गायत्री के अनुष्ठान और मौन का भी एक गहरा संबंध है पर उससे पूर्व यह समझना आवश्यक है कि मौन क्या होता है? क्या मौन केवल मुख की चुप्पी है.
नहीं साधक, चुप रहना मौन का बाहरी स्वरूप है जबकि वस्तुतः मौन भीतर की संपूर्ण निष्क्रियता है. मनुष्य जब अपने भीतर विचार कल्पना स्मृति इच्छादि से उपराम हो जाए अर्थात पीछे हट जाए तब उसे मानते हैं वास्तविक मौन. चुप्पी तो केवल शरीर के स्तर पर बाहरी ध्वनि को न उत्पन्न करने को ही कहा जा सकता है. आवश्यक नहीं कि जो लोग चुप रहते हैं वह मौन में ही हों।
अधिकांश अनुभव में आया कि चुप रहने वाले मौन के स्थान पर अपने भीतर बहुत बड़ा दावानल (दावानल जानते हो ना जंगल की आग को कहते हैं) भीतर दावानल मचाए रखते हैं ऐसी अवस्था में यह विचार करना आवश्यक हो जाता है कि मौन और चुप्पी में भेद क्या है.
गायत्री के अनुष्ठान का मौन से संबंध गहरा है। चुप्पी मनुष्य की ऊर्जा को तो बचाती है पर चुप्पी मनुष्य की ऊर्जा को उन स्तरों पर नहीं बचा पाती जितना की मौन, इसीलिए मौन का अभ्यास भी अनुष्ठान में एक अवधि के लिए अवश्य करना चाहिए। आवश्यक नहीं की मौन की अवधि 24 घंटे ही करो.
बिल्कुल नहीं, अगर मौन का अभ्यास चुप्पी सहित एक घंटा भी हो गया अर्थात 60 मिनट तो यह मान लो कि तुमने मौन के अनुशासन का एक महत्वपूर्ण अंश का पालन कर लिया और तुम्हें उसका लाभ ऊर्जा के संरक्षण के रूप में और Conservation of Energy अर्थात ऊर्जा को बचाने में बहुत बड़ा योगदान कर दिया।
मौन की अवस्था में अपने आप को स्थिर करना भी एकतरह का बहुत बड़ा तप है, जप के साथ तप।
यूं तो जप अपने आप में ही तप है पर फिर भी जप के साथ तप बहुत बड़े अंशों में ऊर्जा को भीतर उत्पन्न करने में सहायता करता है। तुम इसका अभ्यास पूर्व में कितनी बार कर पाए मैं नहीं जानता। इतना अवश्य ज्ञात है कि अधिकांशतः लोग चुप्पी का अनुपालन करते हैं, मौन संभव नहीं हो पाता इसलिए आवश्यक है कि तुम मौन का अभ्यास भी साथ साथ आरंभ करो और मौन के लिए अपनी श्वासों की गति पर कुछ देर केंद्रित रहना, और निर्विचार होकर प्रकाश की कल्पना में जाने की चेष्टा करें ।
हालाँकि मौन में कल्पना भी नहीं करते पर अनर्गल कल्पनाओं के स्थान पर उत्तम है कि कोई सार्थक कल्पना ही पकड़ो जैसे प्रकाश । यूं तो मौन में कल्पना भी नहीं चाहिए पर मैंने कहा ना क्योंकि तुम नहीं कर पाओगे तो अच्छा है कि सार्थक कल्पना करो जिससे ऊर्जा का क्षय अर्थात खर्च ना हो अपितु ऊर्जा का संरक्षण हो जाए।
जब यह अभ्यास तुमने कर लिया तो तुम देखोगे कि तुम्हें अनुष्ठान के साथ अपने भीतर कितने अधिक अंशों में आत्मबल अर्जित होता हुआ अनुभव हो रहा है। जप के साथ-साथ अब मौन के व्रत के लिए भी अपने भीतर संकल्प लो, 15 मिनट आधा घंटा एक घंटा बहुत है इससे आगे मत जाओ।
जप और तप की ऊर्जा दुगनी हो कर तुम्हारी सहायता करें यही इस भाव का उद्देश्य है।