"हे तस्कर पते" अर्थात हे चोरों के देवता
समुद्र मंथन में देव और असुर दोनों के अधिष्ठाता संरक्षक महादेव है। देवताओं के वह अपने हैं और असुरों के भी वह अपने हैं। इस लिए उन्हें एक विचित्र संबोधन पड़ा , और वह है “चोरों के देवता”। सुनने में विचित्र लगता है पर इसके मर्म पर जाएं तो जितना अधिकार महादेव की शक्तियों पर देवताओं का है उतना ही अधिकार चोरों का भी है। ध्यान रहे की समुद्र मंथन में दोनों के संरक्षक एवं अधिष्ठाता महादेव ही हैं। समुद्र मंथन अर्थात जगत की जहां से उत्पत्ति हुई है।
श्लोक में साधक महादेव के समक्ष अपने भाव रखता है।
"हे तस्कर पते" अर्थात हे चोरों के देवता। यह मायापती को दिया हुआ संबोधन है, हे शंकर, हे महादेव इस मन रूपी चोर को सम्भालिए (चूँकि मन मेरा चोर है) और आप चोरों के देवता हो। मेरे इस मन रूपी चोर को इस जीवन में कैसे सहन करूँ। यह मुझे अनायास प्रलोभित करता है, धन इकट्ठा करने में भटकाता है।इसको जीने के लिए धन जितना चाहिए, जितनी आवश्यकता है उससे भी कहीं अधिक इकट्ठा करने मे लगा रहना चाहता है...
हे महादेव आप मेरी सहायता कीजिये, मुझे इस संग्राम से बाहर निकालिये। मेरा चोर मन मुझे वासनाओ से मुक्त नहीं करने देता ओर ओर इच्छा बढ़ाता है। हे महापते मुझे इस चोर मन से छुटकारा दे दो। कोई एसा उपाय बताओ जिससे मै उसे चकमा दे कर अपने जीवन का लक्ष्य साध्य कर सकूं।
ट्रांसक्रिप्शन : सुजाता केलकर