हे अर्जुन ह्रदय कि दुर्बलता को त्याग दे, चूँकि दुर्बलता विचारों में चली जाती है, कल्पनाओं में चली जाती है । भीतर की प्रचंड शक्ति को आधार बना, और दुर्बलता को त्याग दो। दुर्बलता से विमुख होकर भीतर शक्ति की और मुख करके खड़े हो जाओ। तभी जीवन उत्कर्ष को प्राप्त होगा। किसी भी प्रकार की दुर्बलता से किसी का कल्याण नहीं होता है अपितु शक्ति का ह्रास होता है, क्षय होता है। जबकि भीतर का आत्म विश्वास सबलता देता है, सामर्थ्य देता है, क्षमताओं को जागृत करता है। अतः कालहीन अर्जुन हृदय की दुर्बलता को त्याग दे ।तुझे ही त्यागना होगा, तेरे ही भीतर वह सूर्य उपस्थित है, तेरे ही भीतर कृष्ण उपस्थित है, महादेव उपस्थित है। तुझे अपने भीतर के महादेव को, कृष्ण को अवसर देना है। तू सक्षम है, सबल है, तेरा अवसर अब आ चुका है।
तेरा अवसर इस कारण आ चुका है चूँकि अध्यात्म की और तेरे कदम उठ गये हैं, अन्यथा इस आत्मोत्कर्ष के पथ पर गलती से भी कदम नहीं उठते, उठते भी तो एक कदम आगे जाता है तो 10 पीछे आते हैं, यह माया का प्रभाव है। अध्यात्मिक विषय में अभिरुचि का जन्म लेना यह महामाया की जीवात्मा पर अनुकंपा है। ईश्वर के विधान में यह व्यवस्था बन गई है कि जिसकी आध्यात्मिक अभिवृत्ति जाग चुकी है, आध्यात्मिक कहा - धार्मिक नहीं चूँकि धार्मिकता से तो यात्रा केवल आरम्भ होती है। आध्यात्मिक साधनाओं के प्रति, तप के प्रति जिसकी वृत्ति जाग गई तो जानो की महामाया की अनुकंपा उसपर हो चुकी हैं, अब उत्कर्ष यह उसका विधान बन गया हैं। अब शेष उसके हाथ में है कि वह कितनी तीव्रता से आगे बढ़ता है।
हे अर्जुन, हृदय की दुर्बलता त्याग अपनी प्रचंड शक्ति से जीवन रूपी परिवेश में अपनी सीमाओं में पूरे विश्वास के साथ आगे बढ़। प्रतिकूलता तो यहां पलपल पर है। यह जान की तू कहां है ? तू कहां है? है भी की नहीं है, अगर है तो परिचय दे,! परिचय दे ! डर-डर के मरना नहीं है। मरना तो विश्वास से है।यहां मरने का तात्पर्य क्या है? सांसों में जीवन को सजगता पूरित हो कर जीना। चूँकि ऐसे तो हर एक श्वास मृत्यु है, हर जाती हुई श्वास मृत्यु है। आती श्वास नया जन्म है। तो श्वासो मे नहीं मरना अपितु जीना है विश्वास के साथ।