अहंकार की सात्विक महाशक्ति

अहंकार की सात्विक महाशक्ति

एक नई श्रृंखला आरम्भ, जिसे जानकर और अपनी ही साधना का समावेश करके, मेरा मानना है एक अलग ऊँचाई प्राप्त होनी चाहिए॥ विषय क्या है? विषय विचित्र प्रतीत होगा पर उसके साथ कभी न्याय नहीं किया गया॥ मोक्ष तो अन्तिम पद है इसमें कोई सन्देह नहीं है पर मोक्ष से पूर्व की जितनी अवस्था है जो सैंकड़ों जन्मों में विस्तृत है महत्त्व तो उसका भी है॥ जिस मार्ग से होकर जाना है उस मार्ग का महत्त्व नहीं है क्या? मार्ग न हो तो लक्ष्य कैसा? यह विषय उस मार्ग का है जिसमें हम इस वर्तमान में हैं, जहाँ हम संघर्ष में हैं, समस्याओं में हैं यह उस मार्ग का विषय है॥ नाम है 'अहंकार की सात्विक महाशक्ति'

सुनकर थोड़ा विचित्र प्रतीत होता है अहंकार और सात्विक? और फिर महाशक्ति? महाशक्ति का तात्पर्य बड़ा सीधा सा है बड़ी शक्ति, बड़ा बल॥ जहाँ कहीं भी कोई चीज बड़ी हो, सामान्य से अधिक एक ऊँचाई देनी हो, 'महा' शब्द का प्रयोग होता है॥ सात्विक निश्चित रूप से बिना किसी प्रश्न के कहा जा सकता है कल्याणकारी॥ 'अहंकार की सात्विक महाशक्ति' को, यदि मैं दूसरे शब्दों में कहूँ 'अहंकार की कल्याणकारी महाशक्ति'॥ क्या 'अहंकार' कल्याणकारी हो सकता है? बिलकुल हो सकता है॥ सामान्य समझ के अनुसार है कि नहीं परन्तु एक अध्यात्म पथ के साधक के लिए 'अहंकार' परम सात्विक भी हो सकता है॥ जो सात्विक है परम सात्विक है और साथ ही साथ महाशक्ति है तो फिर हम समझ सकते हैं उससे क्या कुछ अर्जित किया जा सकता है॥ इसके लिए केवल अपनी दृष्टि को एक नए सत्य से परिचित कराने की आवश्यकता है॥ अपनी समझ को, अपनी बुद्धि को एक नए आयाम की ओर ले जाने की आवश्यकता है॥ जैसे ही वहाँ जाकर के देखना आरम्भ करेंगे, जैसे चश्मा बदलता है; नजर बदली नजारे बदले॥ जैसे ही इस बदली दृष्टि से हम आसपास भी देखेंगे तो पाएँगे कि शक्ति वस्तुत: अहंकार की ही कार्य कर रही है वह चाहे सृजन हो, विध्वंस हो, कहीं भी हो वह उसी की शक्ति है॥

'अहंकार' शब्द को सरलता से जानने की चेष्टा करें तो 'अहं का आकार'; मैं हूँ॥ मेरा अस्तित्व, मेरे समस्त अस्तित्व की जो परिधि है उसे हम अहंकार के नाम से सम्बोधित कर सकते हैं॥ यह अन्त:करण में सबसे पीछे खड़ा हुआ घटक और सबसे शक्तिशाली है इसीलिए 'मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार' कहा जाता है॥ अहंकार वस्तुत: हमारी सजगता का, सजगता का, मैं इसे मूल चेतना अथवा आत्मा नहीं कह रहा हूँ, आत्मा तो भिन्न है पर उसके प्रकाश से प्रकाशित है॥ उसके प्रकाश से तो यह प्रकाशित है पर उससे भिन्न है॥ तदपि यह उसका एक बहुत बड़ा उपकरण है॥ 'मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार' में अहंकार पर ही सब टिका है, मन भी, बुद्धि भी, चित्त भी, शरीर तो बेचारा आता जाता है॥ इस वर्तमान जीवन में यह शरीर, अगले जीवन में दूसरा॥ परन्तु शरीर न रहने पर भी, मनुष्य की जो सूक्ष्म अवस्था है पंचकोषों की उसमें भी, अन्नमय मनोमय प्राणमय, विज्ञानमय, इनका अस्तित्व रहता है इसीलिए जीवात्मा शब्द आता है, आत्मा नहीं जीवात्मा॥

इस अहंकार की महाशक्ति का परिचय कराने से पूर्व इसकी वस्तुस्थिति को समझना आवश्यक है॥ और वह वस्तुस्थिति क्या है? यह कि 'मैं हूँ', यह आभास कि मैं हूँ॥ मैं हूँ तो मेरा नाम है, मेरा रूप है, मेरी पहचान है, मेरे सम्पर्क हैं, मेरी सम्पत्ति है, मेरा विचार है, मेरी योजना है, मेरी नीति है॥ यह सब किसकी? मेरी॥ मेरा नाम, मेरा शरीर, मेरी पहचान, मेरी योग्यता, मेरी सम्पत्ति, मेरा विचार, सब 'मैं' पर टिका है न? तो अस्तित्व का आधार, बाहर के परिलक्षित अस्तित्व का आधार क्या है? मैं॥ मैं अर्थात 'अहंकार' - 'अहं का आकार'; मेरे अस्तित्व का आधार the basis of my existence. मेरे अस्तित्व का आधार है 'अहंकार'॥ अगर यह नहीं तो फिर क्या है? जिस दिन यह विलय हो जाता है उसी दिन तो आत्म साक्षात्कार होता है॥ पर यह कब तक जाता है? यह दहलीज तक जाता है॥ मैं यूँ कहूँ मोक्ष की दहलीज तक यह है, तो उसको नकारा नहीं जा सकता॥

यह जानना आवश्यक है कि जो इतना शक्तिशाली है कि आत्म साक्षात्कार की दहलीज तक गया, जिसके होने के सारे अस्तित्व हैं, उसमें कितनी बड़ी महाशक्ति है? उत्साह में कौन आता है? डरता कौन है? हाँ, कहने को तो मन ईत्यादि शब्द उपयोग करते हैं पर मूल में तो 'मैं उत्साहित', 'मैं उमंग में', 'मैं डर गया', 'मैं पराक्रमी', 'मैं साहसी', 'मैं बलशाली', यही तो है? आधार यही है; इसलिए यह 'मैं' है॥ यह 'मैं', जब अनावश्यक विस्तार ले लेता है जितने की आवश्यकता नहीं है, तो फिर यह तथाकथित रूप से जाना जाने वाला ego अहंकार है॥ वस्तुत: इसके साथ न्याय नहीं हुआ॥ हम इस शब्द के साथ न्याय नहीं कर पाए, इसकी सत्ता के साथ न्याय नहीं कर पाए॥ हमने इसका केवल वह विकृत स्वरूप जानकर ही इसको कह दिया - अहंकार, यह तो बुराई है॥ क्या यह बुराई है? यह तुम्हारा अस्तित्व है, यह तुम्हारा अस्तित्व है! जानते हो हर व्यक्ति जो बड़े से बड़ा काम करने की चेष्टा करता है, कहते हैं न कि: 'wants to go down into history, इतिहास में जाना चाहता है'
'यह चाहता है कि नाम इतिहास में चला जाए'
"आप ऐसा काम करो कि इतिहास में चले जाओ'
'इनका नाम सुनहरी अक्षरों से लिखा जाएगा'

शरीर न रहने पर नाम का कोई महत्त्व रहता है क्या? जीवात्मा का तो कोई नाम नहीं है॥ आत्मा का कोई नाम नहीं है, मैं 'जीवात्मा' तो फिर भी एक शब्द नीचे बोल गया 'आत्मा' का कोई नाम है? नहीं है॥ कोई रूप है? नहीं है॥ तो फिर इतिहास में किसे जाना है? जब आत्मा का न कोई नाम है न रूप है पर वह तो नाम और रूप की सृष्टि से परे है, तो फिर यह 'नाम' किसका है? इतिहास में किसको जाना है? मैं, मैं अर्थात अहंकार ॥ इसलिए अहंकार को विशुद्ध रूप से समझना परम आवश्यक है॥ यदि अहंकार को तुम केवल उतना जानोगे जितना आज तक सुनते आए - अहंकार मने बुराई, अहंकार मने लोभ मोह अहंकार, वह उसका विकृत स्वरूप है॥

आप यह नहीं कह सकते - पैसा बुरा है॥ पैसा बुरा होता है क्या? आज तक यही तो अन्याय हमने किया या तो हम extreme अर्थात हम अतिवाद में चले गए, बीच में नहीं रुके॥ पैसा बुरा होता है, पैसा बड़ी बुराई लाता है॥ क्या अगले समय का भोजन मिल सकता है उसके बिना? नहीं मिल सकता॥ क्या जिस रूप में आज हम जीवन यापन हम कर रहे हैं, औसत रूप में ही सही, मैं कहता हूँ छोड़ दो उस विलासिता को luxury को, केवल न्यूनतम स्तर पर भी जीवन जीना हो तो क्या बिना पैसे के सम्भव है? नहीं है॥ तो क्या पैसे को बुरा कहेंगे? बुरा कौन है? बुरा वह है जो उसे येन केन प्रकारेण पाना चाहता है और जो बुरे तरीके से पाना चाहता है वह पैसे को भी बुरा कर डालता है॥ इसीलिए कई लोग कहते हैं पैसा बुरा है, पैसा बुराई लाता है॥ वस्तुत: बुरा जो है वह तो छुप गया, बदनाम कौन? बदनाम पैसा हुआ और जो बुरा है वह छुप गया, कौन? वह होड़, वह हवस, वह अत्यधिक पाने का लोभ, ठीक उसी प्रकार अहंकार है॥ अहंकार विशुद्ध रूप से बहुत सात्विक शब्द है इसमें किसी प्रकार का कोई विकार नही है जब इसका विस्तार विकृत रूप में होना आरम्भ हो जाता है - मैं, मेरा, I want to possess, मुझे possess करना है, मुझे अधिकार चाहिए, मुझे हस्तक्षेप के साथ अधिकार चाहिए; तो चाहे वह सम्पत्ति हो अथवा व्यक्ति हो, 'I want to possess', जो होगा मेरे कहने से होगा, जो चलेगा मेरे कहने से चलेगा, जो मैं चाहूँगा बस वही होगा॥ यह क्या है? यह इसका विकृत विस्तार है॥ विकृत विस्तार को क्या आप यह मानोगे कि: कीचड़ पड़ा है और एक साफ पानी है, यह उदाहरण बहुत सुन्दर स्वरूप में आदि गुरू शंकरचार्य ने दिया था पर यहाँ मैं अलग रूप में ले रहा हूँ॥ सूर्य का प्रकाश उस कीचड़ पर भी पड़कर उसमें जितना जलांश है उसको प्रकाशित कर रहा है, चमक वहाँ भी है और स्वच्छ जल पड़ा है सूर्य का प्रकाश वहाँ भी है॥ वह कीचड़ में काले रंग में चमकता दिखाई देता है और स्वच्छ जल में स्वर्णिम स्वरूप में चमकता दिख रहा है॥ सूर्य का प्रकाश क्या इससे गन्दा हो गया? नहीं हुआ॥ सूर्य का प्रकाश अछूता है वह जैसा है वैसा पवित्र है॥ तो मलिनता कहाँ है और स्वच्छता कहाँ दिख रही है? नीचे॥

ठीक उसी प्रकार 'अहंकार' विशुद्ध रूप से बड़ा ही पवित्र शब्द है॥ जैसे ही इसकी प्रतीति, इसका विस्तार किसी विकार में जाता है तो, जब कोई बहुत अच्छा काम करता है तो उसे राष्ट्र में हम भारत रत्न, पद्मविभूषण, पद्म श्री ईत्यादि से सुशोभित करते हैं, किसी नाम को करते हैं न? किसी एक पहचान को करते हैं न? अर्थात पुरस्कृत कौन हुआ? पुरस्कृत तो अहंकार ही हुआ न? जब हम किसी के प्रति हम बहुत बुरी भावना व्यक्त करते हैं कि इसने बहुत हानि की है, यह बहुत बुरा जीव है ईत्यादि तो भी किसको सम्बोधित कर रहे हैं? अहंकार को ही न? आत्मा तो परे है, निर्लिप्त है, निर्गुण है, अजन्मा है, अनादि है, उसमें विकार रहित है, ईश्वर का प्रकाश है उसमें॥ तो फिर कौन है जो सुशोभित महिमामण्डित या किसी बुराई का पात्र बन रहा है? एक आकार जो अहं रूप में, मैं रूप में ओढ़ा गया है॥ वह आकार जो अस्तित्व रूप में ओढ़ा गया है उसे हम अहंकार मानें? उसके सात्विक विकृत दोनों स्वरूप हैं पर सामान्य प्रचलन में हमने इतनी गहराई तक न जाकर हमने उसे बुरा कह दिया॥ अहंकार शब्द का प्रयोग होते ही, अरे साहब! छोड़ो अहंकार आदमी को मार डालता है! अहंकार मनुष्य को खा जाता है! यही कहते हैं न हम लोग? अहंकार खा नहीं जाता है, अहंकार तो आधार है, वह नहीं हो तो तुम नहीं हो॥ तुम नहीं तो यह सब कुछ जिसे तुम अपना जान रहे हो मान रहे हो, किसका? किसका?

नाम और रूप तुमसे ले लें और इस पूरी पृथ्वी की सम्पत्ति तुम्हें देना चाहें तो किसको दें? नहीं दे सकते न? तुम आधार को बुरा मत मानो, अपनी समझ को विस्तार दो और समझ को परिष्कृत करो॥ जब तुम समझ को विस्तार दोगे एक साधक की भाँति, तब तुम देखोगे कि अहंकार तो आधार है, इसके बिना तो अस्तित्व टिक नहीं सकता॥ मैं तो इसके विकृत स्वरूप को ही इसे मानता था 'ओह! अहंकार मने बुराई'॥ अहंकार का अनावश्यक विस्तार undesired inflation वह बुराई है, ठीक पैसे की भाँति॥ पैसा बुरा है ? नहीं॥

जब हम नीर क्षीर विवेकी होकर गायत्री की 'धियो योन: प्रचोदयात' के अन्तर्गत इन विषयों को समझने की चेष्टा करते हैं तो हम पाते हैं कि ओढ़ी हुई समझ ने, अहंकार के ओढ़े हुए स्वरूप के साथ कितना अन्याय किया है! बहुत बड़ा अन्याय किया है! और हम जन्मों चले जाते है, पीढ़ियाँ चली जाती हैं एक प्रश्न भीतर से उठता ही नहीं कि आखिर यह है क्या? अगर इतना बुरा है तो 'मन बुद्धि चित्त अहंकार' है क्यों? अहंकार नाम का component ही क्यों है? तो समझ में आएगा कि नहीं यह तो आधार है, विकार तो इसका ओढ़ा हुआ स्वरूप है॥ जब 'अहंकार' को हमने जान लिया तो यही अहंकार है जो चाहे तो अपनी स्थापना के लिए लाखों की जान ले ले और यही अहंकार है जब इसका परिष्कृत स्वरूप होता है तो भीतर से गूँज उठती है 'आत्मवत सर्वभूतेषु' मुझसे सब! यह व्याप्ति किसको मिलती है? प्राथमिक व्याप्ति मनुष्य को जैसे-जैसे उत्कर्ष होता है, किसको मिलती है? अहंकार को, अहंकार के सात्विक स्वरूप को॥ व्याप्ति pervasiveness, वह जो oneness का पहला आभास है वह किसको मिलता है? अहंकार को॥ अहंकार को ही oneness का पहला एक आभास मिलता है॥ वह नहीं हो तो कौन अनुभव करेगा? who will experience? क्योंकि जीवात्मा के स्तर पर जाने के बाद तो फिर वह बचता ही नहीं है न॥ 'कौन' शब्द का प्रयोग आत्मा में नहीं है॥ 'कौन' अनुभव करेगा? वहाँ कौन नहीं है॥ जहाँ तक, 'कौन' है, 'कौन' अनुभव करेगा, 'किसे' अनुभव करेगा, वहाँ तक अहंकार है॥

आत्मा में इन शब्दों का कोई महत्त्व नही हैं॥ मैंने पहले ही कहा न, लक्ष्य को छोड़कर मार्ग को भी देखो, बड़ा महत्त्वपूर्ण है॥ यह विषय बहुत महत्त्वपूर्ण है और एक साधक की दृष्टि से, जिसे आत्म उत्कर्ष चाहिए, और केवल साधक ही नहीं जिसे बहुत बड़े स्तर पर लौकिक जगत में भी प्रगति चाहिए उसके लिए भी, यह विषय उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना किसी मोक्ष पथ पर आरूढ़ साधक के लिए, यह दोनों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है॥ क्योंकि यह परिष्कृत हो जाए तो यह बड़ी से बड़ी उपलब्धि का साधन है॥ क्योंकि यही बड़े से बड़े उद्देश्य के सामने बाधा बनकर सामने आ जाता है॥ इसीलिए कहते हैं: > तुम लक्ष्य के पीछे खड़े हो या लक्ष्य के आगे आ गए?
> कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम अपने ही Objective के सामने आकर अवरोध बनकर खड़े हो गए?
> तुम तो अपने ही उद्देश्य के लिए बाधा बन गए हो, अपने उद्देश्य के पीछे रहो, बाधा मत बनो
> कौन है जो आगे आ गया़ और कौन है जिसे पीछे खड़ा होना चाहिए?

अहंकार!

इस श्रृंखला में नई दृष्टि नए आयाम के साथ हम निरन्तर आगे बढ़ते रहेंगे, इसे सीखकर तुम्हें अच्छा लगेगा!

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