शिव मानस पूजा - रचैयता अदि गुरु शंकराचार्य - भाग 1

शिव मानस पूजा - रचैयता अदि गुरु शंकराचार्य - भाग 1

महादेव की आराधना स्वरूप आदिगुरू शंकराचार्य जी द्वारा रचित शिवमानस पूजा, थोड़े से मन्त्र, पर भाव रूप एक ऐसा सर्मपण एक ऐसी धारणा जो शिव के शिवत्व का अवतरण साधक में बहुत सघन्य रूप से कराते हैं॥ मानस पूजा अर्थात साधक जिस किसी भी अवस्था में हो, कोई पूजन सामग्री उपलब्ध नहीं है, कुछ उपलब्ध नहीं है, साधक केवल अपने आप में ही बैठा है / बैठी है॥ मनसा, मानस से मनसा मन से ही वह पूरी आराधना आराध्य की कर सके इसलिए शिव मानस की रचना आदिगुरू शंकराचार्य जी ने की है॥ इसके संक्षिप्त से नोट्स भी सभी साधकों को भेजे जाएँगे॥ हम इसे एक-एक करके जानेंगे समझेंगे और साथ ही साथ स्मरण भी करते चलेंगे॥ जिससे इसे भावरूप हम अपने ध्यान में भी दोहरा सकें जिससे हमारी धारणा और अधिक प्रगाढ़ हो जाए॥ जितनी प्रगाढ़ धारणा उतना ही विलय होने वाला ध्यान॥ क्योंकि सब आधारित धारणा पर है॥ ध्यान का विलय होगा कि नहीं यह धारणा की सघनता भी निर्णय करती है, 'भी', ही नहीं कहा मैंने॥

अत: आइए, शिवमानस पूजा के प्रथम श्लोक का अध्ययन हम आरम्भ करें॥ इस मन्त्र को बाद में हम गाएँगे भी॥ एक समय उपरान्त हम इसका गायन भी करेंगे, अभी याद करेंगे, फिर बाद में गायन भी होगा॥

रत्नै: कल्पितमासनं हिमजलै: स्नानं च दिव्याम्बरं
नानारत्नविभूषितं मृगमदामोदांकितं चन्दनम् ।
जातीचम्पक बिल्वपत्ररचितं पुष्पं च धूपं तथा
दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितं गृह्यताम् ।।1।।

रत्नै: कल्पितमासनं - आपको हम आसीन देखते हैं अपनी कल्पना में, अपनी कल्पना में जिस आसन पर आसीन हम आपको देखते हैं, जिस रूप में देखते हैं॥ (मैं केवल शब्दों के अनुरूप चल रहा हूँ भाव रूप में कुछ आगे पीछे हो जाता है जब हम वाक्य पिरोते हैं पर अभी हम शब्दों पर चलेंगे॥ हम कल्पना करते हैं भाव करते हैं धारणा करते हैं कि आप रत्नों से जड़ित आसन पर आसीन हैं और हिमजलै: (हिम अर्थात बर्फ, ठण्डा, कैलाशपति हैं न वहाँ बर्फ है जहाँ थोड़ी बहुत पिघलती होगी जल निकलता होगा वह कैसा जल होगा कितना ठण्डा होगा कल्पना करो, हिमजलै: स्नानं - उसमें आपका स्नान हुआ है, शीतल जल में आपका स्नान हुआ है॥ वैसे भी जटाओं से गंगा प्रवाहित है च दिव्याम्बरं - दिव्य अम्बर अर्थात बहुत दिव्य आपकी वेशभूषा आपका आवरण आपके वश्त्र अम्बर आवरण जो कुछ पहना हुआ, उनका दिव्य है वह दिव्य कैसे है? वह दिव्यता यूँ लिए हुए है क्योंकि उन्होंने विशेष कुछ पहना हुआ नहीं है, भस्म का अर्थात जो वास्तविक सत्य है केवल वही उनका अम्बर है और सत्य से बड़ी दिव्यता कोई हो सकती है? भस्म को धारण करना सत्य को सार को धारण करना उस सार को धारण करना कि सब कुछ अनितय है, नित्य केवल शिव है॥

नाना रत्न विभूषितम - भिन्न प्रकार के रत्नों से आप विभूषित हैं॥ क्योंकि साधक जब कल्पना करता है उस सौन्दर्य की कल्पनाओं में आसपास की most precious जो सबसे बहुमूल्य पदार्थ रूप में उपलब्ध हो सकता है उनकी कल्पना करता है यूँ तो वह भस्म धारण किए हैं पर कल्पना है कि इस इष्ट को महाशिव को हमें ऐसे स्वरूप में देखना है जिसमें सब कुछ most precious है नाना प्रकार के रत्नों से विभूषित॥

मृगमद - मृगमद कहते हैं कस्तूरी को, अर्थात कस्तूरी के द्वारा आमोदङ्कितं चन्दनम् यहाँ combination है किसका आमोद कहते हैं fragrance को सुगन्धि को, सुगन्धि को आमोद कहा गया॥ ऐसा चन्दन घिसा हुआ है जिसमें कस्तूरी की गन्ध भी मिली हुई है और वह आप पर अंकित है क्योंकि त्रिपुण्डधारी हैं और त्रिपुण्ड हम देखते हैं कि यहाँ भी है और अनेकों स्थानों पर है॥ 'त्रिपुण्ड का रहस्य' नाम से विशिष्ट रूप से एक वीडियो डॉक्यूमेंट बनाकर हमने इसी चैनल पर लाइव किया था कि त्रिपुण्ड का रहस्य कितना बड़ा है, किन उपनिषदों में कैसे उसका उल्लेख आया है॥ जो त्रिपुण्ड आपने धारण किया है वह चन्दन का बना है और उसमें कस्तूरी मिली हुई है, वह आपको अंकित है

अब आपको हमें फूल भी अर्पित करने हैं जाती चम्पक ये दो जाती और चम्पा के पुष्प हैं जो शिव की स्तुति हेतु आदिगुरू शंकराचार्य जी ने प्रिय माने॥ जाती और चम्पा, बिल्वपत्र रचितं, बिल्वपत्र हम जानते हैं जब शिवरात्रि होती है तो बिल्वपत्र सबसे पवित्र मानकर उसे हम शिव को अर्पित करते हैं; इन्हें पुष्प रूप माना है॥

धूपं तथा दीपंं - जब इष्ट का हम लोग आह्वान करते हैं तो आह्वान के उपरान्त हम उन्हें धूप और दीप, अर्थात हम उस समय धुआँ भी करते हैं धूप के द्वारा॥ धूप जिसमें अनेकों प्रकार की औषधियाँ मिली हुई हैं॥ धूप का निर्माण वस्तुत: तो औषधियों से है॥ जहाँ कहीं यज्ञ सम्भव नहीं होता वहाँ धूप और दीप के माध्यम से भी यज्ञ सम्पूर्ण किया जाता है॥ सम्पूर्ण औषधियों का विस्तार है॥ पूरे वातावरण के भीतर जितने भी कण हैं ions हैं उन सबको प्रभावित करने के लिए धूम्र चाहिए और वह औषधिकृत धूम्र धूप के नाम से॥ दीपक अग्नि का प्रत्यक्ष प्रथम स्वरूप पंचभूतों में से पहला है॥ आकाश नहीं दिखता, वायु नहीं दिखती॥ पहला दिखाई देने वाला पंचभूत अगनि है तदोपरान्त जल पृथ्वी आदि॥

तथा दीपं देव दयानिधे - भोले नाथ जो भोले है जो हमारे नाथ हैं वह दया रूपी निधि हैं॥
पशुपते - पशुपते शब्द को बड़ा समझना होगा॥ पशुपते अर्थात सभी पशुओं के स्वामी पशु अर्थात जिसमें जीवात्मा तो है पर उसकी सीमाएँ हैं॥ मनुष्य भी देव होने से पूर्व पशु रूप में ही तो जीवन जीता है खाना पीना सोना मनोरंजन ईत्यादि॥ हाँ अन्य पशुओं से विकसित पशु है इसमें कोई सन्देह नहीं है॥ इसी लिए कहते हैं नरपशु से नर और नर से नारायण होने की यात्रा में हम आए हैं॥ इसमें नरपशु से नर होने में बहुत बड़ा संघर्ष है॥ उस संघर्ष में कौन हमारे साथ है? पशुपते- पशुपति जो हमारे अधिष्ठाता हैं वह हमारे साथ हैं॥

हृतकल्पितं - पुन: कल्पना का भाव आया हृदय में, भवनाओं की गंगोत्री कहाँ से उठती है? हृदय से॥ हम आपको हृदय में स्मरण करते हैं हम भावरूप आपकी धारणा को अपने हृदय में स्मरण करते हैं॥

गृह्यताम् - हमारे भाव को आप स्वीकार करके ग्रहण कर लीजिए, please accept it. जो हमारा भाव है आप उसे स्वीकार कर लीजिए हे दयानिधि, हे पशुपते, हे त्रिपुण्डधारी (त्रिपुण्ड शब्द यहाँ नहीं आया पर जैसे ही मृगमद आमोद अंकितम् चन्दनम् आ गया तो त्रिपुण्ड का भी वहाँ एक संकेत आ गया)॥ अत: भाव रूप कल्पना से शिवमानस पूजा में भक्त अपने इष्ट की आराधना करते हुए अपने भीतर अपने इष्ट का दर्शन करते हुए, देवाधिदेव महादेव का दर्शन करते हुए अपना भाव अर्पित कर रहा है॥

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