शिवमानस पूजा भाग - 4 आदिगुरू शंकराचार्य जी द्वारा रचित

शिवमानस पूजा भाग - 4 आदिगुरू शंकराचार्य जी द्वारा रचित

शिवमानस पूजा भाग - 4 आदिगुरू शंकराचार्य जी द्वारा रचित एक ऐसी ध्यान हेतु धारणा जो अपने आप में पूजा भी है और ध्यान की धारणा भी है॥ आज हम उसके अगले श्लोक 4 पर आते हैं

आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं
पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः ।
सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ।।4।।

आत्मा त्वं गिरिजा मतिः - हे भोलेनाथ, तुम ही मेरी आत्मा हो, साधक ध्यान में कहता है 'तुम ही मेरी आत्मा हो'॥ आत्मा तो मूल है न? जिसके आसपास, जिसके हेतु, सब है॥ आत्मा स्वयं किसी का हेतु नहीं है, जो है उसके लिए है॥ आत्मा तुम हो॥ गिरिजा मति: - अर्द्धनारीश्वर का उल्लेख आया॥ माँ पार्वती मेरी बुद्धि है, धियो यो न प्रचोदयात् ॥ तुम मेरी आत्मा हो, माँ गिरिजा मेरी बुद्धि है॥
सहचरा: प्राणा: - जो आपके सहचर हैं, जितने भी गण ईत्यादि सहचर हैं वे मेरे प्राण हैं॥
शरीरं गृहं - यह शरीर आपका घर है, भगवान का देवालय इस शरीर को भी माना जाता है॥ शरीर को भगवान का मन्दिर भी माना जाता है॥

पूजा ते विषय उपभोग रचना - जितने भी विषय मैं भोगता हूँ, अब यहाँ बहुत बड़ी एक उछाल है उपासना में इन्द्रियों के द्वार जितने भी विषय, भोग भोगे जाते हैं, वे आसक्त करते हैं॥ विषयों में रहते हुए अनासक्त होने का एक यह भाव है, कि आप मेरे विषय बन गए॥ मैं जितने भी विषय भोगूँ उसमें आप ही का दर्शन हो, आप ही का भाव रहे तो विषयों को भोगने वाली इन्द्रियाँ स्वत: पवित्र हो जाएँगी॥ ये समस्त इन्द्रियाँ सद् उद्देश्य की, पवित्र उद्देश्य की पूर्त्ति भी तो करती हैं॥ इन्द्रियाँ उपकरण हैं, निर्णय कोई और लेता है भीतर, और बदनाम इन्द्रियों को किया जाता है॥ आदिगुरू शंकराचार्य कहते हैं मैं जो भी विषय भोगूँ वह आपकी पूजा है, निश्चित रूप से अपने इष्ट की पूजा॥ जैसे हम कहते हैं कि दुकानों पर सनातन पद्धति से जुड़े हुए जो दुकानदार हैं, अपनी गद्धी को शिव की गद्धी बोलते हैं॥ यह भगवान शिव की सीट है मैं उसका सेवक हूँ, मैं यहाँ दुकान का मालिक नहीं हूँ, यह शिव का स्थान है॥ शिव की गद्धी मानकर के जो भी व्यापार होगा वह उपासना रूप ही होगा॥ जिसने इसे हृदय से मान लिया अब उसकी दुकान एक उपासना स्थली बन गई॥ उसी प्रकार जितने भी विषय हैं, वहाँ शिव की उपस्थिति मानकर भोग फिर उपासना बन जाता है॥

निद्रा समाधि स्थिति: - जो मेरी निद्रा है वह आपकी समाधि की अवस्था है अत: इस शरीर में होने वाली समस्त गतिविधियों को यदि मोटे रूप से देखें, सभी कुछ उन्होंने ले लिया

संचार: पदयो: प्रदक्षिण विधि: - जो भी मेरा घूमना है पैरों से जहाँ भी मैं जाता हूँ, प्रदकषिण विधि - वह आपकी परिक्रमा है प्रदक्षिणा है॥ मेरे पैर जहाँ भी जाएँ वह आपकी है परिक्रमा कर रहे हैं॥ जैसे पृथ्वी पूरी भक्ति से सूर्य के आसपास ही मँडराती है उसी प्रकार मैं जहाँ भी विचरूँ, जहाँ भी मैं जाऊँ वह केवल आपकी ही परिक्रमा हो, अर्थात मेरे कदम कहीं अशिव की ओर जाएँ ही नहीं

स्तोत्राणि सर्वा गिरो - जो कुछ भी मैं गाऊँ बोलूँ , जो कुछ भी बोला जाए, वह समस्त आपके लिए बोले गए गाए गए, आपकी स्तुति है॥
यत् यत् कर्म करोमि तत् दखिलं - जितने भी मैं कर्म करूँ, तत् तत् - वे सभी अखिल, समस्त आपकी आराधना ही हो, मैं जो कुछ भी करूँ वह केवल आपकी आराधना स्वरूप हो, each & every activity सभी कुछ जो मेरी आँखों के बन्द होने पर चले और खुली आँखों से चले , वह आपकी उपासना हो, तो क्या बचा ? शिव ॥ अशिव बचेगा ही नहीं, इसीलिए शिव के ध्यान में हम एक ही बात कहते हैं पवित्र ऊर्जा ॥ जहाँ शिव आ गए वहाँ अशिव का पलायन है॥ शिव आते ही अशिव चला जाएगा॥ शिव के आते ही शक्ति है, शिव के आते ही मंगल है॥ गणपति हैं न साथ में॥ शिव के आते ही बल है, हनुमान हैं न॥ शिव अर्थात कल्याण सम्पूर्ण कल्याण

आप सब भी इन्हें स्मरण करते चलो जिससे इसके पूर्ण होते ही उसके उपरान्त हम एक साथ कुछ दिन अवश्य गाएँ ताकि हमारी स्मृतियों में यह अंकित हो जाए॥ हम जहाँ कहीं भी हों,किसी तीर्थ पर जाएँ, देवालय में हों, जब शिवलिंग के दर्शन हों, हिमालय में हों, माँ गंगा, नर्मदा के किनारे हों, जहाँ भी हों, जैसे ही बैठें तत्काल यह शिवमानस पूजा आदिगुरू शंकराचार्य जी को पहले प्रणाम करते हुए, हम तत्काल उस समय उपासना की अवस्था में पहुँच जाएँ॥ अत: इसे बहुत गम्भीरता से अवलोकन करते हुए इसे स्मरण करना॥

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