पञ्चभूतों से निर्मित शरीर कर्म बन्धनों के सुख दुःख भोगता है ,आत्म बोध आदि शंकराचार्य जी द्वारा रचित श्लोक 12

पञ्चभूतों से निर्मित शरीर कर्म बन्धनों के सुख दुःख भोगता है ,आत्म बोध आदि शंकराचार्य जी द्वारा रचित श्लोक 12

ब्रह्म मुहूर्त्त ध्यान उपरान्त सत्संग - आदिगुरू शंकराचार्य जी द्वारा रचित 'आत्मबोध' - श्लोक १२

कर्म के बन्धनों के अन्तर्गत पंचभूतों का प्रपंच, एक शरीर देता है। कर्म के बन्धनों के अन्तर्गत उनके अनुरूप accordingly पंचभूतों का प्रपंच एक शरीर देता है। वह शरीर एक घर है घरौंदा है जिसके माध्यम से सुख दु:ख का भोग है। यह तो श्लोक में वर्णन है पर साथ ही यही शरीर, यही पंचभूतों की काया आत्म उत्कर्ष का साधन भी है। शरीर के इस महत्त्व को इसके प्रकाश को, आइए श्लोक के द्वारा देखते हैं।

पञ्चीकृत महाभूत सम्भवं कर्मसंचितम्।
शरीरं सुखदु:खानां भोगायतनुमुच्यते ।१२।

पञ्चीकृत महाभूत सम्भवं - पाँचों के द्वारा रचा गया, पर पाँच कौन महाभूत? यहाँ महाभूत शब्द जब सुनो तो पंचकोषों से भी जोड़ देना। यहाँ केवल 'पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश' ईत्यादि उतने नहीं इन्हें अपने 'अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय' कोषों के साथ भी जोड़ना। पंचीकृत महाभूत सम्भवम् - यह काया, काया शब्द बाद में आएगा।
कर्मसंचितम् - जो कर्म संचय है उसको भुगतान होना है न। उसके लिए यह षड्यन्त्र रचा जाता है सम्भव होता है।

शरीरं सुखदु:खानां - शब्द है सुख और दुख हेतु
भोग आयातनम् - आयातनम का अर्थ है घरौंदा।
उच्यते - जाना जाता है कहा जाता है समझा जाता है।

कर्म बन्धनों के अनुरूप ही पंचभूत अपना एक षड्यन्त्र रचते हैं जो अपने आप में एक विज्ञान है। किस प्रकार के कर्म के अनुरूप, कौन से पंचभूत का कौनसा तत्त्व, अपना मुख्य अंश कहाँ कैसे देता है; यह एक विस्तार है अलग विस्तार है। पर मोटे रूप से एक साधक के लिए इतना जानना पर्याप्त है कि कर्म के संचय के अनुरूप ही यह सूक्ष्म और स्थूल में मनुष्य की सृष्टि होती है।

यह किसकी ओर संकेत है? यदि कल के श्लोक से जोड़ कर देखें तो अब मनुष्य के अस्तित्व के विषय में चर्चा है, उसकी अपनी सत्ता के विषय में उल्लेख है। तो पहला कौन सा है? पहला है शरीर। कौन? शरीर, काया; सबसे पहले यह काया की ओर दिया गया उल्लेख है। मनुष्य के अस्तित्व के मुख्यत: तीन अंश हैं। कल उल्लेख आया था न? कि अस्तित्व को केवल उतना नहीं जानना। उन तीनों में उसके स्थूल शरीर के भी कुछ सूक्ष्म तत्त्व हैं और एक सूक्ष्म शरीर भी है। स्थूल शरीर के सूक्ष्म तत्त्व कौन से हैं? वे जिसे हम Yogic Anatomy कहते हैं, हमारे भीतर प्राण का अलग circuit है जिन्हें हम भ्रमर, गुत्थी, उपत्यका ईत्यादि के नाम से सम्बोधित करते हैं जिसके लिए सारे योगासन, योगासन तो केवल Physical PT थोड़ी न है। योगासन हिलता डुलता तो शरीर दिखता है, हाथ पैर कमर आदि परन्तु उनका मूल प्रभाव तो किसी अलग मर्मस्थल को स्पन्दित करने के लिए है जो इस स्थूल शरीर में है पर एक सूक्ष्म अवस्था में है।

मनुष्य के अस्तित्व के तीन भाग हैं - स्थूल सूक्ष्म और कारण। जब तक ये तीनों का विलय नहीं हो जाता तब तक सम्भव ही नहीं है कि जीवात्मा आत्मा बने। जीवात्मा को आत्मा बनने के लिए पूर्ण मुक्त होने के लिए आवश्यक है कि इन तीन अस्तित्व से अर्थात तीन शरीर से भी मुक्त होना है। जिसमें पहले का उल्लेख किया जो कर्म के संचय के अनुरूप पंच महाभूतों के द्वारा रच के सम्भव होता है जिसके द्वारा सुख दु:ख कर्म का भुगतान होता है; हाँ उत्कर्ष भी होता है मैंने साथ में जोड़ दिया था। परन्तु यह घर है इसीलिए ऋषियों ने प्रार्थना दी है कि शरीर को भगवान का मन्दिर मानकर, मन्दिर मानकर इसलिए क्योंकि इसके द्वारा ही साधना होनी है। यम, नियम, आसन, प्राणायम कौन कर रहा है? शरीर, यदि यह मन्दिर साथ नहीं होगा, ठीक नहीं होगा तो फिर क्या साधना सम्भव है? नहीं, सम्भव नहीं है। हालांकि इसके द्वारा सुख और दु:ख भी भोगे जाने हैं, उत्कर्ष भी होना है। इन तीनों के विलय होने से पूर्व मोक्ष नहीं है। यह संकेत में कहा मैंने, श्लोक में तो केवल उतना ही कहा गया पर यह मैंने संकेत रूप कहा।

आदिगुरू शंकराचार्य जी की इस महान रचना आत्मबोध के द्वारा थोड़े से अंशों में ही सही, कहीं न कहीं उपनिषदों का दिव्य रस हमें प्रसाद रूप इस वर्तमान सत्संग की श्रृंखला में प्रतिदिन मिल ही जाता है।

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