प्रत्येक तत्व का स्वभाव उसी प्रकार आत्मा का भी अपना स्वभाव है, शंकराचार्य द्वारा रचित आत्म बोध श्-24

प्रत्येक तत्व का स्वभाव उसी प्रकार आत्मा का भी अपना स्वभाव है, शंकराचार्य द्वारा रचित आत्म बोध श्-24

ब्रह्म मुहूर्त ध्यान उपरांत सत्संग आदि गुरु शंकराचार्य जी द्वारा रचित आत्मबोध श्लोक नंबर 24...

हर एक तत्व का अपना एक गुण है, जो उसका स्वधर्म है और वो उस अपने तत्व को नहीं छोड़ता

" प्रकाश: अर्कस्य (सूर्य का) तोयस्य (जल हेतु) शैत्यम (शीतलता) अग्ने: यथा उष्णता (ऊष्मा)। स्वभाव: सच्चिदानंदनित्यनिर्मलतात्मनः ( सत, चित-चैतन्य, आनंद, नित्य, निर्मल -पवित्रता)"

जिस प्रकार सूर्य का गुण है, प्रकाश देना है वो प्रकाश दिए बिना नहीं रह सकता। उसका स्वधर्म है जिसका निर्वाह होगा ही होगा। शीतलता जल का धर्म है, अग्नि का स्वभाव है उष्णता, उसी प्रकार आत्मा का स्वभाव है जिसे यहां बहुत सुंदर शब्दों में ब्रह्म ऋषि जी ने कहा... वह सत् है अर्थात केवल वही है जिसका अस्तित्व है... यहां सत का अर्थ है अस्तित्व एक्जिस्टेंस बाकी सब मिथ्या है,, रचा हुआ है, आता जाता है परिवर्तनशील है, कुछ शाश्वत नहीं है, अगर किसी का अस्तित्व है तो वो सिर्फ आत्मा का ही है। इसलिए सत् कहा। वो चैतन्य रूप है , वही है सजगता, बाकी सब उससे प्रकाश पाते हैं। जैसे सारे ग्रह, उपग्रह सौर मंडल के सभी ग्रह सूर्य से प्रकाश पाते हैं। उसी प्रकार और आत्मा का स्वरूप क्या है ? आनंद, एक परिपूर्णता उसका स्वरूप है। और वो नित्य है, इसमें कोई परिवर्तन आना ही नहीं है वो जैसा है वैसा ही रहेगा, न उसका आदि ना अंत, और पवित्र है जिसे निर्मल शब्द से संबोधित किया है, कुछ भी उसमें अशिव नहीं है। वह केवल शिव है, शिव है,, शिव है... वह सत है वह चित है। वो आनंद है, नित्य है, निर्मल है।

आत्मा के इन स्वरूप का स्मरण करने से, एक ज्ञानी ने बहुत सुंदर कहा है... वस्तुतः यूं कहें इस साधना द्वारा हमें अपने आवरण हटाने हैं, या हम यूं कहें,, आत्मा का स्वभाव जगाना है। बात एक ही है उसका स्वभाव जगाने के लिए अनुभव होने के लिए हमें आवरण से मुक्त होना ही होगा। किसी भी साधना का अभिप्राय यही है,.. कि वो सत् है, मेरे भीतर है चैतन्य रूप मे । परिपूर्णता रूप है मेरे भीतर, और जो नित्य है कभी परिवर्तन को प्राप्त नहीं होगा। जो पवित्र है जहां किसी प्रकार की कोई दोष की संभावना नहीं है। जिसे प्राप्त होने के उपरांत जीव कह नहीं सकता कि अमुक छूट गया, अमुक रह गया, कुछ नहीं.... इसीलिए भगवत गीता में शब्द आता है आत्मरति, आत्मतृप्त, आत्मसंतुष्ट... यहां संतोष को, और तृप्ति को उन्होंने थोड़ा सा भिन्न किया है। आत्मरति,आत्मतृप्त, आत्मसंतुष्ट याने अपने आप में ही संतुष्ट रहने वाला, बाहर से कुछ नहीं चाहिए। एक ऐसी आत्मा की अवस्था। ब्रह्म ज्ञानी जब किस अवस्था को प्राप्त होते हैं, तो उसके उपरांत समस्त आश्रय समाप्त हो जाती है। उन्हें फिर कोई आश्रय की आवश्यकता नहीं रहती है।

आज भले ही उपरोक्त भाव सपना दिखता है, सपना तो कभी चांद पर जाने का भी रहा होगा, सपना कभी मंगल ग्रह को इन आंखों से उपकरण द्वारा देखने का भी रहा होगा, मैं प्राचीन भारतीय मनीषा में ब्रह्म ऋषियों की क्षमता को बीच में नहीं ला रहा हूं, उन्होंने तो सब देख लिया था, सब जान लिया था, मैं सामान्य बात कर रहा हूं। पिछले दो तीन हजार वर्ष के पूर्व की जब इतना प्रकाश नहीं था अर्थात इतनी प्रगति नहीं थी। इस काल में क्या कोई कल्पना थी, जीव जब अपने अधूरेपन को देखता है अवलोकन करता है, तो उसको ये सारी बातें एक मृग तृष्णा समान प्रतीत होती है, कल्पना, जबकि यह सत्य है,, और इसी सतचितआनंद स्वरूप का एक थोड़ा सा अंश हमें तभी मिलता है जब हम गहरे ध्यान में, सुषुप्ति सी अवस्था में आ जाते हैं, पूर्ण सजगता बनाए हुए, सुषुप्ति में तो सो के पता नहीं चलता, पर यहां तो ध्यान में जागृत अवस्था में, भले ही हम कुछ क्षण के लिए सही may be for very few seconds... जब हम भीतर मग्न हो जाते हैं, तो यह सत चित आनंद एक तरंग बटोर के बाहर लाते हैं, जो बाहर आने नहीं देती, आंखें खोलने नहीं देती, वही उसी में रहने जाने के लिए विवश करती है, वह हो जाने को मन होता है। ये वस्तुतः उसी का छोटा सा प्रस्फुटन है। जो आत्मा का स्वभाव है,

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