अगली माँ की कोख जीव इसी जन्म में स्वयं सुनिश्चित करता है।

अगली माँ की कोख जीव इसी जन्म में स्वयं सुनिश्चित करता है।

 ब्रह्मर्षि कहते हैं मनुष्य सतोगुण की अभिवृद्धि में ही रहते हुए जब मृत्यु को प्राप्त होता है (मृत्यु = मृ + अत्यु , मृ कहते हैं मिट्टी को और अत्यु कहते हैं छलांग लगाने को) मृत्यु शब्द बहुत बड़ा शब्द है। मृत्यु शब्द केवल शारीरिक स्तर पर ही प्रयोग किया जाए, यूं तो इस शब्द के साथ अन्याय हैं। फिर भी आज प्रचलन के सामान्य व्यवहार में अब मृत्यु शब्द केवल शरीर से जुड़ गया है और मृत्यु अर्थात शरीर का शान्त होना। मृत्यु अर्थात शरीर रूपी मिट्टी से छलांग लगाना। मृत्यु के उपरांत जीवात्मा जब सतोगुण गुणों की वृद्धि में प्राण त्यागती है शरीर है तो बहुत श्रेष्ठ दिव्य लोकों को प्राप्त होती है। कहने को तो अस्तित्व के अनेकों आयाम है (There are many dimensions of existence) पर सामान्यतः हम उनके विषय में बहुत कम जानते हैं। अनजाने और अनदेखे जगत के अस्तित्व कितने हैं इस पर मैं अपने बर्ह्म ऋषि के वाक्य दोहराना चाहूंगा। 


33 वर्ष पूर्व में ऋषि ने मुझे एक बार सामने बैठा कर कहा था की “क्या खुली आंखों से दुनिया जो दिखती है वह वास्तव में केवल उतनी ही है, नहीं बेटा ना दिखने वाली दुनिया - दिखने वाली दुनिया से कई - कई - कई गुना बढ़ी है”. उन्होंने इस बात को बार में पूर्ण किया। सामान्य व्यक्ति तो बढ़ा चढ़ाकर कुछ कह सकता है जिसे हम अतिशयोक्ति भी मान सकते हैं। पर जब एक ब्रह्म ऋषि के मुखारविंद से यह शब्द इस प्रकार से उच्चारित हों तो आप कल्पना करिए उन शब्दों के मर्म की विराटता ठीक उसी प्रकार है जैसे हम infinity को अनन्तता को व्यक्त करने के लिए तीन बिंदु लगाते हैं... अनन्तता अर्थात infinity.  न दिखने वाली दुनिया कई - कई - कई गुना बढ़ी है। यह उन्होंने तीन बार कहा, इसका तात्पर्य यह है कि infinity अनन्तता की बात उन्होंने अनेक लोकों के विषय पर कही। सतोगुण की अभिवृद्धि में मृत्यु प्राप्त होने वाली जीवात्मा दिव्य श्रेष्ठ लोको को प्राप्त होती है।  जिनमें से मृत्यु लोक भी एक है।  यह सत्य है की मृत्यु लोक में दुख और पीड़ा है। दोष से बनी इस सृष्टि में दुख का संयोग तो रहेगा ही। इस मृत्युलोक में भी स्वर्ग सा जीवन बहुत से लोग जी जाते हैं। अभाव - कष्ट उन्हें प्रभावित नहीं करते।अभाव होते हुए भी अभाव उन्हें आस्ते नहीं है (do not impact them) झोपड़ी में भी परम आनंद की अनुभूति उन्हें प्राप्त होती है। उनके लिए तो वहां कोई दुख नहीं है। दुख और सुख का निर्णय केवल समपन्नता नहीं करती है।  समपन्नता हमारे भाव स्तर में प्राप्त होने वाली अनुभूति को केवल पदार्थ सुनिश्चित नहीं कर सकते। इस सत्य को हमे जान लेना चाहिए कि सुख और दुख मनः स्थिति के अंतर्गत चलने वाले भाव की अनुरूपता में होने वाले अनुभव है। बाहर के कष्ट कई बार प्रभावित नहीं भी करते हैं। जिस मनुष्य के भीतर का भाव उच्च कोटि के समर्पण का हो, उदाहरण के लिए मैंने इच्छा से संकल्प पुस्तक में इसका उल्लेख किया है। ‘कि किस प्रकार भगत सिंह को जब शरीर पर कोड़े पढ़ते थे तो वह और उनके साथियों के मुख से शायरी फूटती थी’ ; क्या उन्हें शरीर पर पड़ने वाले प्रहार का कोई दुख था, कष्ट था। नहीं, उन्हें उस कष्ट का कोई भान नहीं था। वह अपने उद्देश्य में विलीन हो चुके थे। उनके भीतर की सजगता उनके जीवन के परम् उद्देश्य में आहूत हो चुकी थी। वह इस स्तर पर आहूत हो चुके थे कि बाहर के कष्ट की उन पर व्याप्ति ही नहीं थी।  यह बात उस अंग्रेज अफसर ने अपनी डायरी में लिखी जो यह सभी कुछ प्रत्यक्ष अनुभव करता था। उसी प्रकार मृत्यु लोक भी उन लोगों को अभाव, दुःख एवं कष्ट प्रभावित नहीं करते हैं जिनमे सतोगुणी अभिवृद्धि हो चुकी है। और अगर मनुष्य में रजोगुणी अभिवृद्धि में शरीर त्याग रहा है तो उसी के अनुरूप वह मृत्यु लोक में अथवा जहां कहीं भी उसका अगला जन्म अथवा अस्तित्व होगा। उसी के अनुरूप उसे सारे वातावरण और वातावरण के साथ-साथ वहां से उठने वाले प्रभाव भी प्राप्त होंगे, यह बात गहराई से समझने की है। 


अपने भीतर सतोगुण की वृद्धि करना बहुत आवश्यक है। महात्मा तैलंग स्वामी जी ने अपने शिष्य को उसके प्रश्न का समाधान करते हुए कहा था; “जो यह जानना चाहता था की यह पुनर्जन्म है, या यूं ही अंधविश्वास फैलाया गया है। महात्मा तैलंग स्वामी जी के विषय पर क्या आप जानते हैं की उन्हें  ‘काशी के सचल शिव’ अर्थात काशी का चलता फिरता शिव कहा जाता था। उनका कहना था की ‘बेटा ऋषियों द्वारा हजारों वर्षों से स्थापित सत्य मिथ्या नहीं हो सकता है। सामान्य व्यक्ति सामान्य बोध के स्तर पर कोई गहरा सत्य नहीं जान पाए तो क्या तुम उस विषय को नकार कर दोगे।  आदि काल से जिस तथ्य की स्थापना की गई उसे यूँ ही नकारना मत। और तुम पिछले जन्म में कैसे थे, (पिछले जन्म के संबंधों को याद करने की बात छोड़ दो जिसे  प्रकृति बिसरा देती है) यह जानना हो कि मैं पूर्व जन्म में कैसा था, यह जाना जा सकता है। वह कैसे? वर्तमान जीवन की अपनी समूची गहरी अभिरुचि के अवलोकन द्वारा तुम यह जान सकते हो कि तुम पूर्व जन्म में कैसे थे।  पूर्व जन्म का बोध तुम्हारे जो भी वर्तमान जीवन की deep inclination हैं, के द्वारा, अपनी अभिरुचि के द्वारा पता लगता है। योगेश्वर ने श्रीमद भगवद गीता में कहा कि वर्तमान जीवन में जीव अपनी अगली मां की कोख भी सुनिश्चित करता है। जिसकी जिस प्रकार की वृत्तियों के अन्तर्गत जिस गुण की अभिवृद्धि के अंतर्गत मृत्यु हुई वही निर्णायक है कि उस जीव का अगला जन्म किस अवस्था में होने वाला है। उसके आगे के जीवन का सारा विस्तार कैसा होने वाला है। 


अध्यात्म पथ पर जो साधक आ चुके हैं अर्थात जो जागृत हो चुके उन्हें गहराई से इस बात को अब प्राथमिकता देनी है कि मेरे प्रयास मेरे व्यवसाय के माध्यम से, मेरे परिवार के माध्यम से, मेरे किसी भी माध्यम से ऐसे अथक रहने चाहिए की सतोगुण की मुझमे निरंतर अभिवृद्धि होती ही रहे। जिससे आने वाले जीवन में उसकी पूरी छाया, उसका पूरा रंग, उसका पूरा प्रभाव, उसके हस्ताक्षर प्रदर्शित हों। यह आवश्यक है। सतोगुण की अभिवृद्धि हेतु अपने आप को लताड़ना आना चाहिए। स्वानुशासन से बड़ा कोई अनुशासन नहीं है - नहीं है - नहीं है समझे बाबू। 


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