भाव की सामर्थ्य (आज के सत्संग का लेख) भाव की शक्ति

भाव की सामर्थ्य (आज के सत्संग का लेख) भाव की शक्ति
भाव की सामर्थ्य (आज के सत्संग का लेख) भाव की शक्ति, हृदय की शक्ति, हृदय की तरंगें।  
 कल मन हुआ की हृदय की तरंग क्षमता पर आधुनिक विज्ञान की वर्तमान शोध का अध्ययन किया जाए। कुछ शोध पत्र खंगालने की चेष्टा की पर रूचि उनसे जुड़ नहीं पाई। ऐसा लगा की मानों मैं अपने विषय की मूल दिशा से छिटक रहा हूँ।  ऐसा विचार करते हुए मैंने आधुनिक शोध को खंगालना छोड़ दिया। यह सत्य है की हृदय अर्थात हृदय का सूक्ष्म क्षेत्र ही भावनाओं का मूल स्त्रोत है और भावनाओं की शक्तिशाली तरंगे वहीँ से उद्भासित होती हैं जिन्हें नापने कर कार्य आधुनिक विज्ञान करने की चेष्टाओं में रत है। 

मुझे प्रेरणा ने कहा की जिस मूल विषय को साधकों के साथ साँझा करना है वह तो भाव जगत का है।  जैसे ही यह शब्द भीतर अवतरित हुआ "भाव जगत" तत्काल बुद्धि पीछे होने लगी और बोध विचारों से अधिक अपने व्यक्तिगत जीवन के संस्मरणों में सरकने लगा।  मुझे बोध होने लगा की "भाव जगत" तो एक स्वतन्त्र कक्षा है जिसके अपने स्वतन्त्र अस्तित्व हैं। भाव जगत की सत्ताओं की सामर्थ्य के विषय में अभिव्यक्ति प्रायः निःशब्द ही रहती है।  देखो साधक तुम्हें भली प्रकार विदित है की स्थूल, सूक्ष्म और कारण यह जीव सत्ता के तीन मूल कलेवर हैं।  जिनमें हमारी वर्तमान स्थिति स्थूल और सूक्ष्म में हमे अपनी प्रतीति शरीर और विचारों के रूप में देती है, हालाकिं सूक्ष्म का क्षेत्र अत्यंत विकसित है जिसका उल्लेख दो दिवसीय कार्यशाला में पञ्चकोषी अस्तित्व के रूप में हमने अध्ययन किया था।  

कारण शरीर की सत्ता (अस्तित्व) बहुत शक्तिशाली एवं व्यापक होता है, यह शब्द विशुद्ध रूप से मेरे ब्रह्म ऋषि के हैं। कारण शरीर की उत्कर्ष प्राप्त सत्ताएं प्रकृति में पूर्ण हस्तक्षेप की सामर्थ्य रखती हैं और उनकी व्याप्ति ब्रह्म समान ही जानी जाती है। यहां ध्यान रहे की कारण शरीर का अस्तित्व मूलतः भाव जगत का ही क्षेत्र है। इस भाव जगत में व्याप्त सत्ताएं एक समय पर अपनी व्याप्ति के द्वारा प्रत्येक स्थान पर अपनी उपस्थिति प्रदान कर पाती हैं। यह भी सत्य है की इन बातों को सुन कर आरम्भ में सीमित सी बुद्धि और अनघड़ मन अपनी क्षुद्रता के कारण इस व्याप्ति के पक्ष को पचाने में पूर्ण रूप से असमर्थ रह जाते हैं। और इसमें किसी प्रकार का कोई दोष भी नहीं है चूँकि जिसने जो जग देखा उसके लिए उतना भर ही तो सत्य होगा। 

प्रत्येक ऋषि अपने देह त्याग से पूर्व अपने भक्तों - अनुयायियों को यह सत्य प्रतिपादित करते हुए ही मृत्यु लोक से जाते हैं की "हम कहीं नहीं जा रहे हैं, हम यहीं है तुम्हारे साथ, तुम जब जब हमें स्मरण करोगे तब तब आंख पर पलक की भाँति हमारा संरक्षण अनुभव करोगे (श्रीपाद वल्ल्भ महाराज) . और यह तथ्य अकाट्य भी है। मुझे नहीं ज्ञात की आपमें से कितनो को यह अनुभूति अपने अपने जीवन में हुई है जिसने संशय के समस्त आवरण गिरा दिए हों। ऐसा है और सदा ऐसा ही रहेगा यह सत्य अपरिवर्तनीय है। 

भाव जगत की सामर्थ्य को छूने हेतु जीव को अपने भाव क्षेत्र को परिष्कृत एवं पवित्र करना होगा। जितने भी साधना की युक्तियाँ हैं, भले वह जप हो , किसी प्रकार का भी तप हो , अथवा नाद साधना हो , प्रकाश का ध्यान हो अथवा कोई भी साधना की पद्द्ति हो , आत्म अवलोकन हो, सभी का मूल चर्म एक ही है और वह है परिष्कार, पवित्रता - पवित्रता - पवित्रता।  जैसे जैसे यह पवित्रता आती जाती है वैसे वैसे भाव जगत में साधक को अधिकार प्राप्त होने लगता है और तदनरुप पात्रता के आधार से उसे भाव जगत की सामर्थ्य पर भी अधिकार प्राप्त होने लगता है। 

 तीसियों वर्ष पूर्व मैं अपने ब्रह्म ऋषि के समक्ष उनकी ही कृपा से बैठा था की यकायक वह मेरे आँखों में ऑंखें डाल कर पूछने लगे की 'अरे तो कुछ गलत तो नहीं कर रहा है', सत्य भी यही है की उन दिनों अपने व्यापर में कुछ ऊंच नीच मुझसे हो रही थी।  कुछ भी अवैध नहीं था पर नीतिगत रूप से अनुचित हो रहा था।  इतना सुनने पर ही मानो मेरी वहीँ उसी पल मृत्यु हो गई।  मैं पाषाण रूप सा हो गया, मैं ही मात्र क्यों अपितु अपने ब्रह्म ऋषि जो सर्वज्ञ हैं उनके समक्ष ऐसे में कोई भी हो जाएगा। । अगले ही क्षण वह कहने लगे "देख बेटा मैंने इतने महापुरुश्चरण किए हैं (24 लाख के 24 गायत्री महामंत्र के 24 वर्ष महापुरुश्चरण) बहुत हिमालय में एवं अन्य स्थानों पर तप किया है, पर मैंने आज तक अपने इस तप की पूंजी का एक भी कण किसी कार्य में खर्च नहीं किया है।  मैंने वह सारी संपत्ति ताले में संभाल कर तुम लोगो के लिए रख दी है जो समय आने पर तुम्हारे काम आएगी।  मैं जितने भी वरदान, आशीर्वाद देता हूँ और वह फलित होते आए हैं यह केवल और केवल मेरे सत्य का ही प्रभाव है" . 

उनके यह शब्द तब से आज तक यह अध्यापक हजारों असफलताओं में भी निर्वहन करने की कभी सफल तो कभी असफल चेष्टाएँ करता ही रहा है और करता ही रहेगा। मूल एक निष्कर्ष है की भीतर की पवित्रता मनुष्य को भाव जगत का अधिकार प्रदान करती है।  विचारों की उहापोह और खिचड़ियों से कहीं ऊपर का साम्राज्य उस पवित्र सत्ता का है जहां पहुँच जीव ब्रह्म समान हो जाता है। पर वहां उस पूर्णता तक पहुँचने से पूर्व भी भाव जगत में थोड़ा सा भी हस्तक्षेप साधक को बहुत अधिकार - सामर्थ्य दे जाता है। अभी इस पर और भी कुछ कहेंगे। 

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