ध्यान की वह शून्य अर्थात निर्विचार अवस्था कितनी महत्वपूर्ण है ;

ध्यान की वह शून्य अर्थात निर्विचार अवस्था कितनी महत्वपूर्ण है ;

कल श्रीमद भगवद गीता जी की कक्षा में एक श्लोक पढ़ाया गया, श्लोक संख्या 18 अध्याय 8॥ जिसका मूल भाव एक ही था कि अव्यक्त से इस सारी सृष्टि व्यक्त हुई है उत्पन्न हुई है; प्रभवन्ति अर्थात सब वहीं से आया है, अव्यक्त अर्थात महाशून्य॥ महाशून्य केवल सृष्टि के उत्पन्न होने और विलय के समय ही सक्रिय नहीं है अपितु महाशून्य के (शब्द उपयुक्त तो नहीं फिर भी बुद्धि की सुविधा हेतु मैं प्रयोग कर रहा हूँ) महाशून्य का अस्तित्व सदा सर्वदा भिन्न स्वरूपों में भी रहता है; ध्यान में भी॥ जब ध्यान की समाप्ति से कुछ पूर्व कहा जाए "महाशून्य", तो उस समय अथवा यदि साधक स्वयं ही निवर्विचार हो जाए, कोई विचार नहीं बस खो गए, कहाँ? पता नहीं; उसे महाशून्य का एक अंश ही जानना चाहिए॥

महाशून्य के साथ संसर्ग और सम्पर्क होने से बुद्धि तो निष्क्रिय होती है॥ वह विचार, कल्पना, स्मृति ईत्यादि नहीं करती, शान्त हो जाती है॥ पर मनुष्य का अस्तित्व केवल बुद्धि है क्या? बाकी का सम्पूर्ण अस्तित्व जागृत हो उठता है, जो वर्तमान में हमसे अनजाना है॥ हमारा हमें ही नहीं पता हम कहाँ हैं॥ उस निर्विचार अवस्था में वह अस्तित्व सक्रिय हो जाता है और उसका संवाद, आदान-प्रदान, उस महाशून्य के क्षेत्र से आरम्भ हो जाता है जिसके फलस्वरूप बहुत कुछ प्राप्त होता है॥ पर मूलत: वह ऊर्जा प्राप्त होती है जो मनुष्य को आत्म-उत्कर्ष के लिए प्रेरित करती है॥ भीतर एक मँझाई होती है, कुछ क्षमताएँ भी जागृत होती हैं॥ इसका सतही मन the surfacial mind को तो बोध नहीं होता, उसे नहीं पता लगता॥ वह केवल उस अवस्था का कुल योग the total outcome, वह केवल इतना मानता है शान्ति और आनन्द॥ बड़ी शान्ति मिली, बहुत आनन्द आया बाहर आने का मन ही नहीं था॥ वह इसे इतना ही जानता है, इससे अधिक वह नहीं जान पाता पर केवल इतना ही होता नहीं है, इतना ही होता नहीं है॥ होता बहुत कुछ है जो मनुष्य के सूक्ष्म धरातल पर अनेकों गहरे स्तरों पर जाकर अपना कार्य करता है, जिसका प्रभाव उसकी सोच में, उसके विचार करने की क्षमता में, बाद में व्यावहारिक जीवन में धीरे-धीरे आना आम्भ होता है॥ अत: महाशून्य के साथ सम्पर्क संसर्ग, ध्यान, वह अनुभव, वह अवस्था, वह अन्तराल that interlude, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है, वह थोड़ा सा भी हो तो भी बहुत है॥

ज्ञानियों ने कहा है, ज्ञानियों की बात कर रहा हूँ अपनी नहीं कि 17 सेकण्ड का भी, अब उन्होंने 17 क्यों कहा यह तो वे जानें मैं नहीं जानता॥ 17 सेकण्ड का भी यह अन्तराल बहुत बड़ा मानना चाहिए॥ इसके प्रभाव बहुत गहरे मानने चाहिए॥ और यदि यह आगे बढ़ जाए 30 सेकण्ड 1 मिनट 5 मिनट तो वह क्या कुछ कर पाया आपके भीतर आपको कल्पना नहीं है॥ मैं कहता हूँ उस ज्ञानी के उस बात पर हम जाएँ अथवा न जाएँ पर इतना तो हम सब अनुभव करते हैं कि वह छोटा सा अन्तराल हमारे जीवन का एक बहुत महत्त्वपूर्ण समय होता है॥ जब हमें वह मिलता है जो सामान्यत: सम्भव नहीं है पर अब यह भी जान लेना कि केवल शान्ति और आनन्द नहीं है॥ वह भीतर होता हुआ एक सूक्ष्म धरातल का बहुत बड़ा सृजन है जो अन्य किसी प्रक्रिया से सहज रूप से सम्भव नहीं है॥ अध्यात्म की प्रक्रियाओं को समाहित करके बोला मैंने, भक्तियोग ईत्यादि सब समाहित करके बोला मैंने॥ कोई छोटी अवस्था नहीं है॥ इसे जानकर प्रतिदिन बटोरकर आगे बढ़ना है॥

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