“अलख निरंजन”, गुरु गोरक्षनाथ जी के यह शब्द हैं

“अलख निरंजन”, गुरु गोरक्षनाथ जी के यह शब्द हैं

“अलख निरंजन”, गुरु गोरक्षनाथ जी के यह शब्द हैं “अलख निरंजन”। यूँ तो लक्ष्य शब्द का अर्थ समझते हो ना, अर्थात उद्देश्य और उसीमें आप ‘अ ‘ जोड़ दो तो अलक्ष्य, अ, ल आधा क्ष  और य =  अलक्ष्य है।  यही शब्द  जो अपभ्रंष हो गया Distort  हो गया और अलक्ष्य बन गया अलख।  निरंजन शब्द तो वैसा ही रहा।  उसी प्रकार नाम गोरक्ष का हो गया ‘गोरख’, नाथ संप्रदाय जिस ब्रह्म ऋषि के माध्यम से आरंभ हुआ। गोरक्ष शब्द का तात्पर्य क्या है ? “गो” शब्द कहते हैं प्राण को और रक्ष - रक्षण अर्थात रक्षा करने वाला। प्राण वही है जिसकी आप  नित्य प्रति ध्यान में कल्पना करते हो प्रकाश रूप में और अनुभव करते हो  स्पंदन झनझनाहट के रूप में … गोरक्ष अर्थात जो प्राण की रक्षा कर सकें, सही नाम है गोरक्षनाथ और जब जन सामान्य के द्वारा नहीं बोला गया तो वह बन गया गोरखनाथ।  यहां तक हुआ कि जो बात मनुष्य की समझ में नहीं आए उसे भीकहा जाने लगा ‘गोरख धंधा’. 


 ऐसा इसलिए हुआ चूँकि गोरक्षनाथ जी अध्यात्म की चेतना के बहुत बड़े वैज्ञानिक थे। कहते हैं की वह अब से लगभग  हजार 1 वर्ष पूर्व हुए और उन्होंने चेतना विज्ञान के बहुत बड़े बड़े अनुसंधान और चमत्कार करके दिखाएं। उनकी बातें सामान्य व्यक्ति की समझ से परे की थी इसलिए जिस किसी को जो कुछ भी समझ में कभी नहीं आया उसने कहना आरंभ कर दिया “पता नहीं यह सब क्या है कुछ गोरख धंधा है। अर्थात जो समझ में ना आए वह गोरखधंधा हो गया। अलख निरञ्जन (अलक्ष्य निरञ्जन)शब्द उन्हीं का उद्घोष है। 


लक्ष्य तो सामान्य शब्द है, हालांकि संस्कृत में एक एक शब्द के अनेक अर्थ और किसी किसी शब्द के 80 अर्थ भी निकलते हैं। लक्ष्य माने उद्देश्य अर्थात जिसकी आप कल्पना कर सकते हैं जिसकी आप अवधारणा कर सको (something one can think and contemplate upon) जो तुम्हारी सोच में आ सके जो तुम्हारी सोच से परे हो जिसको किसी सीमा में बांध ही न सको, सीमा न नाम की ना रूप की न आयु की अर्थात जिसका अस्तित्व की सीमा ही नहीं हो। जो कण कण  में है, रोम रोम में है, अनादि - अजन्मा नित्य है, सभी का स्त्रोत है, वही ब्रह्म वही स्त्रोत अलक्ष्य है। एक प्रकार से उस ब्रह्म के स्वरूप के उल्लेख का एक प्रकार से एक पर्यायवाची snonym शब्द है। 


अलक्ष्य निरञ्जन बन गया अलख निरंजन और ऐसा इसलिए चूँकि काल के प्रभाव से भाषा पर अधिकार धीरे-धीरे जाता रहा इसलिए स्वर्णप्रस्था का बन गया सोनीपत पर पर्णप्रस्थ का बन गया पानीपत कर्णप्रस्थ का बन गया करनाल इत्यादि। इस प्रकार शब्द अपभ्रंश होते चले गए उसी तरह गोरक्षनाथ का गोरख और अलक्ष्य का अलख। 


निरंजन शब्द का मर्म है जो पूर्ण पवित्र है, जो दोष रहित है, जो विकार रहित है उसमें किसी प्रकार का कोई अधिकार नहीं विकार होगा तो कुछ करोगे तोड़ोगे मरोड़ोगे और कुछ का कुछ बनाने की चेष्टा करोगे अर्थात अगर कोई विकार उसमे मिला सकोगे तभी तो उसमे कुछ परिवर्तन कर पाओगे। जब कोई विकार ही नहीं तो उसका क्या करोगे। सोने का आभूषण बनाने के लिए विकार की आवश्यकता पड़ती है दोष की खोट की आवश्यकता पड़ती है।  यह मात्र एक उदाहरण है जबकि उस ब्रह्म तत्व में जो सोच से परे, रूप - राम जन्म की सीमाओं से परे है गुण कर्म इत्यादि के चक्र से परे है उसको बदला नहीं जा सकता जो अनछुआ है। वह जिसमें कोई परिवर्तन नहीं। 

उसके द्वारा सब उत्पन्न होते हुए हैं वह सभी का स्त्रोत होते हुए भी स्वयं निष्प्रभावित अर्थात बिल्कुल प्रभावित नहीं है।  विवर्त उपादान के सिद्धांत पर ज्ञानी कहते हैं उससे उत्पन्न सभी कुछ है, पर वह अपने द्वारा उत्पन्न दोष विकार से विकृत प्रभावित दुष्प्रभावित नहीं होता है, क्योंकि वह पूर्ण पवित्र है। 



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