शिवानन्द लहरी श्लोक - 25
इस श्लोक में साधक भावविभोर होकर अपने इष्ट से कहता है...
ब्रह्मा आदि देवताओं द्वारा जिन की स्तुति की जाती है। जिसकी सन्यासियों के जय जय कार से वातावरण गुंजित होता। गण जिनकी सेवा में रत हो कर खेल कर रहे हैं। और वृषभ पर विराजमान महादेव मां पार्वती सहित उमा हाथ मे मृग धारण किए , वह फरसे वाले, तीन नेत्रों वाले हे नीलकंठ आपको इस रूप में मैं कब देखूंगा?
(यह मेरे व्यक्ति भाव हैं )श्लोक में बताया गया यह रूप उस प्रकार का है जिसमें प्रतीत होता है की महादेव मां पार्वती की डोली लेकर आ रहे हैं। और उन्हें वृषभ पर विराजमान अर्थात नंदी पर विराजमान देख साथ चलने वाले जय जय कार कर रहे हैं। सन्यासी, गण, देवता स्तुति कर रहे हैं।
महादेव अपने पूर्ण स्वरूप में है। और मै (साधक) याचना कर रहा की हे शम्भो आपको इस स्वरूप में कब देख पाऊंगा? (भाव रूप साधक अपने आपको उस अवस्था में ले जाते हुए अनुभव करना चाहता है)।
यह तो सत्य है की ब्रह्म निर्लिप्त है पर ब्रह्म निर्लिप्त होने के पर भी उसकी रचना में निष्ठुरता नहीं है। उसकी रचना को व्यक्त करने हेतु ही यह रूप हैं जिन्हें हम भगवान शिव, ब्रह्मा,विष्णु सहित जानते हैं । सृष्टि के विस्तार की रचना तो भाव पर ही आधारित है। सृष्टी का विस्तार भाव के अंतर्गत ही सम्भव है।
ब्रह्म भले ही रचयिता है, वह गायत्री का ‘तत’ है। वह कितना भी निर्लिप्त हो पर उसे भी विस्तार के लिए जिस साधन की आवश्यकता है वह भाव ही है। साधक भी उसी भाव के द्वारा इष्ट के सम्पर्क में रहने को आतुर है। भाव रुप अपने आपको अपने इष्ट के लिए साधक उस स्तर पर लेकर जाता है जहां पर उसने कथाओं, पुराणों मे सुना है “जाकी रही भावना जैसी”...
वह बस इतना ही चाहता है कि मेरा भगवान मेरा भाव ही है और बस मेरे भाव के अनुरूप ही मुझे मेरा भगवान दिख जाए। यह भाव ही ऐसी सत्यता को जन्म देता है कि विवश होकर सृष्टी के समस्त कारण उसकी सेवा में प्रस्तुत हो जाते हैं। और उसके भाव के निमित्त ऐसी रचनाएं होने लगती हैं, सब कुछ एकत्रित करके सृष्टि तदनरुप रचना करती है।
हम सुनते आए हैं की कैसे भक्तों के भाव के अनुरूप हरि (इष्ट) अपने भक्त के पीछे पीछे चलते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि जिस भाव में भक्त होगा हरि को वैसे ही सृष्टि रचनी होती है। भक्ति को वैसी ही अनुभुति देनी होती है। और वह अनुभूति इतनी सशक्त होती है की इंद्रियां उसे साक्षात् अनुभव करती हैं।
हम भी अनुभव प्राप्त करते है की महादेव आप मां पार्वती सहित निकल रहे हैं नंदी पर विराजमान, देवता, गण, आकाश आपकी स्तुति कर रहे हैं और गण इत्यादि नृत्य कर रहे है, सन्यासी जय जयकार कर रहे हैं। महादेव को इसी स्वरूप में भक्त देख रहा है। यहां मुख्य भाव है चूँकि भक्त इस भाव से अपने आप को अभीसिंचित करना चाहता है। डुबो देने चाहता है। ट्रांसक्रिप्शन सुजाता केलकर।