प्राणों का मनःस्थिति पर अधिकार

प्राणों का मनःस्थिति पर अधिकार

प्राण का खेल मनुष्य की आन्तरिक स्थिरता के साथ बहुत अन्यान्योश्रित interdependent है॥ अस्थिर प्राण मनुष्य को स्थिर नहीं रहने देता॥ मानसिक स्तर पर जीव स्थिर हो ही नहीं पाएगा, यदि प्राण अस्थिर है॥ प्राण और मन का बहुत गहरा सम्बन्ध है॥ शरीर का तो है ही इसमें कोई सन्देह नहीं हेै कि शरीर का सम्बन्ध प्राण से नहीं है॥ शरीर का सम्बन्ध तो हर प्रकार से प्राण के साथ है पर मन के साथ प्राण का सम्बन्ध बहुत गहरा है॥ मन की स्थिरता प्राण की अस्थिरता से दुष्प्रभावित हो जाती है॥ स्थिर प्राण और स्थिर मन दोनों एक ही सिक्के के दो पक्ष हैं॥ मन स्थिर है तो प्राण स्थिर होगा, प्राण स्थिर है तो मन स्थिर होगा, दोनों एक ही मानो, एक ही जानो॥ ये निस्सन्देह अलग हैं, पर एक ही जानो॥

प्राण की स्थिरता ब्रह्म मुहूर्त्त के ध्यान से बहुत बड़े अंशों में होती है॥ दिन भर में हम जीवन की जितनी गतिविधियाँ करते हैं उन अनेक गतिविधियों से हम प्राण को अस्थिर करते हैं॥ चिन्ता, अकल्पनीय विषयों पर मनन जिसे अचिंत्य चिंतनम् कहते हैं ईत्यादि; ये सारे विषय प्राण को अस्थिर करते हैं जिसके फलस्वरूप प्राण अस्थिर बना रहता है, यहाँ तक कि निद्रा में भी प्राण अस्थिर बना रहता है॥ ध्यान के अन्तर्गत एक अनजाने स्वरूप में प्राण स्थिर होता है, मन स्थिर होता है॥ प्राण और मन ध्यान की अवधि में स्थिर होने के कारण मनुष्य को अपने शरीर पर भी उसका प्रभाव अनुभव होता है॥ अत: इस ध्यान की बेला को तुम प्राण और मन इन दोनों की स्थिरता की बेला भी जानो॥

योगी इसी ध्यान के माध्यम से धीरे-धीरे प्राण के द्वारा मन को उन स्तरों तक परिष्कृत कर लेता है कि मन विलय होने को तत्पर हो जाए, मन बचे ही नहीं; और वह प्राण की स्थिरता से ही करता है॥ प्राण की स्थिरता का महत्त्व न होता तो महामन्त्र का नाम गायत्री न होता॥ गय अर्थात् प्राण, यह प्राण का ही महत्त्व है कि महामन्त्र को भी प्राण के नाम से सम्बोधित किया 'गायत्री - प्राणों की रक्षा करने वाली'॥ यह एक ऐसा सूक्ष्म अस्तित्व है जो स्वत: भीतर घटता है, साधक को बाहर इतना बोध नहीं होता॥ किन्तु ज्यों-ज्यों साधना में आगे बढ़ो, इस विश्लेषण पर भी कुछ ज्ञान होना आवश्यक है॥ जिससे पता लगे कि मेरे भीतर क्या, किस प्रकार, घट रहा है॥ उससे उसे करने की तत्परता बढ़ती है, अभिरुचियाँ जागती हैं॥ विषय को जितना समझ लो, जान लो, अभिरुचियाँ उतना आगे बढ़ना आरम्भ करती हैं; फिर मनुष्य अपनी चेष्टाओं में और बल लगाता है॥ अत: ध्यान की बेला को प्राण और मन की स्थिरता की बेला जानो॥

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