संकल्प की शक्ति के बिना, भौतिक जीवन हो अथवा अध्यात्मिक, सफलता की आशा करना निरर्थक है॥ भाग्य के बूते कुछ मिल गया तो उसका उल्लेख साधकों से नहीं किया जा सकता॥ साधकों से उल्लेख पुरुषार्थ एवं साधना के रूप में है॥ अत: संकल्प के बिना पत्थर चीर कर के पानी नहीं निकाला जा सकता॥ संकल्प की शक्ति को विकसित करने के अन्य साधन हैं पर सबसे बड़ा साधन एक ही है, उससे अधिक मैंने आज तक कुछ अनुभव नहीं किया॥ इस विषय पर पुस्तक भी लिखी है सब कुछ है पर सबसे ऊपर साधक के लिए (हालांकि पुस्तक की रचना उनके लिए भी है जो अभी साधक स्तर को प्राप्त नहीं हुए), परन्तु संकल्प शक्ति चाहिए॥ जो साधक हो चुके, साधना में आ गए, आगे बढ़ गए, उनके लिए संकल्प शक्ति को विकसित करने हेतु छोटे-छोटे अनुष्ठान छोटे-छोटे तप व्रत से ऊपर कोई विधा नहीं है॥ बात संकल्प शक्ति की हो रही है ध्यान रहे॥ चाहे साप्ताहिक उपवास हो, उपवास आप शरीर स्वस्थ रहे ईत्यादि की दृष्टि से रखेंगे बहुत अच्छी बात है पर उससे बड़ी बात है साप्ताहिक उपवास का संकल्प से सम्बन्ध अवश्य बैठता है॥ प्रतिबन्ध से, अपने भीतर उठने वाली मनमानी से, भीतर की मनमानी को चुनौती देकर बैठा देना, यह संकल्प के लिए बहुत बड़ा व्यायाम है बहुत बड़ी exercise है॥
मन ने कुछ करने के लिए माना, मन अर्थात वह मन जो केवल कामनाओं में भटकता है, संकल्पित मन नहीं॥ एक मन वह भी है जो भटकता है बस लुंज-पुंज, हर समय कुछ मन मर्जी, एक मन वह है जो संकल्पित है॥ संकल्पित मन के निर्माण के लिए, संकल्प की शक्ति के लिए आवश्यक है कुछ ऐसी चुनौतियाँ अपने आपको लगातार देते रहें, मर्यादित चुनौतियाँ, हर तरह की चुनौती नहीं मर्यादित चुनौतियाँ॥ जिसमें साप्ताहिक उपवास भी एक है आवश्यक नहीं कि आप वही करें, आप अनुष्ठान भी देख सकते हैं॥ छोटे से छोटा अनुष्ठान भी संकल्प की शक्ति को बाहर लाता है॥ जब आप एक अनुष्ठान करके बाहर आते हैं, आपका उद्देश्य कुछ मनोकामना से जुड़ा था आप कुछ पाना चाहते थे आपने उस ऊर्जा हेतु अनुष्ठान किया, वह बहुत बड़ा पक्ष है पर क्या यह केवल छोटा पक्ष है? टूर्नामेन्ट की तैयारी करने वाले खिलाड़ी, टूर्नामेंट तो किसी न किसी खेल का होता है पर जो उस टूर्नामेंट की तैयारी हेतु जो उनकी रिहर्सल है जो उनकी पूरी तैयारी है प्रैक्टिस है उससे उनका शरीर विकसित नहीं होता क्या? उनका सुदृढ़ सुडौल शरीर तो स्वत: ही विकसित हो जाता है॥ उसी प्रकार अनुष्ठान अथवा व्रत उपवास के अपने व्यक्तिगत लाभ हैं पर सबसे बड़ा जो लाभ है वह है संकल्प शक्ति॥ जितने अंशों में संकल्प शक्ति विकसित होती जाएगी, संकल्प शक्ति उभरती जाएगी, तुम जहाँ चाहो negotiate कर लोगे, भाग्य से भी थोड़ा-बहुत, थोड़ा भी और बहुत भी॥ मैंने शब्द कहा है 'थोड़ा बहुत', अर्थात अपने प्रयासों के अनुसार थोड़ा भी और बहुत भी negotiate कर लोगे॥ तुुम negotiate कर लोगे उन चुनौतियों से जो तुम्हारे मार्ग में बाधा बनकर खड़ी हुई हैं॥ जीवन का लक्ष्य भौतिक है या अध्यात्मिक उससे अन्तर नहीं पड़ेगा, संकल्पित मन अब करके ही मानेगा॥ उसमें शिवत्व का अवतरण हो गया, शिव तत्त्व का अवतरण हो गया हाँ यह ध्यान रखना संकल्प असुर का न हो देव का हो॥ असुर का होगा तो पराभव होगा, देव का है अर्थात दिव्य उद्देश्य है तो उत्कर्ष और कल्याण ही होगा। जो परिणाम है अर्थात उद्देश्य के रूप में उसके लिए साधक का दायित्व है कि उद्देश्य अच्छा होना चाहिए; 'सवारी अपने सामान की स्वयं जिम्मेदार है'॥ पर यह प्रक्रिया अमोघ है अकाट्य है॥
अब आप यह कहें कि सृष्टि के प्रलय तक की मेरी कोई गारंटी हो जाए या कुछ ऐसा हो जाए, तो कुछ विषय ऐसे भी तो हैं जो मनुष्य की सीमाओं से परे हैं॥ मनुष्य की सीमाओं में आने वाला जो कुछ भी है वह संकल्प के बूते, संकल्प की शक्ति से सम्भव है॥ कुछ न कुछ बन्धन किसी न किसी रूप से, जो मनमानी को रोक सके, तुमने अपने आप को रोक दिया और एक बार नहीं not once, सतत रूप से, तो बस फिर तुम परिणाम देखना आरम्भ कर दो वे परिणाम जो अन्यथा तुम्हें सब कुछ यूंँ ही पड़े-पड़े स्वीकार करा रहे थे कि यह तो नहीं हो पाएगा॥ फिर भीतर से हूक उठेगी 'क्यों नहीं हो पाएगा?'॥ बहुत बड़ा बल अन्तर्मन में जन्म लेगा॥ इसलिए संकल्प की शक्ति चाहने वाले साधक को, मैं एकाएक से सामान्य व्यक्ति कि लिए नहीं कहूँगा, परन्तु साधक को अपने जीवन में इस प्रकार के बन्धन, यदि नित्य प्रति न भी हो तो कम से कम साप्ताहिक स्तर पर लाने की चेष्टाएँ करनी अनिवार्य हैं, अनिवार्य हैं अनिवार्य अर्थात इसके बिना अन्य विकल्प नहीं है॥ जैसे कल भगवद गीता के अध्ययन में शब्द आया अवश:, अर्थात विवश होकर भी करना पड़ेगा॥ जब अपने आप को विवश करके भी, स्वयं की इच्छा से कुछ करा लोगे, बाहरी दबाव से नहीं स्वयं की इच्छा से तो देखना कितना बल भीतर जन्म लेता है॥ वह बल जिसका आनन्द बाहर कोई नहीं जान पाएगा तुम स्वयं जानोगे, करना॥ सोचो अपने लिए आहार से सोच लो, समय से सोच लो, कुछ भी सोचो जिसमें मनमानी रोकी जा सके, और फिर यदि करो तो मुझे लिखकर भेजना पर साप्ताहिक से अधिक नहीं हो सप्ताह में एक बार अवश्य कुछ न कुछ ऐसा बन्धन रखना