Part - 19. एक पुनरावलोकन - व्यवस्थित चिन्तन विचारों की शक्ति का आधार

Part - 19. एक पुनरावलोकन  - व्यवस्थित चिन्तन विचारों की शक्ति का आधार

व्यवस्थित चिंतन विचारों की शक्ति का आधार है

आज सत्संग नहीं कर रहे, प्राणाकर्षण का दूसरा बैच आरम्भ होने जा रहा है॥ इसलिए उससे सम्बन्धित कुछ तकनीकी तैयारी है॥ अत: आज सत्संग नहीं होगा॥ निर्मम शब्द पर जितना उल्लेख कल दिया गया उसके लेख को अवश्य पढ़ना साधक॥ इस प्रशिक्षण श्रृंखला में अभी तक 17-18 भाग पूर्ण हो चुके हैं॥ मेरा सभी विद्यार्थियों से निवेदन है कि वे पिछले लेख पढ़कर के स्मृति और विषय से सम्पर्क बनाएँ; Remain connected with the subject अन्यथा कई बार हम प्रवाह में आगे बढ़ जाते हैं तो उस विषय की जो समग्रता है Entirety है वह गुँथी नहीं रहती बिखर जाती है॥ हमारा विषय वही है "व्यवस्थित चिंतन विचारों की शक्ति का आधार"॥

ब्रह्म ऋषि के अनुसार इस पूरी पृथ्वी पर समस्याओं का जो मूल कारण है वह एक ही है॥ आप कितना भी मनन कर लेना आपको ढूँढने पर भी दूसरा कारण नहीं मिल सकता॥ मैंने वर्षों मनन किया वर्षों, कोई दूसरा कारण नहीं मिला॥ अचिंत्य चिंतनम् - जो नहीं सोचना चाहिए वह सोचा जाए उसे 'अचिंत्य चिंतनम्' कहते हैं॥ अचिंत्य चिंतनम् के स्थान पर यदि व्यवस्थित चिंतन हो, सकारात्मक चिंतन हो, तो विचारों की शक्ति जन्म लेती है॥ जीव में सार्थक उद्देश्य जन्म लेते हैं वह जीवन में कुछ ऐसा करता है जिसकी प्रगति उसके साथ आगे जाती है॥ आगे जाती है? हाँ, यहाँ तो उसका लाभ मिलता ही है वह तो अवश्यम्भावी है, पर वह निश्चित रूप से आगे जाती है॥

हाथ रगड़ने पर ऊर्जा जन्म लेती है॥ उस ऊर्जा के जन्म लेने से हम सामान्यत: मुख पर लगाते हैं, बहुत सर्दी हो तो हाथों को गर्म करके एक गर्मी का आभास करते हैं॥ पर वहीं एक साधक ध्यान के उपरान्त इन्हीं हाथों को रगड़ कर पहले सूँघता है॥ जब हाथों को रगड़ कर तुम सूँघते हो तो वह प्राण का तत्त्व जागृत होकर सीधे तुम्हारे कपाल में पहुँचता है॥ ठीक उसी प्रकार व्यवस्थित चिंतन के द्वारा उत्पन्न होने वाली शक्ति न केवल वर्तमान अपितु मनुष्य के आत्म उत्कर्ष के लिए एक बहुत बड़ा साधन बनती है॥ यह विषय बहुत गहरा है मैंने पूर्व में भी इसका उल्लेख किया आज केवल दोहरा रहा हूँ॥ हो सकेगा तो इसका भी मैं लेख भेज दूँगा॥

व्यवस्थित चिंतन के द्वारा मनुष्य के भीतर एक बहुत बड़े स्तर का परिवर्तन होता है॥ उसके पंचकोषीय अस्तित्व में इसी प्रकार की साधना से स्वत: उसके अन्नमय प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय, (आनन्दमय को मैं बीच में नहीं ले रहा), इन चारों कोषों पर उसका प्रभाव पड़ता है; इसे आप रोक नहीं सकते, काट नहीं सकते॥ यही कार्य हम उपासना और साधना के द्वारा लेकर आगे बढ़ रहे हैं॥ उपासना में जप और ध्यान आ गया, साधना में आत्म परिष्कार आता है ॥ आत्म परिष्कार के अन्तर्गत जिस ज्ञान और अपनी साधना के पक्ष को लेकर हम चल रहे हैं, साधना - परिष्कार के द्वारा जीवन को साधना॥ परिष्कार के द्वारा ही भीतर की समस्त खरपतवार समाप्त की जाती है॥ भीतर की खरपतवार को समाप्त करने के लिए पहले उसकी पहचान होना, दुर्योधन की शक्ल पता लगना आवश्यक है, कौरव उसकी छाया है, The remaining 99 are merely part & parcel वे अपने आप में मुक्त नहीं है, वे सब उसकी छाया हैं, दुर्योधन गया सब गए॥ भीतर के दुर्योधन को पहचान करके उसे आत्म संयम से परास्त कर देने से मनुष्य में वह क्षमता जागृत होती है कि वह आत्म बल सम्पन्न बने, संयमी बने॥ विचारों के अनर्गल बहाव में, प्रवाह में, कल्पनाओं में, आशंकाओ में, कौतुक में All anxiety fear everything etc. उससे मुक्त हो, उसी की साधना के अन्तर्गत हमने पहले अध्याय में प्रथम श्लोक का अध्ययन किया॥ उसके बाद छलाँग लगाकर कहाँ आ गए? पहले अध्याय से सीधा छलाँग लगाकर तीसरे अध्याय के 30वें श्लोक पर आ गए॥ बीच के सारे श्लोक हमने छोड़ दिए, काफी सारे श्लोक हैं बीच में॥ यह सब किसलिए? एक ही कार्य के लिए कि हमें वह युक्ति, वह तकनीक प्राप्त हो जिसके मनन से हम अपने भीतर आत्म परिष्कार करें, जिसके मनन से हम दुर्योधन को पहचान कर परास्त करने में सबल हो सकें॥ क्योंकि हमारे भीतर कई ऐसी न्यूनताएँ है दुर्बलताएँ है, जो जन्मों से आई हुई हैं॥ कभी पहचानी नहीं गई पर इतनी सक्रिय हैं the unseen enemeies, हमारे भीतर के वे अदृश्य शत्रु दिखते नहीं है पर वातावरण में व्याप्त होकर बहुत प्रभावित करते हैं॥ इसलिए उन्हें हमने परास्त करना है जिसके लिए अब हम 'निराशी, निर्मम, विगतज्वरा' इस तकनीक पर हम मनन कर रहे हैं॥ निराशी का अर्थ क्या? जब मैं तप करूँ जब मैं संयम करूँ तो मैं कैसे निराशी बनूँ; जब मैं संयम करूँ तो अपने तप की रक्षा के लिए कैसे निर्मम बनूँ॥ आगे अभी और भी आएगा, इस विषय को लेकर कल हम आगे बढ़ेंगे आज केवल इसको दोहराने का ही मन था॥

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