हनुमान जी की भांति हमे अपने सत्य स्वरूप का भान कराने की आवश्यकता।अहंकार की सात्विक महा शक्ति Part 5

हनुमान जी की भांति हमे अपने सत्य स्वरूप का भान कराने की आवश्यकता।अहंकार की सात्विक महा शक्ति Part 5

अहंकार की सात्विक महाशक्ति - भाग 5

सूर्य से कोई पूछे तेरा अस्तित्व क्या है? क्या है तू?
(केवल एक भाव है)
तो सूर्य का उत्तर क्या होना चाहिए या सम्भवत: क्या होगा?
यही कि 'मेरा अस्तित्व केवल प्रकाश उष्मा और ऊर्जा है, यही मेरा अस्तित्व है मैं प्रकाश हूँ उष्मा और ऊर्जा हूँ यही मेरा अस्तित्व है'
तू करता क्या है?
प्रकाश उष्मा ऊर्जा
तेरा उद्देश्य क्या है?
प्रकाश उष्मा ऊर्जा
तुझे अपने आप में कोई सन्देह है?
वह क्या होता है?
तेरी कोई अन्य अभिलाषा?
कुछ नहीं
और क्या! बस प्रकाश उष्मा ऊर्जा!
(यह भाव है केवल भाव ले रहे हैं हम)

प्रकृति के द्वारा रचा गया हमारा प्रत्यक्ष इष्ट है सूर्य! The Foremost and The First क्योंकि गायत्री में सविता का प्रतीक भी यही है सूर्य! The Divine Visible Idol ईश्वर की पहली दिव्य प्रतिमा सूर्य है जिसके कारण हमारी यहाँ स्थिति बनी हुई है॥ सूर्य प्रेरणा के लिए एक बहुत ही अद्भुत स्रोत है Its a very divine source of inspiration. बात किसकी है? अस्तित्व की, विषय क्या है? अहंकार की सात्विक महाशक्ति॥ अहंकार अर्थात अस्तित्व, Isness, Existence, मैं हूँ! मेरे होने का आभास! Ego नहीं, यह बार-बार स्मरण कराना पड़ता है वह ego वाला अहंकार नहीं, विशुद्ध अस्तित्व 'अहं का आकार'॥ मैं हूँ, मेरा अभी अस्तित्व है, उस अस्तित्व के विषय में सूर्य का उदाहरण दिया कि सूर्य से यदि पूछें कि तेरा अस्तित्व क्या है तो वह कहेगा? प्रकाश, उष्मा और ऊर्जा

हम अपने आप का अस्तित्व अपने आप से जानने की चेष्टा करें तो हम इतनी शीघ्रता से कुछ निष्चित नहीं कर पाएँगे॥ हमारा विस्तार और बिखराव इतना होगा कि अपने आप को समेट कर के अपने अस्तित्व के विषय में दो शब्द कहने में भी समय लगेगा॥ सच तो यह है कि सम्भावना है हमें कुछ समझ ही न आए कि कहना क्या है॥ कोई एकाएक पूछ ले कि आपका अस्तित्व क्या है? आप तैयार न हों, उत्तर दे पाएँगे? नहीं दे पाएँगे, मैं भी नहीं दे पाऊँगा॥ क्योंकि हम सूर्य नहीं हैं, हमारा अस्तित्व इतना स्पष्ट नहीं है॥ हमारा अस्तित्व जब तक स्पष्ट नहीं तब तक केन्द्रीभूत नहीं हो सकते, फोकस कहाँ से आएगा? हमारा अस्तित्व हमें पता ही नहीं अभी॥ पता भी है तो फिर कई शब्दों में, कई वाक्यों में टटोल-टटोल कर के हम कुछ न कुछ कहने की चेष्टा करेंगे॥ लौकिक दृष्टि से अपनी पहचान, परिवार, सम्पत्ति, सम्पदा ईत्यादि और यदि कोई थोड़ा अध्यात्मिक है तो एकाएक पूरा ही बोल देगा, "मेरा अस्तित्व आत्मा है"॥ इसके बीच में कुछ नहीं बोल पाएगा, बटोरना पड़ेगा समेटना पड़ेगा कि तुम्हारा अस्तित्व क्या है? सूर्य को स्पष्टता है उसे कोई सन्देह नहीं है॥ उसका अस्तित्व 'प्रकाश, उष्मा, ऊर्जा' है बस, उसे कोई सन्देह नहीं है॥ जिसे सन्देह नहीं होता उसे कोई शिकायत भी नहीं होती॥ जिसे पूरी स्पष्टता होती है अस्तित्व की वह कभी भी बहाने नहीं ढूँढता॥ उसे न छुट्टी चाहिए न कुछ और, कुछ भी नहीं, उसके लिए frustration खिन्नता शब्द महत्त्व हीं नहीं रखता, है ही नहीं॥ जहाँ अस्तित्व स्पष्ट है, जहाँ अस्तित्व स्पष्ट है वहाँ न खिन्नता है, न बिखराव है, न समय की सीमाएँ हैं, इतने समय में मुझे यह सब नहीं मिला मैं हार गया, हार और जीत भी नहीं है॥ हार और जीत भी समय के साथ बँधी है न? कि इतने समय में इतना॥ पर जहाँ अस्तित्व स्पष्ट है वहाँ और कुछ नहीं है, वहाँ क्या है अस्तित्व है॥

इसका कोई उदाहरण मनुष्य के रूप में नहीं है क्या? हाँ मैं इतिहास से निकाल कर लाया हूँ छोटा सा उदाहरण॥ क्यों? इसलिए ताकि कम से कम शब्दों में आप तत्काल समझ जाओ॥ पूर्व परिचित उदाहरण, जिसकी मुझे व्याख्या देने की आवश्यकता न हो, कौन? विष्णुगुप्त चाणक्य!

विष्णुगुप्त चाणक्य को उसका अस्तित्व स्पष्ट हो गया था, उसे स्पष्ट हो गया था कि मेरा अस्तित्व क्या है; मुझे किसी पराक्रम की रचना करनी है॥ वह ठीक है उन दिनों सत्ता का केन्द्र कभी एक व्यक्ति हुआ करता था, प्रजातन्त्र नहीं था इसीलिए एक व्यक्ति की उसकी परिकल्पना सत्ता के रूप में लेकर वह निकला था॥ पर उसने अस्तित्व केवल इतना ही जान लिया था कि मेरा अस्तित्व और कुछ नहीं है मुझे न्याय की स्थापना करनी है और मेरा सर्वस्व उसी को आहूत है॥ और वह निकल पड़ा था क्योंकि उसे स्पष्टता का अभाव नहीं था॥ उसने अपने समय की सीमाएँ भी तोड़ दी थी॥ खिन्नता नाम से कुछ उसके पास नहीं था न साधन न संसाधन॥ कुछ भी नहीं बस निकल पड़ा था, निकल पड़ा खुले आकाश में, बस एक ही चीज स्पष्ट थी 'मेरा अस्तित्व क्या है'॥ मेरा अस्तित्व और कुछ नहीं बस, मेरा अस्तित्व अन्याय की समाप्ति है, मेरा अस्तित्व और कुछ नहीं, मेरा अस्तित्व नीति की स्थापना है॥ अपने अस्तित्व की स्पष्टता को लेकर के, अपने अहंकार की स्पष्टता को लेकर के वह निकल पड़ा था उस काल के मिथ्या अहंकार को नष्ट करने के लिए॥ उस काल का मिथ्या अहंकार जो अनीति अराजकता के स्वरूप में चारों ओर आच्छादित था, उसे खण्डित करने के लिए विष्णुगुप्त चल निकला था॥ क्योंकि उसे अपना विशुद्ध अहंकार स्पष्ट हो गया था॥ मिथ्या अहंकार - अराजकता, विशुद्ध अहंकार - कल्याण और आत्मोत्कर्ष है; मिथ्या अहंकार पराभव है कर्म बन्धन है, विशुद्ध अहंकार मनुष्य के परिष्कार की वह चरम सीमा है जहाँ उसके द्वारा नई संस्कृतियों की स्थापना हो, फिर से जनक के यहाँ सीता का जन्म हो॥

निकट के इतिहास में विष्णुगुप्त अस्तित्व का, विशुद्ध अहंकार का एक बहुत सुन्दर प्रतीक है; और उसने उसे जिया अन्तिम श्वास तक जिया॥ लोग उसे कूटनीति के नाम से जानते हैं, अनेक प्रकार के अन्य विषयों के रूप में जानते हैं, पर नहीं जानते हैं कि वह जो कुछ था केवल अस्तित्व की सेवा में था, अपनी सेवा में नहीं था॥ वह उस मिथ्याचारी 'मैं' की सेवा नहीं कर रहा था॥ जब मिथ्याचारी 'मैं' की सेवा नहीं वहाँ संचय नहीं, न अधिग्रहण है न अनधिकृत चेष्टाएँ हैं, नहीं है॥ यह विष्णुगप्त है - अस्तित्व!

हम अपने अस्तित्व को जब तक स्पष्टता से नहीं जान लेते बिखराव भी सुनिश्चित है, भटकाव सुनिश्चित है, संकल्प का अभाव सुनिश्चित है, खिन्नता और शिकायतें सुनिश्चित हैं॥ जब मनुष्य को अपना अस्तित्व स्पष्ट हो जाता है, 'अहंकार' स्पष्ट हो जाता है तो ऐसी प्रचण्ड महाशक्ति उदय होती है जो 'एक जीवन' तक की समय सीमा कुछ मानती ही नहीं है॥ जब सात्विक अहंकार की महाशक्ति जागेगी और आप किसी को पूछेंगे 'अगर आप नहीं कर पाए तो क्या होगा'? तो सम्भव है वह यह कहे 'इस जन्म में न?', अब आपको उत्तर मिल गया यदि उसने कहा 'इस जन्म में न? तो उसने उत्तर दे दिया॥ अर्थात समय सीमाएँ समाप्त हैं॥ अब बात जीवात्मा की यात्रा की है॥

प्राचीन भारतीय मनीषा का सौन्दर्य यही है जो न केवल और केवल सनातन सत्य है अपितु अपने सनातन सत्य के आलोक में उन्हें भी प्रेरित कर जाता है जो अभी उस सत्य के दर्शन नहीं भी कर पाए अर्थात आत्म साक्षात्कार नहीं भी हुआ तो भी अनेकों समर्पित होकर, उस सत्य को आत्मसात करके अपना जीवन आगे बढ़ा देते हैं॥ सात्विक अहंकार की महाशक्ति का उदय स्वत: होता है उसमें कुछ करने की आवश्यकता नहीं है, केवल अस्तित्व को स्पष्ट करने की आवश्यकता है 'मैं क्या हूँ?' इसे टोटलने की आवश्यकता है॥ कौन हूँ मैं ? क्या हूँ मैं? और 'क्या हूँ मैं' यदि कोई उद्देश्य बन जाए यदि आपका अस्तित्व कोई बड़ा उद्देश्य बन जाए तो आप विष्णुगुप्त जैसे महा ऋषि बन जाएँगे॥ जब आपका उद्देश्य आपका अस्तित्व बन जाए तो फिर आप ब्रह्म ऋषि बन जाएँगे, फिर आप में शिवत्व का अवतरण हो जाएगा॥

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