत्संग में भली प्रकार पढ़ा है (इसका सत्संग भी ऑनलाइन उपलब्ध है आप ढूँढ सकते हैं)।

मनुष्य बार-बार किसी का श्रवण करता है उस पर अनायास भले ही चेतन मन या अर्द्धचेतन मन से अनजाने में, कोई न कोई भीतर मनन खिचड़ी पकती रहती है। यह सत्संग, इस प्रकार का सत्संग और बार-बार अलग-अलग विषयों को लेकर के एक ही विषय पर बार-बार आना, नित्य-अनित्य का भेद, यह श्रवण के अन्तर्गत है। मनन कई बार सजग रूप से होता है thoughtfully और कई बार अनजाने में ही भीतर मनन चलता रहता है।

मनुष्य का मस्तिष्क बहुत अद्भुत है थोड़ा सा सजग रूप से करता है, बहुत बड़ा कार्य अपने अवचेतन मन से करता है। पता नहीं लगता पर अवचेतन मन तो अपनी सक्रियता में प्राप्त सूचनाओं के आधार पर भीतर बहुत कुछ तैयार करता है; और यही बार-बार 'करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान' के रूप में जो बार-बार अभ्यास के लिए कहा जाता है, उसका तात्पर्य यही है कि अवचेतन मन की सक्रियता, प्राप्त ज्ञान के साथ बहुत कुछ करती है। जीव को बोध तब होता है जब सतह पर स्वभाव में परिवर्तन, प्राथमिकताओं में परिवर्तन दिखने लगता है। अत: यहाँ उन्होंने कहा - ध्यान के अभ्यास से जो हम नित्यप्रति 'श्रवण, मनन, निधिध्यासन' के माध्यम से करते हैं; उसी से निर्मलता आती है - विनिर्मलम्। जो निर्मलता है जिसे हम सामान्य रूप से कहते हैं निर्मल बुद्धि, पवित्र बुद्धि; यह बहुत बड़ी क्षमता है। इतनी बड़ी क्षमता है कि उसमें बहुत कुछ स्वत: अवतरित होना आरम्भ हो जाता है। क्योंकि जो कलुषित आवरण हैं वे जैसे ही हटते हैं, किस पर से? बुद्धि पर से, समझ पर से, तो स्वत: ही सम्पर्क अनेकों बड़े सत्य के साथ होना आरम्भ हो जाता है।

कृत्वा ज्ञानं स्वयं नश्येज (साधना-विधि-प्रयास) - और इस प्रकार वह ज्ञान, यहाँ ज्ञान शब्द का प्रयोग उन्होंने अपनी युक्ति से प्रयोग किया है, जिसे उपरोक्त 'ज्ञान का तात्पर्य' और यहाँ 'ज्ञान का तात्पर्य' दोनों थोड़ा सा विरोधाभास लिए हुए हैं। यहाँ आप यह मान सकते हैं कि 'वह प्रतीति जो हमें अपनी आज है', 'हम अपने विषय में जो जानते हैं' यहाँ वह 'ज्ञान' है। हम अपने विषय में क्या जानते हैं?
हम एक मनुष्य हैं? हाँ हैं
हमारी सीमाएँ हैं? हाँ हैं
हमारी आशाएँ आकाक्षाएँ हैं? हाँ हैं
जीवन लीला है? है
माया में हम सब हैं? बिलकुल हैं

यह हम अपने विषय में जानते हैं पर यह जानकारी उस दिन खण्डित हो जाती है जिस दिन आत्मबोध जागता है। यह वह पहला श्लोक है जिसमें आत्मबोध हेतु तैयारी को भी महत्त्व दिया गया है। शब्द 'ज्ञान' ही प्रयोग हुआ किन्तु भाव तैयारी का 'अभ्यासात्' अर्थात बार-बार 'श्रवण मनन निधिध्यासन' वह तैयारी जिसके लिए अनेक प्रकार की साधनाएँ भी हैं, उसका संकेतात्मक उल्लेख है। यहाँ ज्ञान शब्द का तात्पर्य अभी हमारे वर्तमान बोध से भी है कि हम अपने विषय में 'आज क्या समझते हैं', हम क्या हैं (आज)? कल जो होंगे आत्मबोध में वह नहीं, आज क्या समझते हैं। यह उसी प्रकार है जैसे:-

जलं कतक रेणुवत् - पहले पानी को साफ करने के लिए कतक जिसे निर्मली भी कहते हैं, हमारे यहाँ अन्य भाषाओं में अनेक भाषाओं में इसका नाम अलग है। यह एक छोटा सा पेड़ होता है पेड़ की तरह से ही, मैंने चित्रों में देखा है। उसके छोटे-छोटे हरे रंग के फल लगते हैं जिसके चूर्ण के द्वारा सम्भवत: किसी समय जल को शुद्ध किया जाता था। वह जल का शोधक था, जैसे आज water filters हैं, purifier हैं। यह उस समय एक प्रकार का herbal water purifier है जिसे कतक और समान्य भाषा में निर्मली भी कहा जाता है, यह जल शोधक है। तो क्या करते थे कि पानी में इसे डालते थे उसके चूर्ण को, वह सारी मिट्टी को लेकर के बैठ जाता था, ऊपर से पानी निथार लेते थे। तो मिट्टी को या जो भी दोष जल में है उसे कतक के चूर्ण से उससे मिट्टी को नीचे बैठा दिया जाता था रेणुवत् जैसे मिट्टी नीचे जाकर के जल में बैठ जाती है और पानी ऊपर से निकाल लेते थे। नीचे का भाग छोड़ दिया मिट्टी नीचे एकत्र हो गई तो वह नहीं आएगी।

तो यह कतक जैसे water purifier थी। आज हम लोगों को इसका अभ्यास नहीं है क्योंकि हमने अपने जीवन काल में कतक को (सम्भव है आपमें से कुछ लोगों ने उसे देखा होगा प्रयोग किया होगा मैं अपनी बात करूँ व्यक्तिगत मैंने उस प्रयोग को नहीं देखा, मैंने कतक को भी चित्र में ही देखा है स्वयं नहीं देखा) तो जब भी किया जाता होगा, जैसे उसकी मिट्टी नीचे बैठ जाती है उसी प्रकार जो आज का हमारा अपने विषय में ज्ञान है कि हम यह हैं, धीरे-धीरे अभ्यास के द्वारा और आत्मबोध की साधना के द्वारा, यह आज की समझ जो है यह पानी में मैल की भाँति नीचे जाकर बैठ जाती है और शुद्ध जल की भाँति 'आत्मबोध' के बाद आत्मस्वरूप' परिलक्षित हो जाता है।

यह भाव आज के इस श्लोक के द्वारा हम सब तक पहुँचाने का प्रयास आदिगुरू शंकराचार्य जी नेकिया है। मैं आशा करता हूँ कि आप लोग यह सत्संग का जो premier होता है, सम्भवत: आप में से कई साधक पुन: उसे दृढ़भूमि करने के लिए सुनते होंगे। क्योंकि ध्यान रहे सद्ज्ञान के लिए उसे बार-बार सुनना और मनन में जाना is a very thoughtful foolishness अर्थात बहुत सोची समझी मूर्खता है। पढ़ लिया न एक बार बहुत हो गया न। बार-बार एक ही चीज को पढ़ने का क्या औचित्य है? कुछ और पढ़ते हैं। बात तो यह भी ठीक है बुद्धि के तर्क से, पर यदि हम अध्यात्मिक सिद्धान्त से जाएँ तो बार-बार का अध्ययन, अनजाने में अवचेतन मन में बहुत बड़े परिवर्तन करता है, दृढ़भूमि होता है। इसीलिए 'श्रवणम् मननम् निधिध्यासनम्' ये 3 शब्द इस अध्ययन अथवा अनुभव के लिए कहे गए हैं। सत्संग का premier आप ही के लिए है और साथ ही साथ इसका लेख भी प्रतिदिन प्रकाशित होकर whatsapp से लिंक आता है, जिससे आप उसे पढ़ सकें, जिससे 'श्रवणम् मननम् निधिध्यासनम्' यह प्रक्रिया सक्रिय हो सके। अन्यथा इतना श्रम करने की आवश्यकता नहीं है।

   Copy article link to Share   



Other Articles / अन्य लेख