साधना की शक्ति अकाट्य है, साधक का समर्पण आवश्यक है।

साधना की शक्ति अकाट्य है, साधक का समर्पण आवश्यक है।

बाहरी जीवन जीते हुए बड़ी शीघ्रता से मानवी बुद्धि तत्काल निष्कर्षों पर पहुंचना चाहती है, कुछ ही मिनटों अथवा दिनों में परिणाम दिखाई नहीं पड़ते तो बड़े से बड़े सत्य पर सन्देह करने लगती है अन्यथा अपने आप पर ही सन्देह उत्पन्न करने लगता है।

हथेली पर सरसों नहीं उगती इसका वास्तविक तात्पर्य यह भी है की सरसों को उगने के लिए नीचे उर्वरा मिट्टी चाहिए जिसमे जड़े जमाने की क्षमता भी हो। मनुष्य के अंतःकरण में भी ऐसी उर्वरक और धारक क्षमता पूरित मानस चाहिए जो किसी भी साधना के फलीभूत होने में सहायता प्रदान करे। यह सत्य है की जीवन की आपा धापी और अनेकों अन्य बहरी प्रभाव के कारण साधक के मन में संदेह के बादल आ जाते हैं और वह भ्रमित होने लगता है। साधक के अंतःकरण का संग्राम बड़ा ही विचित्र रहता है। न तो आत्म उत्कर्ष की तड़प ही समाप्त होती है और न ही ठीक से आगे की सफलता के मनचाहे स्तर अर्थात परिणाम सामने आते हैं। ऐसे में न छोड़ते बने और न निभाते बने। क्या करें की यह विचित्र असमंजस से भरा मार्ग किसी प्रकार निकल जाए और कुछ उपलब्धि हस्तगत हो। यानि मंजिल की कम से कम झलक से पूर्व कुछ ऐसा मार्ग चाहिए जो हमे सहेज कर साधना के संघर्ष मार्ग पर चला सके।

मैंने अनेको बार इस विषय को व्यक्तिगत जीवन में अनेक प्रकार से झेला और अपने आप को बटोर कर आगे बढ़ाया है। किसी ब्रह्म ऋषि का सानिद्ध्य इसमें बहुत सहयता करता है। पाठक यह नहीं समझें की जीवन में अगर किसी ब्रह्म ऋषि से उनकी व्यक्तिगत भेंट नहीं हुई तो वह कभी इस युक्ति का लाभ नहीं पाएंगे। ऐसा बिलकुल भी नहीं हैं, मैं स्वयं अपने भाव मण्डल में अपने ब्रह्म ऋषि के अतिरिक्त भी अन्य ऋषि सत्ता से जुड़ने की चेष्टा रत रहा हूँ और अत्यंत सार्थक अनुभूतियाँ भी प्राप्त हैं। मेरे जीवन का अनुभव ज्ञानी तपस्वियों की वाणी की पुष्टि करता है की इन जागृत ब्रह्म ऋषियों का अस्तित्व पूर्ण रूपेण अक्षुण है और साधक की तेदेपा को अनुभव कर वह उसे अपने प्रकार से सम्पर्क करते और अनुदान प्रदान करते हैं। विशेषकर मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।

जब जब भीतर का असमंजस और बाहर की प्रतिकूल परिस्थितियां आस्था और साधना को उखाड़ फेंकने को होती हैं तो इन्हीं ब्रह्म ऋषियों का स्मरण - समबन्ध बचाता और आगे बढ़ाता है।

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