Part - 7. कौरवों का मर्म हमारे भीतर बाहर की अस्थिरता में - व्यवस्थित चिन्तन - विचारों की शक्ति का आधार

Part - 7. कौरवों का मर्म हमारे भीतर बाहर की अस्थिरता में - व्यवस्थित चिन्तन - विचारों की शक्ति का आधार
transcription by AshokSatyamev 
व्यवस्थित चिंतन विचारों की शक्ति का आधार है
⇒ व्यवस्थित चिंतन हेतु उपासना और साधना; आराधना उसके उपरान्त है
⇒ उपासना में जप और ध्यान ईत्यादि
⇒ और साधना में आत्म परिष्कार, निरन्तर आत्म परिष्कार
⇒ मनोमय कोष की साधना परिष्कार का सबसे बड़ा स्रोत है जहाँ से हमारे विचार कल्पनाएँ ईत्यादि जन्म लेते हैं॥

अत: उस यात्रा पर आगे बढ़ते हुए, हमने पहली कसरत, पहला व्यायाम, प्रथमत: मनोमय कोष के परिष्कार हेतु श्रीमद भगवद गीता के प्रथम श्लोक को युक्ति रूप में अपनाया॥ जिसका प्रकाश अब धीरे-धीरे हम बढ़ाते जा रहे हैं॥ हमने जाना कि कौन सी पृष्ठभूमि में किसे कुरुक्षेत्र जाना जाए और उस कुरुक्षेत्र में अर्जुन किस बात की प्रेरणा के साथ खड़े हैं॥ पताका किसकी है, केशव तो रथ में हैं पर उनके होते हुए भी मूल प्रेरक हम किसे मान रहे हैं॥ किसके आच्छादन में? हनुमान के, प्राण शक्ति के॥ हमने यह भी जाना कि धर्म का क्षेत्र किसका क्षेत्र है॥

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्र समवेता युयुत्सवा:
मामका पाण्डवाश्चैव किम् कुर्वत संजय:॥

श्लोक का सौन्दर्य भी हमने जाना कि यह श्लोक किसे प्राप्त है, धृतराष्ट्र को, जो अनधिकृत चेष्टा के लिए अन्धा है; उसे यह पहला श्लोक दिया॥  उसने यह प्रश्न पूछा किससे? संजय, जिसकी सदैव विजय है, जिसकी पराजय नहीं हो सकती॥ वह संजय जो हम सबमें हमारे भीतर चेतन रूप में अवस्थित है The Consciousness within Us जो कभी किसी प्रकार से भी लिप्त नहीं होती, किसी ओर उसका bias नहीं होता, पक्षपात नहीं करती, जो जैसा है निष्पक्ष रूप से एक बार मन में आवाज उठती अवश्य है, भले हम उसे दबा दें, अवहेलना कर जाएँ॥ जिसकी कभी पराजय नहीं हो सकती वह संजय है॥

अत: उस श्लोक के प्रकाश में युक्ति:
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवा:

समवेता युयुत्सवा: - समस्त योद्धा एकत्र हुए हैं॥ यह भीतर के अन्त: करण के संग्राम में, भीतर के देवासुर संग्राम में जो भी एकत्र हुए हैं; उन एकत्र योद्धाओं में कौन-कौन हैं?
मामका पाण्डवाश्चैव; मामका = मेरे (mine)
यह कौन कह रहा है? धृतराष्ट्र॥ मेरे और पाण्डवों के 
मेरे कौन से हैं? जो कौरव हैं जो कुरुक्षेत्र में कर्म के क्षेत्र में हैं

धर्म का क्षेत्र - जो निर्धारित दायित्व है, जो होना चाहिए To Do list
कुरुक्षेत्र  - जो हो पाता है, What all actually transpires, जो हम कर पाते हैं, वह कुरुक्षेत्र है॥
अन्यथा धर्म के क्षेत्र में तो बहुत कुछ है जो होना चाहिए, पर हुआ नहीं, जो नहीं हुआ कुरुक्षेत्र में, तभी तो इतनी अनीति इतनी अस्थिरता पूरे विश्व में व्याप्त है॥

इसका मूल आधार है, मेरे ऋषि का वाक्य है - अचिंत्य चिंतनम्  अर्थात जो नहीं सोचा जाना चाहिए, जब सोचा जाता है और तदनुरूप किया जाता है तो गड़बड़ी फैलती है॥

तो मामका पाण्डवाश्चैव - धृतराष्ट्र बोल रहे हैं - मेरे और कौरवों के, और मेरे कौन हैं? उनके तो सौ पुत्र हैं मूलत: इसमें कोई सन्देह नहीं अक्षौहिणी सेना भी है, बहुत बड़ी सेना है॥ पर मूलत: तो उनके अपने सौ पुत्र ही हैं न? जिनमें मूल नाम दुर्योधन और दु:शासन हैं॥
दुर्योधन - दु: = बुरा, योधन = लक्ष्य (Objective) अर्थात जिसका लक्ष्य विकृत है, हीन है, नीच है, संकीर्ण है, बुरा है, दुष्ट है वह दुर्योधन॥ अन्यथा सुयोधन होता, पर यह दुर्योधन है॥
जिसका लक्ष्य नीच होगा, हीन होगा, जिसका लक्ष्य ही 'हड़प जाऊँ' हो जाएगा, तो वह क्या करेगा? उसके आसपास क्या फैलेगा?
दु:शासन, सुशासन नहीं, दु:शासन

तो परिणाम क्या होगा? Law & Order खराब, Rule of Law समाप्त, कानून व्यवस्था गड़बड़, अशान्ति, लूटपाट आदि, जब यह सब होने लगता है, इसी को हम दु:शासन कहेंगे॥ सब कुछ जो आसपास है, उसमें गड़बड़ी हो जाएगी॥

क्यों? क्योंकि जब लक्ष्य बुरे हों तो दु:शासन॥ ये दोनों मुख्य हैं - दुर्योधन और दु:शासन॥ होना क्या चाहिए? सुयोधन, सुशासन॥ सुशासन के नाम पर ही तो राजनीतिक दल अपने लिए मत माँगते हैं न? तो जहाँ इस कर्म के क्षेत्र जहाँ विजय धर्म की पताका की, धर्म अर्थात जो होने योग्य है जो होना चाहिए, जब उसके स्थान पर अधर्म होता है॥ दुर्योधन और दु:शासन होता है तो क्या होता है? तो साधनों का Resources का चीर-हरण होता है॥ क्या होता है चीर-हरण होता है॥ Resources में तुम्हारे विचार भी आ गए, तुम्हारी प्राण ऊर्जा energy भी आ गई तुम्हारा 'समय' भी आ गया॥ और हाँ बाहर के देश के संसाधन विश्व के ससाधन ये सब Carbon Footprint, Global warming, Nuclear ईत्यादि सब आ गए॥

क्यों? क्योंकि हमने अचिंत्य चिंतनम् अपना लिया॥ हमने दुर्योधन को मान लिया तो दु:शासन फैल गया तो द:शासन से चीरहरण हो गया॥ 
Creative resources shall be lost to the mallific intented ones. जिनकी नीयत ठीक नहीं, उनके हाथ में चले जाएँगे॥

अत: प्रश्न तो धृतराष्ट कर रहे हैं पर धृतराष्ट्र के भीतर भी व्यास बैठे हैं न इसीलिए पहला शब्द है 'धर्मक्षेत्रे'॥ अन्यथा वह सीधा प्रश्न पूछते - "कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवा:। मामका पाण्डवाश्चैव किम् कुर्वत संजय:"॥ जब कहीं लड़ाई होती है तो क्या बोलते हैं - कि LOC पर क्या हो रहा है॥ कि फलानी जगह क्या हो रहा है, जगह का नाम लेते हैं॥ हम यह तो नहीं कहते जो वहाँ होना चाहिए वह हो रहा है यह बताओ॥ यह कभी नहीं पूछते॥ हम यही पूछते हैं वहाँ क्या हो रहा है॥

पर यहाँ पहला शब्द क्या है? धर्मक्षेत्रे - जो होना चाहिए, जो आवश्यक है, जो निर्धारित है The Mandatory Obligation, जो नहीं हो रहे हैं, और वहाँ पर आमने-सामने एकत्र हैं सब  लड़ने के लिए॥ कौन दुर्योधन, दु:शासन & 98. कितने? 98 more. कौरव कितने थे? 100
क्यों? क्योंकि यदि मनुष्य के लक्ष्य अनुचित होंगे तो बुराई एक प्रकार की ही आती है क्या? बुराई हजार प्रकार से प्रवेश करती है॥ दुर्बुद्धि तो इसके उपरान्त ऐसे-ऐसे कुतर्क लेकर आएगी कि आप कल्पना नहीं कर सकते॥ उसके बाद आप बुराईयों की गणना करें तो संख्या सौ से भी अधिक जा सकती है॥ जुगाड़ ऐसे-ऐसे रचे जाएँगे कि बस किसी तरह से मार्ग बनाकर निकल जाएँ, क्षेत्र कोई भी क्यों न हो॥ पूरे विश्व में हम देखें तो अधिकांश स्थानों पर दुर्योधन का ही वास है॥ इसीलिए दु:शासन है॥ दुर्योधन नहीं तो दु:शासन नहीं॥

पिता कौन है? धृतराष्ट्र 
सत्ता चाहिए बस, कैसे मिल जाए, मुझे नहीं पता॥ मुझे तो छीननी है, हड़पनी है, कब्जा करना है बस किसी भी तरह॥ और वही व्यास की प्रेरणा से पूछ रहे हैं धर्मक्षेत्रे ...

और पाण्डव कौन हैं?
पाण्डव वे हैं जो हमारे भीतर के मूल तत्त्व हैं॥ कौन? जिनके विस्तार से ही हमारी यह काया और हमारी सूक्ष्म काया का निर्माण है॥ मनुष्य का स्थूल और सूक्ष्म - यह पंचतत्त्वों से प्रेरित है॥ इसीलिए हम इसे कह देते हैं प्रपंच॥ जब यह विज्ञान नहीं समझा जा सका तो हमने हर षड्यन्त्र को कहा 'प्रपंच रच दिया'॥ क्या Conspiracy है? प्रपंच॥ जबकि प्रपंच का तात्पर्य षड्यन्त्र नहीं, प्रपंच का तात्पर्य है 'पाँचों द्वारा प्रेरित'॥ मनुष्य का स्थूल शरीर (दिखने वाला) और उसका सूक्ष्म शरीर (न दिखने वाला) यह पाँच तत्त्वों पर आधारित है॥  कारण शरीर नहीं, कारण शरीर भिन्न  हो जाएगा, वह इनसे ऊपर है, वह मूल है; वहाँ पंचतत्त्वों की पहुँच नहीं है॥ पर स्थूल और सूक्ष्म में तो पंचतत्त्व हैं इनका अपना-अपना क्षेत्र है, इनके अपने-अपने आयाम हैं॥ प्राण तत्त्व भी तो पदार्थ के क्षेत्र में ही आता है, 'प्राण' चेतना तो नहीं है॥ Thought विचार चेतना तो नहीं है, उससे भिन्न ही है॥ 

तो पंचभूतों के अन्तर्गत अभिप्रेरित समस्त सृष्टि (चेतना को छोड़कर), वह सारी पंचभूतों के अन्तर्गत है, वह पाण्डव हैं॥ वह शुद्ध पाण्डव हैं; ऐसे शुद्ध पाण्डव हैं, जिनसे आशा की जाती है कि अपने कुल की कुण्डलिनी के साथ, द्रौपदी के साथ उत्कर्ष प्राप्त करें ऊर्ध्वगामी हो जाएँ॥ और ऊर्ध्वगामी होकर के जीव को आत्मसाक्षात्कार करा दें॥ 'करा दें' शब्द मैंने प्रयोग किया है, 'करा दें'॥

पर होता क्या है? इन सभी संसाधनों पर भी अनधिकार और इनकी कुल कुण्डलिनी पर भी अनधिकार किसका हो जाता है? दुर्योधन और दु:शासन, इनका हो जाता है॥
यह बात मनुष्य के 'अन्त:करण में हो' तो अथवा 'बाहरी जगत में हो' तो, ऐसे ही घट रही है; यह सत्य है 

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