आदि गुरु शंकराचार्य जी द्वारा रचित आत्मबोध श्लोक नंबर 19...
आदि गुरु कहते हैं आत्मा पर इंद्रियों की सत्ता इतनी होती है,उसका आवरण इतना सशक्त है की आत्मा अपने आप को इंद्रिया हीं मान लेती है। सच भी ये है... अभी भी मैं आपसे कहूं कि आप कौन हो तो क्या आप अपने आप को आत्मा कह सकते हो, आपको क्यों मैं अपने आपको पूछता हूं तो भी क्या मैं कह सकता हूं कि मैं आत्मा हूं.. नहीं.. यह भी कहेंगे हम फलाना फलाना मेरा नाम है यह मेरी पहचान है,, जो कुछ बाहरी रूप में अभी तक जिया है उसी को आते तो और और पहचान मानकर ही बताएंगे... पर आदिगुरु कहते हैं कि ऐसा नहीं... जब बादल चल रहे हो रात्रि में और चांद की और आप देखो तो कई बार यह भ्रम होने लगता है के चांद चल रहा है.. वह तो स्थिर है.. जब बादल उसके सामने से जा रहे हो... तो कई बार वह चलता हुआ था प्रतीत होता है... चल तो बादल रहे हैं पर आरोपित बादलों ने एक भ्रम उत्पन्न किया कि चंद्र ही चल रहा है.... आत्मा के साथ भी ऐसा ही है. आत्मा तो शांत है,,,अजन्मा, अचल है... व्याप्त है पर उसके आस पास इन आवरणों ने... पंचकोशी इंद्रियां इत्यादि कहे इन्होंने एक ऐसा खेल रचा दिया ,लगता है जैसे आत्मा ही चल रही है आत्मा ही अनुभव कर रही है आत्मा ही भोग भोग रही है। सुख दुख आत्मा को ही प्राप्त हो रहे हैं।ऐसा प्रतीत होता है। जबकि सत्य तो यह है कि भ्रम छलावा इतना सशक्त होता है कि जीव उसी को सत्य मानने लगता है,यही माया है।आत्मा पर आए आवरण इतने प्रबल है कि उसके छलावे को सत्य मानते है। श्लोक पर आते हैं । आदि गुरु श्लोक के माध्यम से कहते हैं...
व्याप्तेषु (कार्यरत होते हुए) इन्द्रियेषु आत्मा व्यापारी (सक्रिय) इव अविवेकिनम, दृश्यते (प्रतीत होता) अभ्रेषु (बादल) धावत्सु (चलते हुए) धावन (दौड़ता) इव यथा शशी (जैसे साथ में चन्द्र) - 19
व्याप्तेषु....अर्थात जब कार्यरत होती है यह सब इंद्रियां तब लगता है कि आत्मा ही सक्रिय हो गई है। व्यापारी शब्द यहां सक्रियता के लिए प्रयोग किया गया।
अविवेकीनम....अविवेकी होने से चुकी अभी हम अज्ञानता में है। इसलिए ऐसी प्रतीति होता है की यही तो आत्मा है...और क्या है.? .किसने देखी?अनादि अजन्मा.. आदमी बड़ा होता है. मर जाता है, चला जाता है ।
अभेषु धावत्सु.... जैसे बादल चलते हुए चंद्र ही चल रहा है... और बादलों की गति उसको भी चलने का आभास करा देती है.. यह भ्रम हो जाता है.. यही भ्रम अपने अस्तित्व के विषय में जीवात्मा को है .. जीवात्मा माने जिसके ऊपर आवरण पड़े हुए हैं.. अभी आप समझ गए होंगे कि आत्मा और जीवात्मा में क्या फर्क है... आत्मा वो जो अलक्ष्य पीछे हैं... जीवात्मा वह जो आवरण सहित है।
जीवात्मा को यह भ्रम होता है। इंद्रियां इत्यादि कहां इसके आगे बहुत कुछ है अंतःकरण भी है… इन सब की पकड़ बहुत मजबूत होती है। वह चाह कर भी जानने नहीं देती के पीछे कोई अजन्मा है जो दृष्टा है, निर्लिप्त है, वो जानने ही नहीं देती इतनी पकड़ माया की होती है,,, बादल कितने घनघोर काले आ जाते हैं कि पूरे दिन के समय में भी अंधकार छा जाता है.. यह उदाहरण मैंने अपने भीतर के सूर्य के अन्धकार के लिए दीया है,, इन्हीं को हटाना है... जिससे अंदर की आत्मा का दर्शन हो...