'शान्ति और सुख' भाव की सामर्थ्य (आज के सत्संग का लेख)

'शान्ति और सुख' भाव की सामर्थ्य (आज के सत्संग का लेख)

'शान्ति और सुख' भाव की सामर्थ्य (आज के सत्संग का लेख) 

भाव की सामर्थ्य 'शान्ति और सुख' है। 

अगर ऐसा है तो फिर जानना होगा की यह 'शान्ति और सुख' वस्तुतः क्या है। सामान्य समझ तो 'शान्ति और सुख' के विषय में इतना ही जानती है की शान्ति अर्थात झंझट मुक्ति अथवा बाहरी एवं आन्तरिक मौन (जबकि आन्तरिक मौन भी एक विलक्षण अवस्था है) . और सुख अर्थात सुविधा पूर्ण अवस्था जहां दुविधा नहीं है। भारतीय परिपेक्ष में माताएं अपनी ब्याही बेटियों के विषय में सामान्य रूप से कहती पाई जाती हैं की 'अमुक तो बहुत सुखी है', ईश्वर ने उसे सारे सुख दिए हैं इत्यादि। निष्कर्ष स्वरूप 'शान्ति और सुख' का अभिप्राय सामान्य जन यही निकलते हैं की शान्ति अर्थात "चैन" और सुख अर्थात लौकिक स्तर पर पदार्थ एवं समबन्धों की पूर्णता। 


अब यहीं से ध्यान दे कर विचारना होगा की क्या 'शान्ति और सुख' इतने भर ही हैं चूँकि भाव जगत की सम्पदा अथवा अधिकार रूप क्या जीव को केवल उपरोक्त बताएं गई अवस्थाएं मात्र प्राप्त होती हैं। अध्यात्म पथ के साधक को इस विषय पर गहरा मनन करना होगा, भले ही इस विषय पर मनन की आशा हम सामान्य जन से नहीं करते जिनकी उत्कर्ष की यात्रा में अभी अध्यात्म जगत में कोई पदार्पण अथवा प्रगति नहीं हुई है। 


इस विषय पर गंभीर मनन अध्यात्म पथ के साधक को उस बोध की निकटता प्रदान करेगा जिससे वह यह जान पाए की 'भाव जगत' की ऐसी कौनसी सामर्थ्य है जिसे प्राप्त कर ब्रह्म ऋषि परमानन्द में रमते हैं।  ऐसा कौनसी अवस्था है जिसके विषय पर ब्रह्म ऋषियों ने वर्णन किया की उस ब्रह्मानन्द के सुख के सामने इस पृथ्वी के सम्पूर्ण ऐश्वर्य एवं वैभव एक कण के समान भी नहीं हैं। देखो साधक उपलब्धि स्पष्ट हो तो जान लगाने हेतु मनुष्य कोई कसर नहीं छोड़ता है। 


'शान्ति और सुख' को विशुद्ध व्यवहार की दृष्टि से हम मृत्यु लोक के वासियों को जानना हो इस प्रकार जान सकते हैं की ;


शान्ति अर्थात वह अवस्था जिसमे सभी कुछ पूर्ण रूप से ठीक वैसे ही होता चला जाए जैसे ईश्वर ने मूल रूप से रचा है।  भिन्न शब्दों में कहें तो ईश्वरीय मन की अनुरूपता में सभी कुछ जब घटित हो तो वह शान्ति ही है। उदाहरण स्वरूप ईश्वर की मूल रचना में पृथ्वी, वायु, जल, विचार एवं भाव का प्रदूषण नहीं है।  यह समस्त दोष हमने ही अपनी ओछी संकीर्णता के वशीभूत उत्पन्न किए हैं। पृथ्वी, वायु, जल, विचार एवं भाव शुभ गन्ध धारण किए रहें तो यह पृथ्वी स्वर्ग से भी उत्तम जाननी चाहिए। हमारी दुष्प्रयासों के कारण ही इन सभी में और हमारे अपने जीवन हेतु अशान्ति का साम्राज्य चहुँ ओर दिखाई पड़ता है। 


निष्कर्ष स्वरूप जीव को ब्रह्म की रची सृष्टि अनुरूप जब जो करना चाहिए वह कर पाए यही शान्ति है। 


सुख अर्थात ऐसी अवस्था जिसमे वह जीव जब जो जानना चाहे जान जाए - उसे जब जो जानना चाहिए वह जान पाए यह "सुख" है। 


यह दोनों 'शान्ति और सुख' की अवस्थाएं देवताओं को भी पूर्ण रूप से सुलभ होंगी की नहीं मैं नहीं जनता हूँ।  पर इन दोनों अवस्थाओं पर मनन करने से यह ज्ञात हो जाएगा की जिसके पास यह दोनों अवस्थाएं हैं उसके लिए मृत्यु लोक बहुत छोटा पड़ने लगेगा। उसकी व्याप्ति समस्त भूतों से ऊपर जगत और साथ - साथ सृष्टि की परिधि को बाँहों में भरने की होगी। 


भाव जगत की इस सामर्थ्य के मनन एवं काल्पनिक दर्शन मात्र से ही ब्रह्म ऋषियों की सामर्थ्य का कुछ - कुछ बोध हम जैसे सामान्य साधक को भी होने लगेगा। अभी इस विषय पर और भी कुछ कहेंगे। 



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