Part - 30. अनुशासित मन शुद्ध चैतन्य के अति निकट। व्यवस्थित चिंतन विचारों की शक्ति का आधार

Part - 30. अनुशासित मन शुद्ध चैतन्य के अति निकट। व्यवस्थित चिंतन विचारों की शक्ति का आधार

व्यवस्थित चिंतन विचारों की शक्ति का आधार है

आज इसका भाग 30 है, पर वह महत्त्वपूर्ण है और उसी तरह से महत्त्वपूर्ण आज का सत्संग है॥ मनुष्य आत्म विकास के अन्तर्गत अपनी क्षमताओं को कैसे पहचाने? मेरे भीतर क्या क्षमताएँ हैं? बाहर के जितने भी पुट है inputs हैं वे सारे कहीं न कहीं किसी संशय किसी अधूरेपान का ग्रास हैं They may be prone to some inconclusiveness. तो फिर पूर्ण समाधान है कहाँ? अपने भीतर अपनी चेतना में चैतन्यता में॥ The conclusivity of consciousness cannot be questioned. उसकी पूर्णता पर कोई प्रश्न नहीं लगा सकते॥

मनुष्य के मस्तिष्क की क्षमताओं का स्रोत, मस्तिष्क की, क्षमताओं का स्रोत आज तक विज्ञान नहीं जान सका॥ इसकी मूल क्षमताओं का स्रोत क्या है? क्या कैसे हो रहा है यह सब तो जाना गया है पर वह कहाँ से हो रहा है, चेतना, चैतन्यता से॥ बार बार यह कह देना कि आकाश से कहो , आकाश से पूछो विशेष रूप से ध्यान के उन क्षणों में जब आप अपने अन्तर्जगत के मौन में हैं॥ जब इतना गहरे उतर चुके कि बाहर आने का मन भी नहीं करता, आपको बाहर लाया जाता है॥ वे क्षण ऐसे हैं जब आप अपनी पवित्र सजगता, इसे अलग-अलग नाम दे सकते हो, चेतना, जीवात्मा, ब्रह्म ईत्यादि, पर मूल एक ही है 'आप अपने वास्तविक सत्य स्वरूप के अति निकट होते हो'॥ और जब आप अपने सत्य स्वरूप के अति निकट होते हो तो वह जो आनन्द है वह सुख स्वरूप के नाम से ज्ञानियों ने जाना है॥ when you are into yourself, you are complete. विवाद समाप्त, अधूरापन समाप्त, न काहू से लेना ना काहू को देना, ना काहू से मित्रता न काहू से बैर॥ कुछ है ही नहीं, इसीलिए अपने आप की पूर्णता में, ध्यान के चरण में अन्तिम क्षणों में जो सुख आता है वह अद्भुत है, वह बाँधता है, आकर्षण है, किसका आकर्षण है ? पूर्णता का conclusiveness का, आप उसमें परिपूर्ण है इसलिए बाहर किसलिए आना? बाहर तो अधूरापन है न? बाहर आने के बाद तो विवाद है, वाद है, कटा बटा है सब॥ पर भीतर इतना आनन्द उन क्षणों में, भले थोड़ा सा ही हो; इसलिए होता है क्योंकि वहाँ कुछ भी नहीं जिस पर संशय हो, कुछ भी नहीं जहाँ भय हो॥

आदिगुरु शंकराचार्य जी के दादागुरु गौड़ पादाचार्य जी महाराज हिमालय में, व्यास गुफा में उन्हें मिले थे॥ गौड़ पादाचार्य जी महाराज ने माण्डूक्य उपनिषद के केवल 12 श्लोकों पर अपनी कारिका लिखी है the interpretation उसका उल्लेख मैं माण्डूक्य उपनिषद पढ़ाते समय भी करता हूँ, पूर्व में भी किया है॥ उस कारिका में वे सुषुप्ति और तुरीय अवस्था का एक भेद समझाने की चेष्टा कर रहे हैं॥ ये अवस्थाएँ हैं जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय॥ तुरीय पर वे भेद समझाते हुए बहुत बड़ी बात कह गए॥ उन्होंने एक विषय कहा 'अनुशासित मन'॥

यहाँ जो कहा जा रहा है 'यह आज का दीवाली का उपहार है हमारे लिए'; यह गुरु गौड़पादाचार्य महाराज, आदिगुरु शंकराचार्य जी के दादागुरु महाराज ने हमें आज दीपावली का उपहार दिया है॥ यह उपहार होता है, यह थाती है हमारी endowment.

उन्होंने कहा अनुशासित मन अपने अन्तर्जगत में अपने भीतर ब्रह्म स्वरूप हो जाता है, निर्भय हो जाता है ब्रह्म स्वरूप हो जाता है, वह अपनी निकटता को प्राप्त कर लेता है, वह उस समय पूर्णता को प्राप्त होता है॥ उनके शब्दों में - तदैव निर्भयम् ब्रह्मज्ञान लोकम् समन्तत:

सुषुप्ति में तो फिर भी उस समय मन नहीं होता पर योगी जब अपनी जागृत अवस्था में भीतर लाँघता है तो उस अवस्था में उसका मन होते हुए भी पूर्ण अनुशासित होता है॥ और उस समय भय समाप्त - तदैव निर्भयम्

ब्रह्मज्ञान लोकम् - उस समय परिपूर्णता है॥ ज्ञान लोकम् का तात्पर्य absolute radiance lumoniousity there is nothing which is far from you. there are no questions left कोई प्रश्न नहीं बचता, उस समय॥ तुम अपने में होते हो अपने चेतन विशुद्ध तत्त्व में होते हो॥ यदि मैं कहूँ कि नहीं होते हो तो निकट होते हो, अति निकट होते हो॥ During those moments of absolute silence, stillness. ब्रह्मज्ञान लोकम् समन्तत: तुम बिलकुल अपने भीतर की परिपूर्णता में उस समय अवस्थित हो और जब तुम परिपूर्ण अवस्था में हो तो जब जो जानना चाहो जान सकते हो॥ हाँ यह सच है हम सब कुछ तो नहीं जान पाते॥ उसका कारण है क्योंकि उतने अनुशासित हम नहीं है; हम केवल थोड़ी देर के लिए गए, आ गए॥ उतने में जितना बटोर पाते, बटोर आए॥ ब्रह्मज्ञानी और सामान्य जीव में सबसे बड़ा भेद, मैने कहा कई बार पहले कहा, जैसा मैंने उनको अनुभव किया॥ उनके पास एक Galactic torch है Galaxies में देख सकते हैं टॉर्च के द्वारा, जहाँ टॉर्च डालो वहाँ दिख जाएगा॥ वे जब जो जानना चाहें, जान जाएँगे॥ खैर वे तो आगे भी जाते हैं जब जो करना चाहें कर पाते हैं॥ फिर भी we will stay one step short. जो जब जानना चाहें वे जान जाते हैं, क्यों जान जाते हैं क्योंकि उसमें पूर्ण 'निर्भयम् ब्रह्मज्ञानलोकम् समन्त्त: - वे उस समय अपनी परिपूर्णता में होते हैं'॥

यह ठीक है हम उसे तुरीय माने न मानें पर हाँ हम भी, ध्यान का जो चरम होता है, उससे पूर्व हम भी तुरीय में कम से कम हाथ सेंक कर आते हैं॥ वे क्षण महत्त्वपूर्ण हैं इसीलिए कहा गया है क्षमताओं को जानना है॥ अपनी क्षमताओं को जानना है जिनसे हम अभी अनभिज्ञ हैं बहुत कुछ जानते हैं, नहीं जानते हैं॥ आवश्यक नहीं कि हर बार रजनीकान्त का ड्राइवर ठीक ही बोल रहा हो, यह आवश्यक नहीं है॥ इसलिए सबसे महत्त्वपूर्ण है कि हम अपने भीतर ध्यान की उस गहरी अवस्था में, जब हम ध्यान के उपरान्त उस मौन में हैं; निष्कर्ष स्वरूप हम उस भाव को लेकर प्रवेश कर जाएँ कि मुझे मेरी क्षमताओं का बोध हो॥ यह एकाएक नहीं होगा क्योंकि वह सब कुछ निर्भर करता है हमारे अपने मन के अनुशासन पर, क्योंकि हमारा मन उतना अनुशासित नहीं है॥ पर जिनका मन अनुशासित है, धीरे-धीरे हमारा भी मन अनुशासित हो रहा है; उन्हें उनके हिस्से की सत्य की प्राप्ति, सत्य अर्थात whatever you aspire to seek, to know, जो जानना चाहते हो, वह तुम्हारे हिस्से का सत्य है वह जान जाओगे, वे तुम्हारी क्षमताएँ ही क्यों न हों? भाव सरका कर के पूछना आरम्भ करो और फिर धीरे-धीरे वह उत्तर देगा॥ उत्तर तो वह क्षण से पूर्व दे देता है॥ उसे हम decipher करने में उसकी विवेचना करने में उसे समझ पाने में कई बार समय लगाते हैं॥ क्योंकि मन में हर घड़ी प्रतिपल हम हस्तक्षेप करते जाते हैं॥ जीवन चलता भी उसी से है, सत्य तो यही है सामान्य जीवन, if there are no turbulations in the mind, तो जीवन कैसे चलेगा जीवन चलता भी उसी से है॥ पर हाँ ठीक है आन्तरिक स्थिरता धीरे-धीरे हमें समझाती है कि यह तुम्हारी क्षमता है॥ फिर वह बोध तैर कर भीतर आता है जिसे कहते हैं Deep Understanding. and you cannot dispute that. आप उसे किसी प्रकार से भी नकार नहीं पाओगे॥ तैर कर आया हुआ गहरा बोध अपने साथ वकील लेकर नहीं आएगा॥ उसके साथ तर्क के, विचारों कें वकील नहीं होंगे॥ वह स्वतन्त्र स्वयम्भू होगा sovereign आकर के कहेगा 'यह मैं हूँ, स्वप्रभुता सम्पन्न'; आप नकार नहीं पाओगे और आप वह हो॥

ये तथ्य जब तक जीवन में अनुभव नहीं हुए तब तक बहुत विचित्र प्रतीत होते हैं बाबू पर ज्यों-ज्यों हम साधना में अनुभव करना आरम्भ करते हैं हमें तथ्य प्राप्त होने आरम्भ हो जाते हैं॥ इसलिए इस विषय को बड़ी गम्भीरता से लेते हुए (यह आत्मविकास का विषय है स्मरण रहे), अपनी क्षमताओं को जानने हेतु, आप सबको निवेदन है आप ध्यान के उस अन्तिम क्षण में प्रवेश करते हुए या पूर्व में कहते हुए ध्यान पर बैठो, इतना बहुत है॥ भीतर की परिपूर्णता is capacitated to know all तुम्हारे प्रश्न को भी जानती है तुम्हारे उत्तर को भी जानती है॥ जहाँ प्रश्न और उत्तर का क्षितिज है, तुम वहाँ जा रहे हो where they meet each other और जहाँ वे मिलते हैं वहाँ भेद अभेद हो जाता है॥ इसलिए कहते हैं कि चैतन्य भाव में प्रश्न है ही नहीं, विवाद ही नहीं है there is no question, there is no answer; because it is as it should be. चलो हम उधर नहीं भी जाएँ हम वहीं रहें, यह क्षमताओं के प्रति प्रश्न है तो ध्यान से पूर्व यदि मन में लेकर व्यक्ति बैठेगा तो कुछ ही दिनों में उसे बहुत कुछ अपने विषय में ज्ञात होना आरम्भ हो जाएगा, इसमें कोई सन्देह है ही नहीं॥ न है न करना, न है, न करना॥

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