आध्यत्मिक जीव को जब कठिनाइयां आएं तो उसे यह अवश्य जान लेना चाहिए।

आध्यत्मिक जीव को जब कठिनाइयां आएं तो उसे यह अवश्य जान लेना चाहिए।

अध्यात्म पथ का साधक सोचता है मन के धरातल पर मैं किसी का बुरा नहीं चाहता/चाहती। किसी के प्रति दुर्भाव आ भी जाता है, आ जाता है स्वाभाविक, तो भी कुछ समय उस भाव पर व्यतीत करने के उपरान्त मुझे अच्छा नहीं लगता। दुर्भाव आ भी जाए तो, कैसा भी; पर फिर भी मेरे सामने ये विचित्र कठिनाइयाँ क्यों? क्या मेरा पवित्र होना ठीक नहीं? क्या मेरा साधना में संघर्ष करना ठीक नहीं अर्थात अपने आप से लड़ना ठीक नहीं? तो फिर आखिर ऐसी प्रतिकूलताएँ मेरे मार्ग में क्यों? मैंने अध्यात्म पथ पर कदम बढ़ा दिया, साधना आरम्भ कर दी पर कोई न कोई कठिनाई सामने आती है। तो फिर अध्यात्म क्यों आश्वासन देता है? ईश्वर का विश्वास क्यों कहा जाता है कष्टों को हर लेता है आदि? क्या वह सब सच नहीं है? यदि है तो फिर मैं इस परिस्थिति में बार-बार क्यों? किसलिए?

यह संशय स्वाभाविक है। पर साधक एक बात भूल जाते हैं, वह यह कि वातावरण उनके नियन्त्रण में नहीं है। उन्होंने साधना के द्वारा जो भी प्रभाव उत्पन्न किया परिवर्तन किया वह 'अपने मानस के मण्डल में' किया है, 'अपने मानस के मण्डल में'; जिससे उनमें पवित्रता अनेक अंशों में हो रही है, अभी हुई नहीं, हो रही है। पर वातावरण तो वैसा ही है न जैसा काल का प्रवाह है? काल का प्रभाव है वह तुम्हारे नियन्त्रण में नहीं है। तुम्हारे लिए वह विशेष रुप से अलग नहीं है। वही काल, वही परिस्थिति, परिवेश अन्य किसके सामने ऐसा नहीं हुआ? बड़े से बड़ों के सामने ऐसा हुआ।

तो फिर मेरा अध्यात्म पथ पर कदम बढ़ाना?
वह तुम्हारा अपना स्वार्थ है।
स्वार्थ?
हाँ बहुत बड़ा शब्द है, मैंने पूर्व में भी इस पर सत्संग में उल्लेख किया हुआ है। काश हम स्वार्थ को समझ पाते, संकीर्णता अलग है narrow mindedness, promiscuity. स्व का अर्थ जिसने जान लिया उसका तो आत्म साक्षात्कार हो गया। स्व का अर्थ जिसने नहीं जाना वह कहीं नहीं पहुँचा। इसलिए स्व का अर्थ जानने वाले का तो आत्म साक्षात्कार हो गया। स्वार्थ शब्द बदनाम हो गया जबकि इसके स्थान पर 'संकीर्णता' होना चाहिए था narrow mindedness. हमने स्वार्थ को संकीर्णता के रंग में ऐसा रंग दिया कि अब 'स्वार्थ' शब्द आते ही लगता है बड़ी नीच बात है। जबकि मैं कई बार विचार करता हूँ कि दो शब्द जुड़ कर के बने स्व + अर्थ और हम अपना अर्थ साधने की ही तो चेष्टा करते हैं।

मैं क्या हूँ who am I? अपना ही अर्थ जानना चाहते हैं न? अध्यात्म पथ का साधक आन्तरिक शान्ति, आन्तरिक स्थिरता, आन्तरिक जागृति - शान्ति स्थिरता और जागृति अपने स्व के अर्थ रूप में अर्जित करते चले जाते हैं। बाहर प्रभाव नहीं है, प्रतिकूलताएँ वैसी ही रहती हैं, कुछ कर्म बन्धनों के कारण भी होती हैं, कुछ काल के परिवेश के कारण भी होती हैं। हर चीज हम एक ही बात पर नही डाल सकते कि सब कुछ भाग्य वश ही हो रहा है। नहीं, काल के परिवेश में भी बहुत कुछ होता है, जिसका भाग्य से कोई सम्बन्ध ही नहीं है तो भी, होता है।

एक साधक को एक बात नक्की कर लेनी चाहिए कि वह अपने आप को और अपने उद्देश्य को, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं सोचे, तब तो साधना सफल है, अन्यथा नहीं। अन्यथा भटकाव है, अन्यथा आपके सामने आने वाली हर चुनौती आपके मन में प्रश्न खड़ा करेगी कि यह मेरे साथ क्यों हुआ? मेरी आस्था, मेरा तप, मेरी ऊर्जा कहाँ गई? क्या यह सब बेकार है? नहीं, कुछ भी व्यर्थ नहीं है। यदि अनीति बेकार नहीं है, पापकर्म बेकार नहीं है, बाहर की प्रतिकूलता बेकार नहीं है तो यह मान लो कि तुम्हारी साधना, तुम्हारा तप, संघर्ष, वह भी बेकार नहीं है; पर हर एक का अपना महत्त्व है। धीरे-धीरे तुम्हारी अध्यात्म की साधना तुम्हारे तप को बढ़ाती जाती है; बाहर कुछ न भी बदले तो भी।

यह असमंजस हर काल में साधक के साथ रहा है और रहेगा, कब तक? आदिकाल तक। हर साधक के मन में असमंजस रहेगा, बाहर की परिस्थितियाँ, उनके प्रभाव और उसके अपने प्रयास, हर बार परस्पर मेल नहीं खाएँगे। कभी मेल खाएँगे कभी नहीं खाएँगे, कभी संयोग बैठेगा कभी नहीं बैठेगा। यह बैठेगा नहीं बैठेगा, मेल खाएँगी नहीं खाएँगी, ऐसा इसलिए क्योंकि सारी रची हुई सृष्टि अनित्य के सिद्धान्त पर रची गई है। nothing is permanent, केवल आत्मा नित्य है, केवल वह नित्य है बाकी कुछ भी नहीं।

सब कुछ, यहाँ तक उन्होंने कहा कि ब्रह्मा की अवस्था भी अर्थात ब्रह्मा की सक्रिय होने की आयु भी सीमित है, वह भले ही कितने खरब वर्षों में हो; वह भी नित्य नहीं है। ब्रह्मा को भी यह लीला समेटनी पड़ती है। ब्रह्मा की आयु अर्थात उसकी सक्रियता, मैंने 'ब्रह्म' शब्द नहीं कहा, कहीं तम कहो कि 'ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या' फिर कैसे हुआ? मैंने 'ब्रह्मा' अर्थात जो creation है, Creation, not Creator, उसकी आयु है। हम कई बार Creation को ब्रह्मा की आयु भी कह जाते हैं, वह कहने को कहा जाता है इस रूप में जबकि ब्रह्मा Creator है; वस्तुत: संकेत सृष्टि की ओर है। सृष्टि अनित्य के सिद्धान्त पर आधारित है उसमें कुछ भी स्थिर नहीं है, लहरों की भाँति ज्वार भाटे आते हैं लहर आती है चली जाती है। इसीलिए साधक को यह स्मरण रखना चाहिए कि बहुत बार जीवन में संयोग बैठेगा, बहुत कुछ ठीक-ठीक होगा, ठीक-ठीक लोग मिलेंगे, ठीक-ठीक परिस्थिति होगी, ठीक-ठीक साधन जुटेंगे और सब कुछ ठीक होगा; और फिर कभी सब कुछ ही बिगड़ जाएगा। न ठीक समय, न ठीक लोग, न ठीक परिवेश, कुछ भी ठीक नहीं और फिर कई बार साधक माथा पीटता है ऐसा क्यों? मेरे साथ क्यों?

मत भूलो! सृष्टि अनित्य के सिद्धान्त पर आधारित है, नित्य नहीं है, इसमें कुछ भी स्थिर नहीं है। कहीं बहुत तप हुआ और कहीं वहाँ बहुत कुछ अलग भी हो गया क्योंकि सृष्टि अनित्य के सिद्धान्त पर रची गई है, नित्य नहीं है। हाँ हर एक का प्रभाव है, यह सोचकर तुम अपने आप को संशय में डाल दो कि आखिर मेरी उपासना, मेरा तप कहाँ गया? फिर क्या यह सब मन्त्र, ऊर्जा, ब्रह्म ऋषियों का ध्यान, सब बेकार है क्या? तो अपने आप को यही स्मरण कराना।

क्या यह आश्वासन है?
कई बार बुद्धि यह सोचती है अफीम की गोली देकर के क्या मुझे आश्वासन देकर के आगे ले चल रहे हो?
मेरा प्रश्न एक ही है, पूछो फिर अपने आप से। पूछो फिर अपने आप से कि उचित क्या है? क्या वह अनीति उचित है जो बाहर है? पूरी सृष्टि इसी पर आधारित है। एक साधक ने मुझे लिखा था, "कि ये सारे प्रयास क्यों? पूर्ण पुरुष तो कोई हो नहीं सकता"।
सत्य है, पूर्ण पुरुष कोई नहीं हो सकता क्योंकि सृष्टि इसी सिद्धान्त पर आधारित है, पूर्ण पुरुष कोई नहीं हो सकता, सारे अपूर्ण हैं अपने-अपने अंशों में। क्योंकि रची हुई सृष्टि पर आधारित हैं न हम, वही अपूर्ण (अनित्य) है। पृथ्वी जिसे हम स्थिर कहते हैं वस्तुत: तो घूम ही रही है न? इसीलिए कभी भी मन में ऐसा संशय आए तो यह मत समझना। क्योंकि नकारात्मक विचार के पास एक अन्तिम तीर होता है यह कहने का कि 'कुछ नहीं यें बातें सब आश्वासन हैं'। यह नकारात्मकता का बड़ा शक्तिशाली तीर है।

नहीं, यह आश्वासन नहीं है। रात भी एक सत्य है, दिन भी एक सत्य है। 'रात में दिन' मिथ्या सा दिखता है, और 'दिन में रात' मिथ्या सी दिखती है। दोनों अपने आप में सत्य हैं पर सबसे बड़ा सत्य क्या है? सूर्य का अस्तित्व! वह रात में भी कहीं जाता नहीं है। यदि चन्द्र थोड़ा सा प्रकाश देता है तो वह भी सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशित होकर के देता है। और यह भी सत्य है कि यदि सूर्य यहाँ नहीं है तो कहीं अन्यत्र चमक रहा है, सूर्य गया कहीं नहीं है। यह ठीक है प्रतीति के पड़ाव रात और दिन की भाँति होते हैं। जिसके मन में भी संशय आए कि 'आश्वासन तो नहीं?' तो नहीं, नीति सत्य, अगर अनीति भी सत्य; सत्य अर्थात हाँ होती है क्योंकि समुद्र मन्थन है। इसलिए कभी अपने आप को भटकाना मत!

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