आत्मा राजा समान हैं इन सभी का। शंकराचार्य द्वारा रचित आत्म बोध श् 18

आत्मा राजा समान हैं इन सभी का। शंकराचार्य द्वारा रचित आत्म बोध श्  18

आदि गुरु शंकराचार्य जी द्वारा रचित आत्मबोध श्लोक नंबर अट्ठारह...

देहेन्द्रियमनोबुद्धिप्रकृतिभ्यो (देह, इन्द्रियां, मन, बुद्धि, प्रकृति हैं) विलक्षणम् (इनसे सर्वथा भिन्न) तद वृत्तिसाक्षिणं (उनकी गतिवधिओं की साक्षी) विद्यात( जानो) आत्मानं (आत्मा को) राजवत (राजा समान) सदा - 18

बहुत ही अद्भुत रूप से एक दृक द्रष्ठा अन्वय को समझाने की चेष्टा इस श्लोक में की गई है। दृक दृश्य अन्वय याने द्रष्टा इन दोनों का एक भेद समझाया है। द्रष्टा है तो दृश्य है। दृश्य नहीं भी है द्रष्टा तो भी है। जो कुछ भी जीवन में अनुभव कर रहे हैं, वो भिन्न-भिन्न रूप लेकर सामने आता है चला जाता है, अनुभव आता है चला जाता है हम वहीं रहते हैं हम कहीं नहीं जाते हैं हम बिल्कुल वही रह जाते हैं कहीं नहीं जाते। वह अनुभव कभी इंद्रियां देती है,,कभी मन देता है,, कभी बुद्धि देती है,,यह सब पदार्थ के बने हुए हैं। इन पदार्थ के बने हुए सभी इंद्रियां मन बुद्धि इत्यादि को प्रकृति कहां गया है.। पदार्थ शब्द से उत्तम प्रकृति शब्द अच्छा होगा। है तो रचना सारी प्रपंच की, पर फिर भी प्रकृति शब्द से संबोधित किया गया है। यह सारी प्रकृति है, चेतना नहीं है! चेतना भिन्न है, द्रष्टा भिन्न है, इंद्रियों में कभी नाक को अनुभव, कभी कान को अनुभव कभी त्वचा को अनुभव,,,कभी आंखों को अलग-अलग अनुभव आते है। द्रष्टा वही है स्थिर है।

दृक दृश्य अर्थात दृष्टा कहीं नहीं जाता, दृश्य आते जाते हैं। दृश्य नहीं भी हो तो भी दृष्टा है...यह कैसे? सुषुप्ति के अवस्था में सुषुप्ति माने वह गहरी नींद जिसमें स्वप्न नहीं होता, पूरी तरह हमारी सजगता भीतर सिमट चुकी होती है वह सुषुप्ति अवस्था है। इस अवस्था में एक अन्वय एक विच्छेद,एक भिन्नता आती है.। जहां कोई दृश्य नहीं है, पर द्रष्टा वहां भी है, हम तो है ना। मान लिया इन्द्रिया निष्क्रिय हो गई,,बुद्धि निष्क्रिय हो गई मन निष्क्रिय हो गया अर्थात सभी आरोपीत प्रकृति पंचमहाभूत ओं से बनी प्रकृति भौतिक सारे निष्क्रिय हो गई पर हम तब भी है, यह नहीं कहा जा सकता कि सुषुप्ति अवस्था में हम भी नहीं है, हम तो है ना, दृश्य आते जाते रंगमंच पर अलग-अलग नाटक होते हैं, टेलीविजन की स्क्रीन,मोबाइल की स्क्रीन पर अलग-अलग एप्लीकेशन आते हैं, अलग-अलग प्रोग्राम आते हैं जाते हैं। दृष्टा तो हम है ना हमारी सेवा में यह सब कुछ उपलब्ध है ना आते हैं और चले जाते हैं। हम लिप्त नहीं होते, देखते हैं पर हम लिप्त नहीं होते हम दृष्टा बने रहते हैं। यह स्वरूप यह श्लोक के माध्यम से उन्होंने समझाने की चेष्टा की है,,,कि यह इंद्रियां मन बुद्धि एक्टिविटीज जितनी भी है वह सारी आती हैं जाती हैं,,,तो एक दृष्टा राजा की भांति राज दरबार में राजा सिहासन पर आसीन है उसके सामने सारी क्रियाकलाप चल रहे हैं ऑल एक्टिविटीज ऑल फंक्शन सब चल रहा है राजा अपने प्रभुता में आसीन है।ठीक वैसे ही आत्मा को जानो। देह इंद्रियां मनो बुद्धि प्रगतिभ्यो विलक्षण मतलब सबसे अलग है. तद वृत्ति साक्षीनां मतलब इन सारी एक्टिविटीज को इनकी देखती है। एक्टिविटीज क्या है दृश्य और ये द्रष्टा अलग.। विद्यात.. यह जानो आत्मानम राजवत सदा.. आत्मा राजा की भांति भीतर आसीन है।ह्रदय की गुफा में आसीन है। आत्मा वहां से सब गतिविधियों को देखती है। अनुभव करती हैं और विच्छेद होता है सिर्फ सुषुप्ति में जाकर। जब गहरी निद्रा हो कुछ बोध नहीं होना स्वप्न है ना स्मृति है ना कल्पना है ना विचार है कुछ नहीं है एक विच्छेद हो जाता है एक प्रकार से ना देह का बोध रहता है,, इसी को यहां द्रुक दृश्य अन्वय कहा गया है। एक विच्छेद एक भिन्नता एक भेद के रूप में भी समझाने की चेष्टा की गई है,,, आत्मा विलक्षण है इनसे भिन्न है,, राजा है,, द्रष्टा है। वो कहीं नहीं जाता बाकी सब आते जाते हैं। काल भी उनके समक्ष आता जाता है,,, विलय हो जाता है,, पर वो कहीं नहीं जाता है वो वही है,,,वही है,, वही है। लेख ट्रांसक्रिप्शन ; सुजाता केलकर

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