विक्षेप शक्ति और आवरण शक्ति ही माया है। आदिगुरु शंकराचार्य जी द्वारा रचित आत्म बोध श्लोक - 6

विक्षेप शक्ति और आवरण शक्ति ही माया है। आदिगुरु शंकराचार्य जी द्वारा रचित आत्म बोध श्लोक - 6

आज आत्मबोध पर आदिगुरू शंकराचार्य जी द्वारा रचित रचना पर छटा श्लोक

बात एक ही विषय पर प्रत्येक श्लोक में पुन:स्थापित करने का एक प्रयास है। आवरणों से हम ढके हैं। कहते हैं कि जो माया है वह राग और द्वेष अर्थात रजोगुण और तमोगुण के द्वारा, माया की शक्ति को दो नाम दिए गए हैं - विक्षेप शक्ति आवरण शक्ति। रजोगुण के द्वारा विक्षेप उत्पन्न होता है। गड़बड़ी, उठापटक, कभी कोई कभी कोई आकांक्षा, कभी कुछ अधूरा तो कभी कुछ पूरा करना, आगे-आगे दौड़ना भागना।
क्या यह बुरा है?
न न बिलकुल बुरा नहीं है। सामान्य जीवन के अनेक दायित्वों के निर्वहन के लिए आवश्यक है रजोगुण, पर यहाँ विषय भी तो दूसरा है न। यहाँ सामान्य जीवन का दायित्व निर्वहन नहीं है अपितु केवल वह अवस्था है, जो चरम की अवस्था किसी साधक के लिए हो सकती है। यह सत्य है आज हमारी वर्तमान अवस्था यह कदापि नहीं है, इसमें कोई सन्देह है ही नहीं। पर हाँ, आने वाले कल में जब भी अवस्था होगी उसके स्वरूप, उसके प्रारूप का बोध हम प्राप्त कर रहे हैं।

अत: 'आत्मबोध' एक शब्द है, पर यह शब्द मैंने एक कह दिया क्योंकि यह एक अवस्था है। हैं तो 2 शब्द (आत्म बोध)पर मैंने एक कहा, क्योंकि एक अवस्था है, उस अवस्था को संकेत देते हैं ये शब्द। 'आत्मबोध' अर्थात जब मुझे ज्ञान हो गया 'मैं हूँ क्या'। यहाँ ज्ञान का तात्पर्य केवल जानना नहीं है, जानते तो हम बचपन से आए हैं। 'ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या', 'आत्मा है' ईत्यादि। यहाँ ज्ञान का तात्पर्य है कि जब वह जो केवल जाना गया, वह चरितार्थ हो गया, प्राण प्रतिष्ठित हो गया सिद्ध हो गया। वह आत्मबोध भले ही सिद्ध होने में जन्मों लगें पर उस आत्मबोध की अवस्था के विषय में कहा गया कि माया की पकड़ जब समाप्त होती है। माया रूपी सपना, क्या? माया रूपी स्वप्न जब समाप्त होता है और वह जागृति होती है 'आत्मबोध'; तो पता लगता है कि यह सब लीला है।

अभी हम क्या समझते हैं? जब सो जाते हैं तो जो खोपड़ी में चलता है वह स्वप्न है, और उठते हैं तो हम जाग जाते हैं, जागृत अवस्था में आते हैं जिसे 'सति' शब्द से सम्बोधित किया गया जागृति से। पर यहाँ आदिगुरू कहते हैं कि नहीं, यह सोना रात में सोना और फिर जाग जाना, यही केवल जागृति नहीं है। अपितु माया की पकड़ से जब मनुष्य छूटता है उसे पता लगता है कि यह सब कुछ ही सपना था। अर्थात मैं सपने में ही रात को सोता था और सपने में ही जागता था; और जाग के सोचता था कि मैं जाग गया जबकि यह सब सपना है। मैं वह था ही नहीं जो सोता था और जागता था, मैं तो कुछ अन्य हूँ।

सुनने में आरम्भ में ये बातें कुछ थोड़ी सी, थोड़ी सी अटपटी लगती हैं। लगे भी क्यों न? वह सत्य जो चखा नहीं, वह सत्य जो जाना नहीं, अनुभव में नहीं आया उसके विषय में सुनकर के अपने आपको टटोलते हैं और ऐसा कुछ नहीं मिलता तो लगता है कि यह क्या है? पर ब्रह्म ज्ञानियों के कथन नकारे नहीं जा सकते जो लाखों वर्षों से स्थापित हैं आर्ष ग्रन्थों में।

माया की पकड़ दो प्रकार की है रजोगुण तमोगुण। रजोगुण की पकड़ को कहते हैं विक्षेप शक्ति और तमोगुण की पकड़ को कहते हैं आवरण शक्ति; विक्षेप शक्ति आवरण शक्ति। विक्षेप शक्ति टिकने नहीं देती और आवरण शक्ति जगने नहीं देती, ढके रखती है भ्रमित रखती है भ्रम बनाए रखती है। एक ने टिकने नहीं दिया दूसरे ने भ्रम बनाए रखा जगने नहीं दिया दोनों मिलकर के बनते हैं माया।

विक्षेप शक्ति आवरण शक्ति, कभी भी माया के विषय में विचार करना हो कि माया अर्थात? माया अर्थात विक्षेप शक्ति आवरण शक्ति। विक्षेप टिकने नहीं देगा और आवरण जगने नहीं देगा, भ्रम में रखेगा। अत: दोनों रजोगुण और तमोगुण के द्वारा यह राग द्वेष के द्वारा प्रसारित शक्ति है और जब आत्मबोध होता है 'मैं क्या हूँ?' आदिगुरू शंकरचार्य कहते हैं तब सपना टूटता है और वास्तविक जागृति होती है। तब जीव जानता है यह सब सपना था; सपने में सपना। कहते हैं न मैंने देखा सपने में सपना, तो सब सपना ही है यह उनका मानना है। हाँ ठीक है आज तो यह बात नहीं लगती हमें, लगे भी क्यों? क्योंकि अभी हम उस अवस्था को भी प्राप्त नहीं हुए, पर जब हम प्राप्त होंगे तब यह लगेगा। बहुत सी नई बातें नित्य समझ में आती है नित्य बोध में जागृत होती हैं। पता लगता है अरे हमें तो यह पता ही नहीं था, हम ऐसा सोचते ही नहीं थे। हमने तो भिन्न तरह से सोचना आरम्भ कर दिया। कुछ ठीक उसी प्रकार से है। अत: आइए अब श्लोक पर चलते हैं:

संसार: स्वपन तुल्यो हि रागद्वेषादिसङ्कुल:।
स्वकाले सत्यवद् भाति प्रबोधे सत्यसद्भवेत्।६।

संसार: स्वपन तुल्यो हि रागद्वेषादिसङ्कुल: - अब यह राग द्वेष के द्वारा आच्छादित स्वप्न इसकी पकड़ में है इसकी भरमार है और यह संसार है तो स्वप्न पर इसकी माया राग द्वेष के द्वारा हमें पूरी तरह से पकड़े रखती है।

स्वकाले सत्यवद् भाति प्रबोधे सत्यसद्भवेत् - स्वकाल किसका? राग और द्वेष का, स्वकाल अर्थात my time किसका? वह my time किसका है? यह my time स्वकाले है राग और द्वेष का, माया का है। जब तक माया का my time स्वकाले चलता है, सत्यवद्भाति - सत्य बाहर नहीं आ पाता। प्रबोधे सत्य सद्भवेत् - पर जैसे ही जागृति होती है सत्य प्रकट हो जाता है। यहाँ सत्यसद्भवेत् में सति + असत् + भवेत् अर्थात् असत् छूट जाता है सत्य प्रकट हो जाता है। तीन शब्दों का यहाँ जुड़ाव है पर बोलने में हम इसे सत्यसद्भवेत् कहेंगे।

जब जागृति होती है आत्मबोध होता है तो उस समय सब कुछ, पूरा जीवन, मनुष्य की योनियाँ आना-जाना, 'पुनरपिजननम् पुनरपि मरणम् पुनि पुनि जननी जननी जठरे शयनम्' - तो सब सपना लगता है सब कुछ सपना लगता है कब? जब विक्षेप शक्ति और आवरण शक्ति से हम मुक्त होते हैं। यह पूरा जीवन चेष्टाओं में है। साधनाएँ, चेष्टाएँ हैं और कुछ नहीं। साधनाओं के द्वारा हम चेष्टाओं में रत हैं कि हम उस जागृति को प्राप्त कर सकें। बार-बार दोहराने का सौन्दर्य यही है खूँटा याद रहता है अवस्था याद रहती है कौन सी जिसको प्राप्त होना है। यही सत्संग, सत्संग का मर्म है!

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