transcription Ashok Satyamev
'व्यवस्थित चिंतन' विचारों की शक्ति का आधार है।
व्यवस्थित चिंतन 'उपासना' और 'साधना' का परिणाम है।
उपासना = जप ध्यान ईत्यादि।
साधना = मनन आत्मावलोकन आत्मदर्शन आत्म परिष्कार यह साधना है।
मनोमय कोष विचारों का कोष है।
मनोमय कोष की साधना के अन्तर्गत प्राचीन भारतीय मनीषा का प्रकाश में हम यह जानने की चेष्टा कर रहे हैं कि किस प्रकार 'व्यवस्थित चिंतन' को स्थापित किया जाए जिससे हमारे विचारों में शक्ति जन्म ले॥
श्रीमद भगवद गीता के प्रथम श्लोक के गहरे और विस्तृत प्रकाश को अभी तक साँझा किया गया है कि उसकी पृष्ठभूमि क्या है॥ श्लोक संवाद किसके मध्य में है, कौन कहाँ खड़ा होकर श्लोक को अनुभव कर रहा है॥ समस्त पृष्ठभूमि गत 2 सत्संग में साँझी की गई है॥ अब आज अवसर है, उस श्लोक के शब्दों के द्वारा उस व्यायाम को जानने का जिसके द्वारा आत्म अवलोकन हेतु, आत्म परिष्कार हेतु एक बहुत बड़ा मार्ग प्रशस्त होता है॥
श्लोक का पहला शब्द 'धर्मक्षेत्रे', दूसरा 'कुरुक्षेत्रे'॥ कुरुक्षेत्र शब्द पर पूर्व में प्रकाश दिया जा चुका है, कर्म का क्षेत्र The region of activity. धर्म का क्षेत्र क्या है? धर्म का क्षेत्र 'निर्धारित दायित्वों' का क्षेत्र है All of your mandatory obligations 'निर्धारित दायित्व' जिनकी पूर्त्ति किए बिना मनुष्य बच नहीं सकता॥ यहाँ तक कि ऐसे ब्रह्म योगी जो एक जीवन में आत्म साक्षात्कार प्राप्त कर जाते हैं, कई बार अपने कुछ कर्म बन्धनों का क्षय न करने के कारण, उन्हें पुन: उसी अवस्था में जागृत अवस्था में भी जन्म लेना पड़ता है॥ साक्षात्कार के उपरान्त भी, कोई दायित्व कहीं छूट गया, किसी का बन्धन अभी पूरा होना बाकी है, वे आते हैं॥ भले वे थोड़े समय के लिए आएँ या लम्बे समय के लिए, आते हैं, आकर के अपने हिस्से का योगदान करके चले जाते हैं॥ धर्मक्षेत्र दायित्व का क्षेत्र है; यह आपसे आशा है कि 'धर्म' शब्द केवल उतना नहीं जानना जितना हम उसे Religion के नाम से जानते हैं॥ रिलीजन शब्द धर्म के लिए नहीं है॥ वस्तुत: अंग्रेजी भाषा में धर्म के समतुल्य कोई शब्द नहीं है॥
धर्मक्षेत्र के साथ उस भाव को भी समझना होगा जहाँ हम किसी भी तत्त्व के मूल अस्तित्व का उल्लेख करते हैं जैसे अग्नि का धर्म जलाना पानी का धर्म गलाना, वायु का धर्म सुखाना ईत्यादि॥ धर्म अर्थात् जो उस तत्व का मूल अस्तित्व है॥
उसी प्रकार मनुष्य के रूप मे अवतरित होकर के मनुष्य के निर्धारित दायित्व हैं॥ प्राचीन मनीषा भारतीय की पद्धति है: चार आश्रम और 4 महापुरुषार्थ॥ आयु के अनुकूल:
⇒ 4 आश्रम - 1) ब्रह्मचर्य 2) गृहस्थ 3) वानप्रस्थ और 4) सन्यास॥ (काल के अनुरूप उसमें कुछ परिवर्तन आया है)
⇒ 4 महापुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष
यह एक-एक अपने आप में बड़ा विस्तृत है, केवल उतना नहीं जितना हम जान पाए॥ प्रत्येक जीव इन 4 आश्रमों में इन 4 महापुरुषार्थ को सिद्ध करने इस पृथ्वी पर आया है और यही उसके धर्म का क्षेत्र है The Realm of Dharma. धर्म की पूरी परिधि क्या है What is the periphery? यह जानना हो तो धर्म शब्द को बड़े विस्तृत प्रकाश में जानो जिसमें पहला है मूल अस्तित्व - किसी भी तत्त्व का मूल अस्तित्व, उसी प्रकार मनुष्य का मूल अस्तित्व॥ 4 आश्रम 4 धर्म ये पूरे करने हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष॥ नई स्थापनाएँ करनी है, नए प्रकार की जितनी भी उपलब्धियाँ हैं उन्हें अर्जित करना है, कला-कौशल या विज्ञान हो, समस्त काम के क्षेत्र में आता है॥ अपनी ओर से पुष्टिकारक बनना है, पुष्टि जहाँ कहीं भी सम्भव है प्रदान करनी है, पोषण जहाँ भी सम्भव है देना है, एक पोषक तत्त्व के द्वारा॥ अर्थ और धर्म के अन्तर्गत वे सारे दायित्व आ जाते हैं॥ मूलत: धर्म का निर्वाह करते हुए यह सब साथ-साथ चलता है॥
मोक्ष क्या है?
अनासक्त भाव वैराग्य भाव के द्वारा नित्य अनित्य का भेद करते-करते इस जन्म मरण के चक्र से छूट जाना अर्थात उत्तरोत्तर प्रगति प्राप्त करते-करते प्रगति के चरम को The zenith of accomplishment उसे प्राप्त हो जाना॥
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष - इनमें धर्म सर्वोपरि है॥ धर्म के बिना, अपने दायित्व के निर्वहन के बिना मुक्ति नहीं है, अर्थ का निर्वहन भी नहीं है, काम का निर्वहन भी नहीं है॥ आयु अनुरूप प्रत्येक जीव के लिए 4 महापुरुषार्थ हैं - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष॥ कल एक माँ ने मुझसे पूछा 12 वर्ष के बच्चे को उसका दायित्व कैसे समझाएँ? तो उसे यही कहा था आयु अनुरूप अपने प्रति, अपनों के प्रति, जगत के प्रति जो भी दायित्व समझते हो, वही उसका दायित्व है॥ उसी के अनुसार हमारे यहाँ ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और सन्यास आश्रमों की व्यवस्था की गई है॥ वानप्रस्थ और सन्यास आपस में घुल गए, वर्तमान में आपस में मिल गए हैं॥ बल्कि सत्य तो यह है कि यदि प्राचीन भारतीय मनीषा के गहन प्रकाश में जाएँ तो ये चारों आश्रम प्रत्येक जीव अपनी आयु में सतत जी सकता है॥ वह गृहस्थ होते हुए भी ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ अथवा सन्यास आश्रम का पालन 'यथाक्षमता' (यह शब्द बहुत आवश्यक है) यथाक्षमता कर सकता है॥
धृतराष्ट्र भले ही वह अन्धा हो गया है अनधिकृत चेष्टा के लिए, He wants to usurp the rights of others, with malefic intentions. भले ही वह अन्धा हो गया, वह अधर्म पर आरूढ़ है फिर भी धर्म की पताका ऊपर रखने के लिए, केशव वाणी ने धृतराष्ट्र के मुँह से भी निकलवाया, उससे कहलवाया पूछ - "धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे"
जो होना चाहिए, जो निर्धारित दायित्वों का क्षेत्र, और जो हो रहा है - What all must happen and what all is actually happening दोनों में क्या अन्तर है? बहुत बड़ा अन्तर है॥ जो होना चाहिए और जो होता है, दोनों में कितना बड़ा अन्तर है॥ अपने आसपास देखें अथवा आसपास छोड़कर अपने आप में देखें तो क्या हम नहीं जानते कि हमारे भीतर हमारे द्वारा क्या क्या होना चाहिए और क्या क्या हो पाता है? है न अन्तर? कितना बड़ा भेद है॥ क्या होना चाहिए, क्या वस्तुत: हो पाता है, कितना बड़ा अन्तर है॥ यही धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र है॥ भेद है, दोनों में भेद है, जो होना है और जो वस्तुत: हो पा रहा है; इन दोनों के बीच का भेद, मनुष्य को आत्म-अवलोकन आत्मदर्शन के द्वारा ही प्राप्त होता है Unless you interiorise, analyse, introspect, how do you understand the region of mandatory obligations and actual dispensation? जो करने योग्य है और जो हो रहा है उन दोनों का भेद समझना आवश्यक है॥
इसीलिए उन्होंने पूछा, किससे पूछा? संजय, वह जो निष्पक्ष है जो कभी मिलावट नहीं करेगा॥ वह जिससे कभी आशा नहीं कर सकते कि वह कभी कोई bias कर देगा, वह जिसे तुम खरीद नहीं सकते॥ तुम उसे पैसे देकर मनमानी बात भीतर नहीं उपजा सकते, वह हर स्थिति में वही कहेगा जो उसे कहना है॥ वह कभी भी गलत नहीं बोलेगा मिक्स नहीं करेगा॥ वह आपके द्वारा प्रेरित नहीं है, prompted sponsored नहीं है॥ वह सदैव जिसकी विजय होगी, वह अन्त:करण, 'जागृत अन्त:करण' उसे कहा गया है 'संजय'॥ उससे पूछा गया है यह जो धर्म का क्षेत्र है यह जो कर्म का क्षेत्र है इसमें क्या हो रहा है॥ अभी पूछने का ढंग थोड़ा और विस्तार प्राप्त करेगा॥ अभी तो केवल धर्म का क्षेत्र क्या, किसे जानें, कर्म का क्षेत्र क्या, किसे जानें, इसकी मोटी व्याख्या है॥ कल इस श्लोक के प्रकाश में हम और अधिक जानने की चेष्टा भी करेंगे॥