श्रीमद भगवद गीता अध्याय 17 श्लोक 3 से उठता हुआ मर्म .
श्रद्धा का विषय उत्कृष्टता के प्रति बिना शर्त का प्रेम है, इसे विश्वास के साथ भी जोड़ते हैं। विश्वास श्रद्धा का अनुसरण करता है आस्था बनने के लिए अर्थात गहरा विश्वास बनने हेतु। किसी जीव की श्रद्धा क्या है, वह किसे उत्कृष्ट मानता है, यह निर्णय जीव का व्यक्तिगत है। जिन विषयों को जीव उत्कृष्ट मानता है वह उसकी प्राथमिकताओं के विषय होते हैं। वास्तविकता यही है की अपनी प्राथमिकताओं के द्वारा ही संचालित जीव है, यह मनुष्य।
ईश्वर की सृष्टि के अंतर्गत मनुष्य अपने भाव के द्वारा ही संचालित होता है। ( A human is priority driven) भाव रूप में ध्यान रहे, यूं तो भाव रूप में मनुष्य की प्राथमिकताएं बहुत सी होती है पर जिनके अधीन वह विवश होता है अर्थातजिन्हे वह नहीं भी करना चाहता फिर भी उसे वह सभी कुछ करना पड़े, जैसे अनुशासन पालन के कारण थोपी गई प्राथमिकताएं। उनकी बात यहां नहीं हो रही है। यहां केवल बात हो रही है उन प्राथमिकताओं की जिन्हें जीव पर थोपा नहीं जाता बल्कि जीव के भीतर से जिन प्राथमिकताओं का स्वतः ही उदय होता है उन प्राथमिकताओं की यहां पर चर्चा हो रही। उन्हीं प्राथमिकताओं के अंतर्गत ब्रहम ऋषि आदिगुरु वेदव्यास भगवान कृष्ण की प्रेरणा से कहते हैं कि मनुष्य अपनी श्रद्धा के अनुरूप ही अपने अगले जन्म को प्राप्त होगा। इसलिए सबसे बड़ी रक्षा किसी विषय अगर जीव को करनी है, तो उसे अपनी श्रद्धा की रक्षा करनी होगी। देखना यह है की मेरी श्रद्धा किन विषयों में है जिन्हें मैं अपनी प्राथमिकता मानता हूं। अध्यात्म में हम श्रद्धा का तात्पर्य उत्कृष्टता से जोड़ते हैं श्रद्धा का तात्पर्य श्रेष्ठतम से जोड़ते हैं। जिस विषय अथवा व्यक्ति के प्रति हमारा (Unconditional) बिना शर्त का प्रेम हो जाए, जिस पर जीव आहूत हो जाए जिस पर न्यौछावर हो जाए, जिस पर जीव समर्पित हो जाए (Offer one self as an oblation)
हमें इस लोक में श्रद्धा को केवल आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं अलौकिक दृष्टि से भी अनुभव करना होगा लौकिक दृष्टि से उत्कृष्टता वह है जिसे मनुष्य अपने प्राथमिकता मान रहा है। भाव रूप में विवश जिसे भी जीव अपनी प्राथमिकता रूप में मानता रहेगा वह वैसा ही हो जाएगा। वर्तमान जीवन में अगर किसी कारण वश वह अपनी श्रद्धा के विषय को नहीं भी प्राप्त कर पाया तो, अगले जीवन में वह अपनी श्रद्धा को ही जीएगा। ब्रह्म ऋषि का वाक्य यहां चरितार्थ होता है कि “मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है” . अगर वर्तमान जीवन किसी काल में रचे भाग्य का परिणाम है, तो भविष्य आज रचे गए भाग्य का परिणाम होगा। अतः वर्तमान की सही व्याख्या क्या हुई। वर्तमान भविष्य की कार्यशाला - वेधशाला अर्थात फैक्ट्री - उपक्रम है जहां निर्माणाधीन है एक भविष्य। यह बीतता हुआ पल, हाथ से जाता हुआ यह क्षण, इसमें निर्मित हो रहा है भविष्य। यह समझ एक प्रकार से बहुत बड़ी चेतावनी है जिस पर हमे अत्यधिक सतर्क और सजग होना होगा। गंभीरता पूर्वक जानना होगा की भाव रूप में आज हमारी प्राथमिकता क्या है ?
इसलिए अपने भीतर झांक कर ब्रह्म ऋषियों ने कह दिया। तेलंग स्वामी जी का उल्लेख बार-बार आता है कि पिछले जन्म को जानना है तो भागने की आवश्यकता नहीं है वर्तमान जीवन में अपने बीते हुए स्वभाव को देख लो अब आज जो भी तुम हो वह तुम्हारा पिछला जन्म था तथा उसी प्रकार अगर भविष्य को देखना है तो वर्तमान के द्वारा किए गए संशोधन में ही तुम्हारे भविष्य के दर्शन है। मेरा अगला जन्म कैसा होगा यह निश्चित रूप से ब्रहम ऋषियों के द्वारा स्थापित सत्य है, कर्म-बंधन अपने स्थान पर है पर कर्म बंधनों का क्षय करने के प्रावधान तप के द्वारा उपलब्ध हैं। मनुष्य भीतर के संकल्प की शक्ति से ना केवल अपने भविष्य अर्थात अगले जन्म की रचना स्वयं कर सकता है बल्कि साथ ही साथ अतीत के कर्मों का क्षय करने में समर्थ है।
ब्रहम ऋषि का वाक्य है इसलिए बहुत सावधान बाबू तुम्हारी हर एक प्राथमिकता क्या है जानना होगा और उसे देख संशोधित करना होगा। तुम्हारी श्रद्धा ही तुम्हारा भविष्य है।