सात्विक सेवक का उल्लेख अध्यात्म जगत में बहुत बड़े स्तर पर आया है। स्वाध्याय सत्संग और सेवा, उपासना साधना और आराधना। आराधना, सेवा उपासना किसकी? उपासना उस ईश्वर की, अपने भीतर अवस्थित उस ईश्वर के तत्व की। और साधना अपनी क्षमताओं के विकास की। इस पूरे विषय पर एक विस्तृत रिकॉर्डिंग भी चैनल पर उपलब्ध है। अतः साधना अपनी, जो तथ्य - बोध उपासना में प्राप्त हुआ उसी पर जीवन को आगे साधना है। साधना 24 घंटे की होती है, उपासना तो कुछ देर बैठ कर की जाती है और आराधना किस की ? आराधना करनी है क्या ईश्वर की ? नहीं ईश्वर अपनी आराधना कराने के लिए नहीं बैठा हुआ है। तो फिर आराधना किस की, आराधना ईश्वर के विराट रूप की, और ईश्वर का विराट रूप है यह पूरा संसार।
साधक ध्यान दो की जो तुम्हें उपासना में क्षमताएं प्राप्त हो बोध प्राप्त हो साधना से जिसे हम विकसित करें उसका अनुवाद उसका अवतरण क्रिया रूप में "सेवा के माध्यम से अर्थात आराधना के माध्यम से संभव हो। आत्मनों मोक्षार्थ की प्राप्ति के लिए जगत की सेवाएं। यह सेवा बहुत बड़ा क्षेत्र है। इस सेवा के लिए हमारे यहां ही केवल नहीं, बल्कि विश्व भर में जितनी भी आस्था हैं उन सभी में उल्लेख है कि सेवा के द्वारा मनुष्य को उत्कर्ष प्राप्त होता है। सेवा के द्वारा उत्कर्ष प्राप्त होता है यह तथ्य सुनिश्चित है।
सेवा मनुष्य के भीतर की संकीर्णता को समाप्त करती है। मनुष्य के भीतर के इस विचित्र मानस को अंग्रेजी में Promiscuity अर्थात संकीर्णता कहते हैं। मनुष्य के भीतर की संकीर्णता मनुष्य को बांध कर रखती है, वह उसकी क्षमताओं को बांध कर रखती है। मनुष्य के दोष, उसके विकारों को बनाए रखती हैं। यह संकीर्णता उसे जीवन में आगे की प्रगति प्राप्त नहीं करने देती। इसलिए परम आवश्यक है की संकीर्णता से मुक्ति प्राप्त हो और मुट्ठी खुले। मुट्ठी खोले बिना बंदर मटके में से हाथ बाहर नहीं ला पाएगा। चने तो मटका उड़ेल कर भी लिए जा सकते हैं। इसलिए आवश्यक है की जीव अपनी मुट्ठी खोल दे। संकीर्णता का त्याग करना अपने भीतर के विकार दोष से मुक्ति प्राप्त कर अपने कटे-बटें सीमित से स्वरूप से मुक्त होकर विस्तार एवं व्याप्ति को प्राप्त करना है। इसलिए सेवा आवश्यक है। और वह सेवा भी पूर्ण सात्विक मन से होनी चाहिए। सेवा राजसिक भी होती है। मैं कहीं सेवा करते हुए दिख जाऊं यह राजसिक सेवा है। सेवा तामसिक भी है, मैं सेवा करूं पर भीतर ही भीतर घात लगा कर कुछ बिगाड़ कर दूं।
इसका उल्लेख श्रीमद भगवत गीता में आया है। सेवा सात्विक, राजसिक और तामसिक तीनों हैं। हमें सात्विक सेवा की बात करनी है राजसिक और तामसिक सेवा कर्म बंधन है, वह बजाए कल्याण के पुण्य अर्जन के, राजसिक और तामसिक सेवा बंधन है, कर्म बंधन है। उससे हमें मुक्त होना है। इसलिए सात्विक सेवा, सात्विक माने जब सेवा अर्पित हो तो कल्याण का भाव साथ में जुटा रहे। कल्याण का भाव साथ-साथ जुटा होना आवश्यक है, इसलिए उस कल्याण भाव को साथ में जोड़ कर की गई सेवा आत्मा को मोक्ष अर्थात जगत हितायच का वह सेवा साधन है बाबू। यह बात गंभीरता से अपने भीतर सदा सर्वदा के लिए धारण कर लो कि जीवन में सेवा का पुट आत्म उत्कर्ष के लिए बहुत आवश्यक है। आत्म उत्कर्ष जिसका उद्देश्य नहीं भी है। जो केवल लौकिक सफलता ही चाहते हैं उनके लिए भी मैंने इस बात का उल्लेख सैकड़ों वीडियो में किया है और मैं उसे पुनः करूंगा। चूँकि संदेश बड़ा गहरा है।
मेरे ब्रह्म ऋषि 40 से 50 एक ही स्थान पर रहने के उपरांत वहां के सारे विकसित तंत्र को जीवन भर के लिए त्याग करके सदा सर्वदा के लिए जा रहे थे। वह उसके उपरांत वहां कभी वापस नहीं गए। कभी उस नगर से निकले भी तो वह ट्रैन में थे और ट्रेन स्टेशन को पार कर गई, पर उनके पैर उस नगर की धरती पर नहीं गए। उसके उपरांत 20 वर्ष उनका शरीर रहा। उनके चलते समय जिस जीव को वहां का दायित्व संभलवाया गया उसने कहा कि गुरुदेव आप जब तक थे तब तक तो यहां दुनिया आती थी आपके आशीर्वाद से लाखों लाखों लोगों जीवन बदल गए। आप तो ब्रह्मर्षि हैं, हिमालय वासी हैं आपके जाने के बाद इस पूरे उपक्रम को चलाने के लिए साधन कहाँ से आएंगे। (साधक इस दिए जा रहे उदाहरण को केवल धर्म क्षेत्र तक सीमित नहीं मानना, यह उदाहरण बिलकुल सटीक रूप से तुम्हारे बिजनेस में, तुम्हारी जॉब में, तुम्हारी नेटवर्किंग में, तुम्हारी पॉलिटिक्स में कहीं भी इसके अकाट्य सूत्र को प्रयोग करते हुए सफलता प्राप्त कर सकते हैं )
उस समर्पित जीव का ब्रह्म ऋषि के समक्ष मूल भाव यह था कि आश्रम के खर्चे अब मैं कैसे पूरे करूंगा मेरे पास तो क्षमता नहीं जो मैं किसी को भी आशीर्वाद दे दूं, मुझ पर कौन विश्वास करेगा। ब्रह्म ऋषि ने उस समर्पित की आशंका समाप्त करते हुए कहा, “तुझे कभी कोई कमी नहीं आएगी मैं एक मंत्र दे रहा हूँ, उस मंत्र का अगर तुमने पालन किया तो तुम्हें कभी कोई कमी नहीं आएगी”. ब्रह्म ऋषि उनके कान में बताते हैं, “अपने प्रति श्रद्धा पैदा करना” - “अपने प्रति श्रद्धा पैदा करना” - “अपने प्रति श्रद्धा पैदा करना”।अपने प्रति श्रद्धा पैदा करोगे जो सब कुछ चाहिए वह चलकर स्वयं तुम्हारे पास आएगा। और उस जीव ने (यह सत्य है जीव उसके उपरांत मैं अनुमान करता हूं कि लगभग उनके जाने के उपरांत वह 10 वर्ष के लगभग जिए ) वही अक्षरशः किया, जो उनके ब्रह्म ऋषि ने कहा। हमारे ब्रह्म ऋषि ने कहा अपने प्रति श्रद्धा पैदा करो। श्रद्धा कैसे पैदा होगी संकीर्णता से नहीं, आडंबर रच के लोगों को ऐसे ऐसे हाथ हिला हिला कर के धर्म का बाना केवल पहनकर के आप लोगों को बहका सकते हो और वह भीड़ फिर आपकी सगी नहीं है। वह भीड़ आपकी सगी नहीं है। अगर आपकी आत्मा से किसी के कल्याण के लिए भाव उदय नहीं हुए तो जो भी सामने है वह भी आपका उतना सगा नहीं है। हां अगर सामने वाले समर्पित की श्रद्धा सत्य है तो उसका कल्याण अवश्य हो जाएगा। पर आपका कुछ बनने वाला नहीं है। पत्थर बटोर भी लोगे तो भी किसी काम नहीं आएंगे। अपने प्रति श्रद्धा पैदा करना और श्रद्धा बिना सात्विक सेवा के जन्म नहीं ले सकती।
सात्विक स्वरूप में की गई सेवा ही श्रद्धा उत्पन्न करती है। सात्विक स्वरूप में की गई सेवा ही मनुष्य की संकीर्णता को समाप्त करती है। और सात्विक सेवा ही मनुष्य के भीतर की क्षमताओं को उभारती जागृत करती है। मान लो की कोई बहुत क्षमता से पूरित जीव अपने पूर्व जन्म से ही बहुत प्रतिभावान हो पर भीतर से सच्चा सेवाभावी नहीं हो तो क्या होगा? जितना वह ले कर आया था, उतनी क्षमता भर से अपना जीवन जी करके चला जाएगा। वहीँ उसके अनुपात में दूसरा जीव जिसके भीतर क्षमताएं बहुत कम है पर बहुत सात्विक सेवाभावी है, यह दूसरा जीव अपने जीवन में बहुत बड़े अंशों का आत्म उत्कर्ष, अपनी क्षमताएं विकसित करता हुआ जाएगा। यह तथ्य सुनिश्चित है, इसमें कोई संदेह मत करना। जो समर्पित सेवा भावी नहीं है वह उतना भर रह जाएगा और दूसरा जो सेवाभावी समर्पित है वह पता नहीं कितना भर बटोर कर ले जाएगा।
इसलिए सेवा बहुत बड़ा क्षेत्र है सेवा का पुण्य किसी अन्य जन्म में मिलता है कि नहीं मिलता है पर इस वर्तमान जीवन में उसके दर्शन करने हो तो सात्विक सेवा के द्वारा अपने भीतर एक बार एक विस्तार, एक व्यापकता, एक अद्भुत गुणवत्ता से पूरित उत्पादक क्षमता के रूप में तुम कर सकते हो अद्भुत गुणवत्ता से पूरित उत्पादक क्षमता Productivity borne with excellence of highest order. इतनी गुणवत्ता से पूरित उत्पादक क्षमता को तुम प्राप्त कर जाओगे इसमें कोई संदेह नहीं है। इसलिए सात्विक सेवा महत्वपूर्ण विषय है उन सभी के लिए जो साधना में उत्कृष्ट चाहता है। उन्हें जीवन में सात्विक सेवा को कुछ न कुछ स्थान अवश्य देना चाहिए। जिसे गुरु सेवा भी कहा जाता था, जिसका बाद में अनाधिकृत रूप से लोगों ने श्रद्धावानों का दोहन किया। ऐसा अनर्थ करने वालों के हिस्से पाप कर्म आया। गुरु सेवा किसी शरीर की सेवा नहीं अपितु उद्देश्य की सेवा, लक्ष्य की सेवा है। उस उद्देश्य की सेवा, जिस लक्ष्य के लिए गुरु समर्पित हो, उसके भाव समर्पित उसका जीवन समर्पित हो, उसी उद्देश्य को निरंतर आगे बढ़ाना उत्कर्ष देना इससे बड़ी गुरसेवा क्या हो सकती है। बाग के मालिक की आराधना नहीं बाग की आराधना करनी है। बाग की सेवा करनी है, बाग के मालिक के पैर नहीं दबाने हैं, यह गुरु सेवा है। इस
जीवन में किसी न किसी अंश में सात्विक सेवा लाओगे तो देखोगे कि उत्कर्ष कितने बड़े स्तर को प्राप्त होता है। सात्विक राजसिक सेवा के पत्ते कुछ दिनों में खुल जाते हैं। तामसिक का तो पता ही चल जाता है, पर हाँ राजसिक सेवा कुछ दिन छिपी रहती है। पर कितने दिन मंशा छिपेगी। पानी पड़ते रंग उतर जाता है की यह सात्विक सेवा नहीं, यह तो कोई और मकसद है। इसलिए सात्विक सेवा हृदय की गहराई से समझना, समझे बाबू।