अहंकार की सात्विक महाशक्ति - भाग 3
भय Fear क्या होता है? कभी विचार किया है? विचार कर देखना जीवन का भय, अपनी अवस्था स्टेटस का भय, प्रगति का भय, प्रियजनों के प्रति भय, और कुछ नहीं तो अकारण का भय, आशंका uncertainty कोई स्वरूप हो, पर भय क्या है? किसको चुनौती देता है भय? आखिर किसके लिए? वह भय का भाव आकर के हमें चाटने लगता है, मूल में सोचना, किसके लिए? अस्तित्व के लिए!
'मैं' के अस्तित्व को दी गई चुनौती 'भय' है॥ उस 'मैं' का स्वरूप कुछ अन्य हो सकता है, वह 'मैं' सीधे मैं हो सकता है अथवा 'मेरा' हो सकता है॥ 'मैं' और 'मेरा', यह अहंकार की ही एक परिधि है अर्थात जो उसकी पूरी परिधि है उसमें 'मेरा' आ जाता है॥ मैं अन्दर, आसपास गोल दायरे में मेरा आकार हो गया, बीच में मैं बैठ गया तो 'मैं' और 'मेरा'॥ भय चाहे 'मैं' को सीधे हो या 'मेरे' को, मेरे अर्थात मेरे प्रियजन, मेरी प्रगति, मेरा स्टेटस, कुछ भी या सीधे मुझे भय हो, जीवन का भय हो, कुछ भी हो भय का कोई स्वरूप हो, वह 'मैं' और 'मेरे' पर ही आकर आक्रमण करता है॥ मूल खतरा किसको? अस्तित्व को होता है, 'अस्तित्व' अर्थात अहंकार॥ आत्मा को तो कोई खतरा नहीं हो सकता, जो अजन्मा है, जो अनादि है और जो ईश्वर का अंश है, जिसमें से कुछ भी न घटाया न बढ़ाया जा सके, उसे क्या खतरा है क्या अन्तर है ? कोई अन्तर नहीं है, तो फिर अन्तर किसे है? अन्तर है उस आत्मा के आसपास पड़े हुए आवरण को; खतरा किसे? आवरण को॥ आवरण अपना अस्तित्व छोड़ना नहीं चाहता इसलिए भय किसको? अहंकार को॥
विचार करके देखना जैसे-जैसे इस विषय पर विचार करते जाओगे तुम इससे और गहरे से जुड़ते और समझते जाओगे कि हाँ, यह सच है॥ आखिर भय at the end of the day किसे है? अस्तित्व को, अहंकार को ही भय है, उसके अतिरिक्त किसी और को नहीं॥ अहंकार चूँकि जीवात्मा का सबसे प्राथमिक सबसे निकट का अस्तित्व है, आवरण है cover है इसीलिए सबसे तेज गति से यदि कोई भाव यात्रा करता है तो वह भय करता है fear can travel in no time. भय को एक मार्ग तय करने के लिए, तुम्हारे भीतर प्रवेश पाने के लिए कोई समय नहीं चाहिए॥ बड़ी तीव्र गति से आकर के वह तुम्हारे गहराईओं में चला जाता है॥ विश्वास को तुम्हारी गहराईओं में पहुँचने के लिए वर्षों चाहिए॥ किसी अच्छे विषय की आस्था दृढ़ विश्वास को स्थापित करने में वर्षों चाहिए तो भी उसे चुनौती हो सकती है पर भय को? भय को कोई चुनौती नहीं, भय की स्थापना, भय के प्रभाव के लिए किसी की आवश्यकता नहीं है॥ वह स्वतन्त्र रूप से इतनी तीव्र गति से आपके भीतर यात्रा करता है कि सीधे जाकर के आक्रमण करता है आपकी आत्मा के आवरण पर; क्यों? क्योंकि वह आवरण आपके अहंकार का आपके अस्तित्व का है॥ आत्मा का तो कुछ नही कर सकते आप, आवरण का कर सकते हो॥ उदाहरण दे रहा हूँ हीरा किसी डब्बी में है डब्बी तो तोड़ दोगे हीरा आसानी से नहीं तोड़ सकते॥ हालांकि उदाहरण सटीक नहीं है फिर भी समझने के लिए पर्याप्त है॥ उसी प्रकार यह जो भय है यह आपके अस्तित्व की जो अनुभूति है, आभास है, जो बाहरी आवरण है उसे आकर के तत्काल चुनौती देता है॥ इसीलिए मनुष्य की जितनी भी ऊर्जा है energy है उसे सबसे तीव्र गति से बड़ी मात्रा में चाटने का काम भय करता है॥
उदाहरण है केवल समझाने के लिए कि मान लो तुम्हारे पास तुम्हारे भीतर 5 किलो ऊर्जा है यदि कोई भय का कारण जन्म ले गया तो चट से वह 4 किलो चाट जाएगा, एक क्षण लगेगा उसे चाटने में॥ क्यों? क्योंकि वह सीधे अस्तित्व पर प्रहार करता है॥ बाकी जितने भी भाव हैं उन्हें हमारे भीतर आने में, प्रवेश पाने में, स्थापना करने में बड़ा समय लगेगा॥ बुद्धि भी कई प्रकार के सकारात्मक भाव एवं विचारों को स्वीकार करने में बड़े संशय करती है, मन और बुद्धि दोनों बहुत तार-तार करते हैं॥ किन्तु भय को? भय के लिए तो सामान्यत: बुद्धि भी सामने से अपना बैरियर हटा देती है इसलिए कोई नहीं रोकता, कोई नहीं रोकता, मन तो पहले ही सहायता करने के लिए बैठा है॥
भय अर्थात अस्तित्व को चुनौती, वह चुनौती चाहे 'मैं' को हो या 'मेरे' को हो; यह 'मैं' को और 'मेरे' को दी गई चुनौती अर्थात मैं और मेरा दोनों, अहंकार ही तो हैं॥ 'अहंकार' वह वाला अहंकार नहीं जिसे हम दूसरों पर केवल लादने के रूप में जानते हैं॥ यहाँ वह 'अहंकार' है जो मूलत: अस्तित्व है 'अहं का आकार', isness, existence, अस्तित्व, उसी को चुनौती है; और जैसे ही चुनौती मिलती है तत्काल जीव तिलमिला जाता है और तिलमिला करके फिर वह कुछ नहीं देखता॥ हाँ, इसमें भेद हम कर सकते हैं कुछ reasonable concerns भी होते है कि हाँ इतना तो मनुष्य को सुरक्षा के लिए करना भी चाहिए, reasonable concern. चाहे वह reasonable concern हो या unreasonable concerns हों अर्थात व्यवहारिक हों या अव्यवहारिक हों, चुनौती हर प्रकार से अस्तित्व को ही है; जीवात्मा को नहीं है अस्तित्व को है॥ अस्तित्व खतरे में न पड़े इसलिए reasonable concerns या unreasonable concerns होते हैं॥ मैं मूल में एक ही बात समझाने की चेष्टा कर रहा हूँ, मैं भय को नहीं पढ़ा रहा हूँ, केवल एक ही विषय है वह क्या? कि मूल अस्तित्व जिसे हम अभी वर्तमान में अपना मानते हैं वह 'अहंकार' ही है; आत्म साक्षात्कार तो नहीं हुआ न? तो जब तक आत्म साक्षात्कार नहीं हुआ तब तक वह अहंकार ही पहचान है॥ 'मैं हूँ', I exist, isness, वह अहंकार है और उसी को दी गई चुनौतियाँ, उसके स्वरूप, मैं और मेरे को भय है वही आकर के इस पर आक्रमण करते हैं॥
ध्यान से सोचना, मनुष्य के भीतर की जिसे हम अस्मिता कहते हैं, आप अस्मिता कहते हो integrity, esteem, pride कई शब्दों का प्रयोग करते हो, वे सब के सब अहंकार से ही सम्बन्धित हैं॥ अहंकार व्यक्तिगत भी हो सकता है और पूरी संस्कृति का भी हो सकता है॥ अहंकार मने वह वाला नहीं जिसे ego कहते हैं, न न न, अहंकार मने अस्तित्व existence, अहंकार व्यक्ति का भी हो सकता है और एक पूरी संस्कृति, पूरी सोच का भी हो सकता है, पूरी जीवन जीने की शैली का भी हो सकता है॥ ध्यान से विचार करना मेरी बात का, एकाएक नहीं ध्यान से विचार करना॥
जिन किन्हीं ने भी लम्बे समय तक किसी पर वैचारिक आक्रमण करना होता है तो वे क्या करते हैं? क्या छीनते हैं? उसकी अस्मिता छीन लेते हैं, उसका गौरव, उसका गर्व छीन लेते हैं अर्थात वे उसके अहं के आकार पर अपना रंग डाल देते हैं, उसका रंग छीन लेते हैं, उसके अस्तित्व को रंग हीन कर देते हैं अपना रंग डालने के लिए॥ ध्यान से विचार करना जब कोई संस्कृति या सोच, यह सोचना शुरू करे कि ऐसे ही खाया जाता है, ऐसे ही पहना जाता है, ऐसे ही व्यवहार किया जाता है, ऐसे ही ओढ़ा जाता है, ऐसे ही प्रकृति सम्भव है और वह संस्कृति अपना 'वह सब कुछ' त्याग दे जो भले ही हजारों-हजारों वर्षों से एक शोध का परिणाम हो, एक पूर्ण वैज्ञानिक स्वरूप से आधारित हो, तो क्या जानना चाहिए? उस आक्रान्ता ने आक्रमण किस पर किया? उसने आक्रमण किया तुम्हारी सोच के आधार पर जो तु्म्हारे अस्तित्व का आधार है जो तुम्हारा 'अहं का आकार' है, जो तुम्हारी existence है, उसने उस पर आक्रमण कर दिया॥ इतना आक्रमण किया कि तुम 'तुम' ही न रहे, 'तुम' 'वह' हो गए जिसने आक्रमण किया, मैं 'मैं' ही न रहा मैं 'वह' हो गया॥ मैं कौन? अहंकार, अस्तित्व! मैं वह हो गया, वह अर्थात 'उसका अहंकार', 'उसका अस्तित्व', उसके अस्तित्व का आरोपण मुझ पर हो गया!
वह आरोपण व्यक्ति पर भी हो सकता है और पूरी संस्कृति पर भी हो सकता है, पूरे राष्ट्र पर भी हो सकता है॥ हजारों वर्षों की स्थापित वैज्ञानिक सोच जिसने वे सारे सिद्धान्त प्रतिपादित विज्ञान के किए जिस पर आज विज्ञान आगे आ रहा है, वह भी अपने काल में रहा॥ मैं कल ही सुन रहा था संसद में आयुष मन्त्रालय के मन्त्री बता रहे हैं कि किस प्रकार WHO 'World Health Organisation' चाहता है कि प्राचीन भारतीय मनीषा के निष्कर्ष जिनके द्वारा रोग प्रतिरोधक क्षमता Immunity Power बढ़ाई जा सकती है उन विषयों पर योगदान विश्व को देना चाहिए॥ क्योंकि उन्हें आशा है और उन्हें विश्वास है कि भारत कुछ दे सकता है, हम ही अभी इसे नहीं मान रहे, क्यों? क्योंकि हमारी सोच हर ली गई है॥ हमारी पहचान, esteem, pride, गौरव, गर्व छीन सा लिया गया॥ इसीलिए हमें अपने आप को जानने पहचानने और मानने में समय लग रहा है॥ खोया कौन ? अहंकार! ओढ़ा क्या? किसी और का अहंकार! किसी और के अहंकार की पहचान से हम अपने को ही खो गए॥ तो कौन हर लिया? किसे हरा कर ले गया कोई? हमारी सीता हर ली, सीता! हाँ, हमारी जीवन जीने की शैली, हमारी सोच, हमारे जीवन के निष्कर्ष, हमारे हजारों वर्षों के शोध जिसे कपोल कल्पित, अन्ध विश्वास कह करके चुनौतियों के वशीभूत कहकर के, यह कह दिया गया 'तब ये कहाँ थे? तब वो कहाँ थे'?
भूल गए कि जो पूरा काल होता है पूरा काल, वह 'महाकाल' के चक्र के अन्तर्गत गति में कभी कलि, कभी द्वापर, कभी त्रेता और कभी सतयुग को प्राप्त करता है॥ 'थोड़ी सी आयु' वाला मनुष्य, 'महाकाल के चक्र की गति' को जानने से अनभिज्ञ है इसीलिए प्रश्न करता है, संशय करता है, 'तब यह सब कुछ कहाँ था जब यह हो रहा था'? पर सत्य तो यही है कि काल कैसा भी रहा प्रतिकूल अथवा अनुकूल, पुन: उठा कौन? वह चाहे व्यक्ति का हो, समष्टि का हो, राष्ट्र का हो, संस्कृति का हो, अहंकार ही तो सामने उठा! अहंकार, मैं फिर कह रहा हूँ Ego नहीं ego नहीं ego नहीं, अस्मिता अस्तित्व हाँ यह एक अस्तित्व है॥ सीता हरण वस्तुत: सोच का हरण है, सीता हरण अस्मिता का हरण है, गौरव का हरण है, गर्व का हरण है, और आधारभूत स्थापित वैज्ञानिक सिद्धान्तों का हरण है यह सीता का हरण है॥ सीता का हरण जब भी कभी किसी काल में किसी रावण ने किया है वह किसी की जीवन शैली छीनने की चेष्टा की है॥ उसे विहीन कर दिया उसके अस्तित्व से और आरोपण कर दिया किसी और अस्तित्व को॥ हर काल में सीता हरी जाती है अपने-अपने स्वरूपों में हरी जाती है॥ महाभारत के काल में भी तो सीता का हरण हुआ था, सोच का हरण ही तो हुआ था॥ बड़े से बड़े ज्ञानी दरबार में बैठकर पंगु से हो गए थे॥ हरण तो सोच का हुआ था क्योंकि सबसे बड़ी सम्पत्ति, सबसे बड़ी सम्पदा मनुष्य की क्या है? उसकी सोच, उसकी जीवन जीने की शैली, उसकी प्राचीन स्थापनाएँ, उनके निष्कर्ष॥
सीता का जन्म मैं बार-बार कई कक्षाओं में पढ़ा चुका हूँ सीता का जन्म कहाँ से हुआ? किसी माँ की कोख से न होकर के, उस काल के अनेकों वैज्ञानिकों के रक्त का एक संचय था जिसका कुम्भ बना॥ उन वैज्ञानिकों को हम सन्यासी, योगी, साधु, तपस्वी, ऋषि नाम सम्बोधन छोड़ा जाता है, उन सबको इकट्ठा करके एक कुम्भ में संचित करके और पृथ्वी को जो और भी सब कुछ धारण कर सकती है, उस धारित्री को सौंपा गया वहाँ से जन्म हुआ सीता का॥ और जन्म भी किसके यहाँ? जनक! जनक! जनक! जो जन्म देता है एक नई संस्कृति को, एक नई सोच को, जिसे Creator कहते हैं कि ये इसके जनक हैं यह innovator हैं source हैं; ऐसे जनक के यहाँ जीवन जीने की शैली का जन्म हुआ॥ जिसे वरण किया किसने? बहुत प्रज्ञा से पूरित मर्यादित पौरुष ने; मर्यादा से पूरित पौरुष जब एक श्रेष्ठतम जीवन जीने की संस्कृति को अंगीकार करता है तो स्वर्णिम युग ही आगे निर्मित होता है॥ हाँ निश्चित रूप से कहानी अपने स्वरूप में बहती है पर उस कहानी से उठने वाला सत्य, हाँ वह कहानी सत्य है पर उस सत्यकथा से उठने वाला सार, उसका बहुत बड़ा विस्तार है जिसे हम छोड़ से गए॥ उसे पकड़ना आवश्यक है! अहंकार छोटा नहीं है बाबू, सोचना!