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आदिगुरू शंकराचार्य जी द्वारा रचित 'आत्मबोध'
अभी तक की यात्रा में हमने जाना कि तप के द्वारा, जिनके पाप बन्धन क्षीण हो जाएँ, समाप्त हो जाएँ, हृदय शान्त हो, राग और द्वेष से ऊपर उठें और जिनके भीतर आत्म उत्कर्ष, 'आत्मानो मोक्षार्थ' की जिज्ञासा, पिपासा, तड़प उठ चुकी हो; उनके लिए आत्म बोध की रचना आदिगुरू शंकराचार्य जी ने की। 'आत्मबोध 'मैं क्या हूँ?' यह जानने की चेष्टा, अपने मूल अस्तित्व को प्राप्त होने का एक प्रयास है। अन्य जितनी भी साधनाएँ है वे अप्रत्यक्ष हैं, प्रत्यक्ष नहीं है direct नहीं हैं, केवल और केवल आत्मबोध की साधना ही प्रत्यक्ष है। जिस प्रकार बिना अग्नि एवं ऊर्जा के, भोजन नहीं बन सकता उसी प्रकार बिना 'आत्मबोध' के मनुष्य को मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता।
आज श्लोक 3 जो थोड़ा गुह्य है इसीलिए इसमें एक * लगाकर लिखा नीले रंग में लिखा 'मर्म गुह्य है'।
अविरोधितया कर्म (कर्म अज्ञान का विरोधी नहीं),
नाविद्यां विनिवर्तयेत् (अत: कर्म अविद्या नहीं हटाते),
विद्या अविद्यां निहन्त्येव (ज्ञान अज्ञान समाप्त करता)
तेजस तिमिरा सङ्घवत * मर्म गुह्य है
(प्रकाश अन्धकार का अन्त करता) ।३।
अविरोधितया कर्म - अविरोध अर्थात विरोध नहीं करता, किसके लिए कहा? कर्म! कौन सा कर्म? जितनी भी साधना की अन्य पद्धतियाँ है वे अज्ञान का विरोध नहीं करती। 'अज्ञान' का तात्पर्य है - 'मैं आत्मा हूँ' इस बोध की विस्मृति, इस बोध से हम हटे हुए हैं। प्रकृति के अन्तर्गत यह विधान ऐसा है, क्रम ऐसा है कि मनुष्य उत्कर्ष प्राप्त तो करता है, परन्तु अन्तिम सीमा तक, दहलीज तक उसे बोध नहीं होता। हम कहते हैं, प्रतिदिन हम कहते हैं - 'अहं ब्रह्मास्मि', 'सोऽहम', 'तत्त्वमसि', 'मैं आत्मा हूँ अजन्मा हूँ अनादि हूँ' कहते हैं न? तो क्या ऐसा अनुभव होता है? नहीं, उस स्तर पर अनुभव तो नहीं होता ईमानदारी से। फिर भी कहते हैं, इसलिए कहते हैं क्योंकि हमारे हमसे पूर्व के हमारे अतीत के ब्रह्म ऋषियों ने या वर्तमान में इस काल में भी जिन्होंने आत्मा का साक्षात्कार प्राप्त किया; उन्होंने भी आत्मा का यही स्वरूप बताया 'अजन्मा है अनादि है ईश्वर का अंश है'। उस अवस्था को प्राप्त करने के लिए अर्थात अवस्था का तात्पर्य यही है कि वही वास्तविक ज्ञान है वही बोध है आत्मबोध। उसके अतिरिक्त शेष सब 'अज्ञान' की श्रेणी में आएगा।
यहाँ ज्ञान और अज्ञान को केवल और केवल मोक्ष की दृष्टि से समझना। मैं अनेकों बार पूर्व में भी कह चुका हूँ कि एक ही शब्द, कई प्रकार के भाव को व्यक्त करने के लिए प्रयोग होते हैं। अत: यहाँ ज्ञान और अज्ञान को केवल और केवल इस प्रकाश में समझो कि ज्ञान अर्थात 'मैं आत्मा हूँ' यह बोध, हमें जब भी कभी होगा; और जब तक वह बोध नहीं है तब तक हम 'अज्ञान' के अन्तर्गत हैं, उसकी पराधीनता में हैं। कोई भी अन्य साधनाएँ, जितनी भी हम करते हैं वे अज्ञान का विरोध नहीं करती। यह बहुत गुह्य है, कैसे? वे सत्कर्म की दृष्टि से आ सकती हैं, हमने सत्कर्म किया, सत्कर्म का परिणाम पुण्य है, पुण्य का परिणाम उत्कर्ष है, और अधिक श्रेष्ठ लोक हैं, और श्रेष्ठ योनि में पुनर्जन्म है। किसी योनि में जन्म या किसी लोक की प्राप्ति या इसी पृथ्वीलोक पर और उच्चतर स्तर की प्राप्ति, यह मोक्ष नहीं है। हाँ उत्कर्ष है, वह नचिकेता संवाद बार-बार जीवित जागृत होगा, सब कुछ मिल सकता है पर केवल यदि मोक्ष नहीं है तो उससे पूर्व जो कुछ है वह 'अविद्या' में आएगा, 'अज्ञान' में आएगा। 'ज्ञान' अर्थात मोक्ष की प्राप्ति, उस रचियता में विलीन होने की अवस्था, उससे कम में यहाँ 'आत्मबोध' में ज्ञान को माना ही नहीं गया।
पहले श्लोक में ही स्पष्ट कर दिया गया कि यह रचना किन के लिए है। Eligibility पहले श्लोक में ही आ चुकी है। हम सभी में उस eligibility का एक पक्ष तो है कि हम मुमुक्षु हैं, जिज्ञासु हैं, तड़प है हमारे भीतर। यह ठीक है कि हमारे भीतर, हमारे सभी पाप अभी पूरी तरह क्षीण नहीं हुए, हमारे बन्धन अभी समाप्त नहीं हुए, हम में अस्थिरताएँ विद्यमान हैं, हम 'विक्षिप्त से एकाग्र' के बीच का झूला झूल रहे हैं, पर मुमुक्षु हम हैं जिज्ञासु हम हैं; तदपि इतनी सी योग्यता लेकर के हम आत्मबोध को समझने चल निकले हैं। इसमें उन्होंने कहा कि कोई भी अन्य उपासना, इसका तात्पर्य यह नहीं कि हम अन्य उपासनाओं को छोड़ देंगे। मैंने पूर्व में भी कहा कि मनुष्य की अवस्था के अनुरूप उसकी साधना सक्रिय होती है, कार्य करती है, परिणाम और प्रभाव देती है। आज सारे बैठकर आत्मबोध की साधना आरम्भ कर दें जो विज्ञानमय कोष की है, तो क्या कुछ उपलब्ध कर पाएँगे? नहीं, कुछ समय के उपरान्त छिटक जाएँगे। क्योंकि जब तक पाप क्षीण नहीं हुए, पाप अर्थात अस्थिरताएँ, पाप अर्थात बन्धन क्षीण नहीं हुए, तब तक इस चरम साधना को हम सिद्ध नहीं कर पाएँगे। हम अपने आप को जना रहे हैं, बता रहे हैं, कि हमें जाना यहीं है, इसी के निमित्त करना है। किन्तु यह भी जानना आवश्यक है कि बाकी जितनी भी अन्य साधनाएँ हैं वे अज्ञान का विरोध नहीं करती। यहाँ 'कर्म' शब्द अन्य सभी साधनाओं के लिए प्रयोग किया गया है। यहाँ कर्म केवल 'कर्मयोग' वाला नहीं है, यहाँ कर्म की दृष्टि से जितनी भी साधनाएँ हैं जितनी भी, केवल आत्मबोध को छोड़कर; वे सब कर्म की श्रेणी में आएँगी। अत: Action & Reaction, हर कर्म का परिणाम है।
ठीक है वे सत्कर्म हैं, निश्चित रूप से उसका परिणाम भी अच्छा ही होगा इसमें कोई सन्देह नहीं है, पर वह सत्कर्म हमें उस स्तर तक परिपक्व करेगा, हमारी पात्रता विकसित करेगा जहाँ हमारे आत्मबोध के लिए तैयार हो सकें। हम आत्म बोध की साधना के लिए बैठ सकें इसीलिए शब्द आया - अविरोध कर्म, अर्थात जितनी भी अन्य साधनाएँ हैं वे विरोध नहीं करती। किसका विरोध? यहाँ सब कुछ, कुछ मूक भी है reading between the lines अज्ञान का विरोध। किसका विरोध? अज्ञान का विरोध!
नाविद्यां विनिवर्तयेत् - अत: कर्म 'अविद्या' को नहीं हटाते; 'कर्म' अर्थात अन्य सभी प्रकार की उपासनाएँ अविद्या को नहीं हटाते। याद रखना यहाँ 'कर्म' शब्द जब भी प्रयोग हो, चाहे वह विवेचना में हो उसका तात्पर्य यही है। ये सभी जितने भी उपासना के साधना के मार्ग हैं ये उस 'अविद्या' को नहीं हटाते। कौन सी 'अविद्या' को ? यहाँ हम कहेंगे कि शेष सभी साधनाएँ क्या अविद्या नहीं हटाती? हटाती हैं, यहाँ विद्या और अविद्या में तात्पर्य जान लो। विद्या क्या? कि आत्मा सत्य है बाकी सब मिथ्या है, वही नित्य है बाकी सब अनित्य है, यह विद्या है; और जो यह नहीं जानता वह 'अविद्या'।
यहाँ विद्या अविद्या का तात्पर्य एक ही है - 'आत्मा नित्य है अजन्मा है' यह विद्या है और अभी यह स्वरूप नहीं प्राप्त हुआ तो 'अविद्या' है। मैं और तुम अभी अविद्या में हैं। अन्य जितनी उपासनाएँ हैं इनके द्वारा अविद्या नहीं हटती। अविद्या और अज्ञानता को हम उस स्वरूप में भी ले लेते हैं जहाँ अध्यात्म के अन्तर्गत बहुत कुछ, मनुष्य के स्वभाव में मनुष्य के संस्कार के परिष्कार के लिए भी प्रयोग होता है। हाँ, वहाँ भी होता है पर यहाँ एक ही पक्ष है 'नित्य-अनित्य का भेद'।
विद्या अविद्यां निहन्त्येव - केवल ज्ञान ही, 'ज्ञान' अर्थात आत्मबोध, ज्ञान अर्थात आत्मबोध! 'ज्ञान' बड़ा विस्तृत शब्द है, कई स्थानों पर ज्ञान Knowledge अलग-अलग विषयों के लिए प्रयोग होता है। किन्तु यहाँ 'ज्ञान' केवल और केवल 'आत्मबोध' है। आत्मबोध - 'मैं क्या हूँ?' इसलिए यह विशेष रूप से समझना कि कहाँ कौन सा शब्द प्रयोग किया गया है। यहाँ 'ज्ञान' अर्थात 'नित्य-अनित्य का बोध'। ज्ञान ही केवल अज्ञान को समाप्त कर सकता है जैसे अन्तिम पंक्ति फिर उदाहरण है:
तेजस तिमिरा सङ्घवत - जिस प्रकार प्रकाश, घोर अन्धकार को तिमिर को, सङ्घवत अर्थात उसे समाप्त करता है उसका अन्त करता है। जैसे प्रकाश ही अन्धकार का नाश करता है उसे समाप्त करता है, ठीक उसी प्रकार मनुष्य की जीवात्मा, (जीवात्मा शब्द कहा मैंने आत्मा नहीं कहा), जीवात्मा के अज्ञान स्वरूप को उसकी अविद्या को, केवल एक ही ज्ञान समाप्त करता है वह है 'आत्मबोध - मैं क्या हूँ?। शेष सभी साधनाएँ उसे 'उस स्तर तक' के लिए तैयार करती हैं जिसे वह अन्तिम क्षण को पहुँच कर के आत्मबोध को चरितार्थ कर सके कि आखिर मैं क्या हूँ।
महर्षि रमण ने तो पूरा जीवन उसी में जिया। क्योंकि वह पहले से ही तैयार थे, क्योंकि पहले से ही वह मोक्ष प्राप्त जीवात्मा थे। तो फिर क्यों आए? प्रकृति में बहुत से खेल, प्रेरणा के लिए मनुष्य जाति हेतु होते हैं। जागृत मोक्षप्राप्त जीवात्माएँ जिन्हें जीवनमुक्त कहते हैं, वे आकर के इस मंच पर, इस रंगमंच पर, इस दोष से बनी सृष्टि में अपने आप को अवतरित करके केवल मार्गदर्शन हेतु, प्रेरणा हेतु demonstration हेतु भी आती हैं। इसीलिए महर्षि रमण का यदि हम पूरा जीवन देखें तो इसी में ही था 'मैं क्या हूँ?' इसके अतिरिक्त नहीं। उन्होंने केवल इसी स्वरूप में विद्या-अविद्या, ज्ञान-अज्ञान का स्वयं अपने जीवन से ही उसकी प्रतिष्ठा की, उस सत्य की प्रतिष्ठा की। अत: जिस प्रकार अन्धकार को केवल प्रकाश समाप्त कर सकता है उसी प्रकार, इस हर प्रकार की अविद्या को, वह अविद्या जो मनुष्य के अन्तिम उत्कर्ष से सम्बन्धित है, वह अज्ञानता जो उसे आभास नहीं होने दे रही कि वह 'अजन्मा है अनित्य है वह ईश्वर अंश है'; यह केवल और केवल उस ज्ञान से उस आत्म बोध से ही समाप्त होगा। हमारी समस्त साधनाएँ उसी के लिए हमें तैयार कर रही हैं।
आत्मबोध का यह भाव साधकों के लिए कुछ नए अध्याय भी खोलेगा, इसलिए खोलेगा क्योंकि कुछ धारणाओं को जो पहले से हमारे मन में प्रचलित हैं उनको और नया विस्तार देगा। नए-नए प्रश्न भी आते हैं जैसे 'अभी हम गायत्री कर रहे हैं', 'ॐ कर रहे हैं', यह कर रहे हैं वह कर रहे हैं, यह सब क्या आत्मबोध के लिए नहीं है? यह सब आत्मबोध हेतु ही हैं पर 'आत्मबोध की विशुद्ध साधनाएँ' नहीं हैं। इनके बिना हम उसके लिए परिपक्व भी नहीं हो सकते, हम कितनी भी चेष्टाएँ कर लें हम कितने भी प्रयास कर लें इनके बिना तैयारी सम्भव नहीं है। इसीलिए तैयारी का महत्त्व उस पूर्णता से कम नहीं जानना चाहिए। हमारे यहाँ सबसे बड़ी विडम्बना क्या है? हम तैयारी से विमुख हो जाते हैं केवल चरम को पकड़ लेते हैं Ph.D सीधा पीएचडी, बाकी तैयारी भूल जाते हैं। बिना तैयारी कुछ सम्भव है? नहीं। क्या तैयारी 'आत्मबोध' से कम महत्त्वपूर्णहै? बिलकुल नहीं। जितना आत्मबोध, आत्म साक्षात्कार के लिए महत्त्वपूर्ण है, उतनी ही तैयारी भी महत्त्वपूर्ण है; तैयारी एक अंश भी उससे कम महत्त्वपूर्ण नहीं है, नहीं है, नहीं है।
और तुम निर्माणाधीन हो, 'निर्माणाधीन हो' यह मान कर चलना।
आदिगुरू शंकराचार्य जी के इस सत्य का परिचय भी हमें होना चाहिए। इसीलिए हम इसका अध्ययन भी कर रहे हैं।