ब्रह्मर्षि आदि गुरु मुनि वेदव्यास कहते हैं कि मनुष्य में जब सतोगुण की वृद्धि होती है, अर्थात जैसे-जैसे साधक की वृत्तियाँ - उसका अन्तःकरण प्रकाशित होता जाता है और आत्म परिष्कार के द्वारा उसके भीतर के विकार समाप्त होते जाते हैं। साधक भीतर पूर्व की अपेक्षा अधिक पवित्र और निर्मल होना आरंभ हो जाता है और उसे अपने अनुभव में अर्थात ऐसा साधक की अपनी समूची इंद्रियों की चाहत में एक भिन्नता दिखनी आरंभ हो जाती है। उसके पूर्व के अभ्यास पूरी तरह बदले कि नहीं बदले यह विषय तो साधना का है, पर यह भी सत्य है की उसकी इंद्रियों में… उसकी इंद्रियां से यहां तात्पर्य उसके अंतःकरण में उठने वाली चाहत से है। उसकी चाहत में एक सजगता आ जाती है। अभ्यास पहले से ही भले रहें , अर्थात पूर्व के अभ्यास भले ही वैसे ही बने रहें, फिर भी उसके भीतर एक भिन्न सजगता जन्म ले लेती है। उसके पूर्व के गलत अभ्यासों के होते हुए भी भीतर एक साक्षी भाव की अनुभूति होने लगती है। दोष - विकार से भले वह अभी त्रस्त हो पर अब एक नई सजगता का जागरण हो चुका है और उस नई सजगता के जागरण के प्रभाव स्वरूप उसकी इंद्रियों की चाहत अर्थात आंख अब क्या चाहती है मुख क्या चखना क्या बोलना चाहता है और कान क्या सुनना चाहते हैं। हाथ क्या स्पर्श करना चाहते हैं इत्यादि। पुनः स्मरण कराना होगा की भले ही पूर्व के अभ्यास नहीं बदले पूर्व के अभ्यास यथावत होते हुए भी, साधक की प्रत्येक चाहत के साथ अब एक साक्षी भाव भी जुड़ गया है जो अनुभव करता है, देखता है, क्या कैसा हो रहा है, उचित अनुचित का बोध वही कराता है।
बुद्धि ज्ञान से संस्कारित हो चली है बुद्धि की वह क्षमता जो भिन्न-भिन्न तथ्यों में भेद करना जानती है, जिसे विवेकी बुद्धि कहते हैं अब सक्रिय है, (active) जागृत है और यह मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं। साधक का अपने ऊपर बस चले अथवा ना चले, साधक भले ही पूर्व के तमोगुण के कुछ अंश के अभ्यासों में रहे। साधक भले ही पूर्व के कुछ राजसिक अभ्यास में भले ही रहे और वैसा भले ही वह करता भी रहे। उसकी आदतें पूरी तरह नहीं बदले तो भी भीतर एक जागृत अवस्था, एक बौद्धिक सजगता स्थापित हो चुकी होती है। जब यह बुद्धि में प्रखरता अर्थात सजगता इंद्रियों की चाहत में अपनी उपस्थिति दर्ज कराना, रजिस्टर कराना आरंभ कर दे तो मान लेना चाहिए सतोगुण की अभिवृद्धि होनी आरंभ हो चुकी है। साधक में सतोगुण अब वृद्धि को प्राप्त हो रहा है। अब उसके अस्तित्व में श्वेत (White) प्रखर हो रहा है और लाल और काला (Red & Black)अभी वह है तो सही पर वह होते हुए भी लाल और काला (Red & Black) का अस्तित्व पूर्व की अपेक्षा अब कम हो रहा है, फीका है। उनकी पकड़ (लाल और काला Red & Black) अब उतनी मजबूत नहीं है। साथ ही अब कोई और भी बल प्राप्त करके श्वेत (White) माने सतोगुण माने भीतर का बोध अर्थात चाहत का भेद अर्थात साक्षी भाव की जागृति, एक भीतर की भिन्नता जो अपने आप को दर्शाती है। स्वयं को अनुशासित करने हेतु आड़े हाथों लेने वाली एक नई भीतरी संस्था आन्तरिक वेदना को उत्पन्न करना सक्रिय हो चुकी है।
यही है सतोगुण की अभिवृद्धि। सत तत्व की वृद्धि जब हो चली हो तब साधक को अपने भीतर त्रिगुणात्मक प्रकृति का विश्लेषण करके यह जानते रहना चाहिए कि मैं इस समय कहां किस रूप में हूं। समुन्नत स्तर में यह साधना नित्य प्रति परस्पर रूप से चलती है। समुन्नत स्तर साधना को जो साधक प्राप्त हो गए उनको स्वयं को पता है कि नहीं की वह इस बताई गई छोटी सी साधना को लिखकर करके अंकों में भेजते हैं। उन्हें सम्भवतः यह बोध नहीं की, कि हर बार जब वह प्रति दिन अपने स्वमूल्यांकन के अंक लिखते हैं तब उनके भीतर का सत्व अधिक प्रखर, अधिक दृढ़ भूमि होता जाता है। जाने अनजाने में मनुष्य के अर्ध चेतन और अचेतन में बहुत बड़े स्तरों के परिवर्तन यह छोटे-छोटे साधना के सूत्र कर जाते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 14 का श्लोक 11 से उठता यह भाव आज सतसंग में अभिव्यक्त किया गया है। जिन- जिन साधकों में उपरोक्त बोध का जागरण हो चूका है वह जान लें उनके भीतर अब सतोगुण की अभिवृद्धि होनी आरंभ हो गई। उनके भीतर के सतो के जागरण का उद्घोष हो चुका है। उनके भीतर के कलयुग की अब समाप्ति होने को है। उनमें अब शंखनाद हो चुका है। अब मात्र समय का भेद हो सकता है की कितने समय में पूर्ण सत तत्व की स्थापना होगी। पर अब वह यह निश्चित जानें उनके भीतर सतोगुण की अभिवृद्धि प्रातः स्मरणीय उगते हुए सूर्य की भान्ति है जो अब क्षितिज से ऊपर उठना आरंभ हो चुका है। समझे बाबू।