शिव मानस पूजा - रचैयता अदि गुरु शंकराचार्य - भाग 2

शिव मानस पूजा - रचैयता अदि गुरु शंकराचार्य - भाग 2

शिवमानस पूजा आदिगुरू शंकराचार्य जी द्वारा रचित

सौवर्णे नवरत्नखण्डरचिते पात्रे घृतं पायसं
भक्ष्यं पञ्चविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम् ।
शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूरखण्डोज्जवलं
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु ।।2।।

सब कुछ मन से चल रहा है, भाव से चल रहा है॥ सब कुछ भावरूप है और उसी भावरूप इस आराधना में कहते हैं कि सोने का पात्र मैंने बनाया है॥ ऐसा पात्र जो सोने का बना है जिसमें नवरत्न खण्ड रचिते अर्थात नवरत्नों के खण्ड उसमें जड़े हुए हैं॥ स्वर्ण का बना पात्र जिसमें नवरत्न के खण्ड , जिसमें भोजन रूप में घृत (घी) और खीर, पाँच प्रकार के दूध और दही से युक्त, रम्भाफल (सम्भवत: कदली फल को कहते हैं), एवं पानकम् - मधुर पेय॥ यह सब भावरूप चल रहा है॥ एक पात्र रचा गया जो स्वर्ण का बना है नवरत्न जड़ित है जिसमें घृत युक्त खीर है और साथ में उन्होंने मिला दिया या किस प्रकार किया यह तो मैं नहीं जानता पर ब्रह्म ऋषि सब कुछ एक बर्तन में मिश्रित करके भी खाते हैं॥ यहाँ भक्त उन सब घटकों का वर्णन कर रहे हैं॥ खीर है घृतयुक्त, भोजन के लिए पाँच प्रकार के और पदार्थ हैं दूध दही रम्भाफल और पानकम् अर्थात पेय है॥

शाकानामयुतं - शाकानाम् अर्थात सब्जियाँ उसमें युक्त हैं, जलं रुचिकरं - स्वच्छ जल है साथ में॥ कर्पूरखण्ड = कपूर का खण्ड प्रज्जवलित किया हुआ है जिससे वातावरण सुगन्धित हो, पवित्र हो, प्रदूषण रहित हो, नकारात्मक शक्तियाँ वहाँ से पलायन कर जाएँ॥ इस प्रकार का मैंने वहाँ एक वातावरण बनाया है और साथ में ताम्बूल भी आपके लिए परोसा गया है॥ भोजन के उपरान्त ताम्बूल ईत्यादि देने की एक प्रथा हमारे यहाँ है॥
मनसा मया विरचितं - मन से मैंने इसे रचा है, भक्त्या प्रभो स्वीकुरु - हे प्रभो! हे इष्ट! मेरे इस भावपूर्ण समर्पण को आप कृपया स्वीकार कीजिए॥

भक्त अपने इष्ट को समर्पित होता हुआ भाव रूप में आराधना करता है और आराधना करते हुए भावरूप वह सब कुछ जो पृथ्वी पर श्रेष्ठतम उसके संज्ञान में आया, that this is the ultimate, this is the best, उसे जुटा पाया कि नहीं जुटा पाया पर भाव रुप में जुटा पाया और भगवान भाव का खेल है॥ इसीलिए मनसा पूजा है और वेदान्त के सूर्य उसे रचकर गा रहे हैं॥ वे अपने ही भीतर अपने आराध्य देव को देवाधिदेव को , उनकी आराधना इस रूप में भीतर कर रहे हैं कि आप मेरे समक्ष उपस्थित हैं, आप आए हैं और मैंने यह सब कुछ अपनी ओर से आपको अर्पित किया है॥ आपके सत्कार स्वरूप आपके आगमन के उपरान्त आपको बैठाने के बाद जो कुछ मैंने आपके लिए समर्पित किया है॥ (आजकल तो हम पूछते हैं ठण्डा गर्म क्या लेंगे, आपके लिए कुछ सूप लाएँ, शर्बत लाएँ, आप क्या खाएँगे ईत्यादि, इस प्रकार से हम पूछते हैं)॥ उसी प्रकार उन्होंने अपनी ओर से जो कुछ भी उनके संज्ञान में श्रेष्ठतम था उसे रचकर के उन्होंने इष्ट को अर्पित किया और साथ ही कहा "मैने इसे बहुत भाव से भक्ति से रचा है आप इसे स्वीकार करें"

यह भाव रूपी धारणा साधक और उसके आराध्य देव के बीच इतनी निकटता ले आती है कि उसमें भेद नहीं रहता॥ They become one, एक oneness हो जाती है॥ जब हम किसी का बहुत सत्कार करते हुए उसे सब कुछ बहुत मन से परोसते हैं तो उसको देखते हैं उसे अनुभव करते हैं॥ उसकी प्रसन्नता को उसके आनन्द को अनुभव करते हैं॥ आनन्द वह लेता है अनुभव हम कर रहे होते हैं॥ जैसे माँ खिलाती है तो खाता बच्चा है पर आनन्द किसको अनुभव होता है? माँ को॥ माँ और बच्चा उस समय एक हैं दो शरीर होते हुए भी भाव रूप एक हैं॥ उसी प्रकार भक्त अपने भगवान के साथ भाव रूप एकीकृत हो गया, एक हो गया॥ इस स्वरूप में एक हो गया कि वह जो कुछ उनको भाव रूप में अर्पित कर रहा है वह साथ ही साथ उसकी पुष्टि भी अपने आप को दे रहा है कि यह आनन्ददायक है॥ निश्चित रूप से मेरे इष्ट इसे प्राप्त करके बहुत प्रसन्न होंगे

   Copy article link to Share   



Other Articles / अन्य लेख