आदिगुरू शंकराचार्य जी द्वारा रचित 'आत्मबोध'
आत्मबोध - विज्ञानमय कोष की वह साधना जिसके द्वारा केवल एक ही बात टटोलने की चेष्टा होती है 'मैं क्या हूँ? कौन हूँ?'। उस 'मैं' की प्रतीति को खण्डित करने के प्रयास में भले ही जन्मों लग जाएँ, 'मैं की प्रतीति' अस्तित्व नहीं प्रतीति, वह खण्डित करने में भले ही जन्मों लग जाएँ पर वही एक मुक्ति का साधन है। यह अकाट्य है, शेष सब तैयारियाँ हैं, अनेकों प्रकार की तैयारियाँ जो साधक अपनी यात्रा उत्कर्ष अभिरुचियों के अनुरूप अपनाते बदलते भी हैं। पर मूल वह प्रतीति रूपी 'मैं' का खण्डन, 'अहं के आकार का सात्विक स्वरूप' का जो विलय है वह विलय आत्मबोध से ही है। उसी 'आत्मबोध' का महत्त्व जताते हुए अनेक शब्दों के द्वारा आदिगुरू शंकराचार्य उसी बात को पुष्ट करते जा रहे हैं जो अनेकों उपनिषदों ने प्रश्न, उत्तर, समाधान अनेक स्वरूपों में किया। नित्य-अनित्य का भेद, आत्मा नित्य बाकी सब अनित्य।
उस नित्य अनित्य के भेद को आत्मबोध की कक्षा के द्वारा आइए अगले श्लोक पर चलते हैं:
परिछिन्न (सीमित) इव (आत्म)
अज्ञानात तन नाशे सति (सजगता)
केवल: (बिखराव समाप्त) । स्वयं प्रकाशते
ह्यात्मा मेघापायेम् ऽशुमानिव ।४। (जैसे बादलों के छटने पर सूर्य)
परिछिन्न इव - यह आत्मा, इसका जो सीमित स्वरूप अभी हमें ज्ञात है, आत्मा अर्थात अभी हम तो यह जानते भी नहीं कि 'हम आत्मा भी हैं'। सच तो यह है कि हम सुनते हैं और मान लेते हैं। ज्ञानियों ने कहा, ऋषियों ने कहा, आर्षग्रन्थों ने कहा, मान लेते हैं। साक्षात्कार तो नहीं हुआ, पर मानते हैं न? यह हम इसलिए मानते हैं क्योंकि आज हमारी जो क्षमताएँ है वे बहुत सीमित हैं। आज हम इतने कटे-बटे अधूरे हैं, अभाव अज्ञान अशक्ति से ग्रस्त हैं कि हम चाहकर भी वह अनुभूति नहीं ले पाते जो अजन्मा अनादि और सर्वव्यापक भी हो सकता है। जो स्वयं में ईश्वर भी हो सकता है वह अनुभूति चाहकर के भी नहीं होती। क्योंकि आज जो स्वरूप हमारा है जो 'मैं के रूप में प्रतीति' हमारी है, जो 'मैं के रूप में परिणति' है हमारी सजगता की। वह बडी आधी-अधूरी है वह अभी बहुत बिखरी हुई है वह अभी विक्षिप्त है वह अभी एकाग्र भी पूरी तरह नहीं हुई। कहाँ वह एकाग्र, फिर उसके बाद निरुद्ध, फिर उसके बाद आगे की यात्रा; वह अभी विक्षिप्त है। विक्षिप्त अवस्था में अपना ही नहीं पता तो कैसे जानें कि आत्मा अजन्मा अनादि और ईश्वर अंश के रूप में व्यापक हैं? अनुभव नहीं होता।
साधक को बीच-बीच में छुटपुट चिंगारियाँ तो दिखती हैं, छुटपुट चिंगारियाँ दिख जाती हैं। जैसे कभी आप किसी दिव्य क्षेत्र में जाएँ, किसी भी बड़े दिव्य क्षेत्र में जो बहुत सिद्ध क्षेत्र हो, तो कई बार रात को साधकों को आकाश में बड़ी तीव्र गति से तारे, तारे की तरह से कुछ गमन करता हुआ दिखाई देता है। अत्यन्त तीव्र गति से कोई तारा निकल गया। वे सोचते हैं तारा टूटा ईत्यादि सोचते हैं। पर हर बार ऐसा नहीं होता। श्रेष्ठ महान सिद्ध जीवात्माएँ जब गमन करती हैं तो कई बार साधकों को भी इस प्रकार के दर्शन होते हैं। आप हिमालय जाएँ कैलाश जाएँ इन क्षेत्रों में विशेष रूप से रात्रि में यह दृश्य साधकों को दिख जाता है वे इसे कुछ भी समझें पर सत्य तो यही है। अभी हमारा स्वरुप इतना कटा बटा है कि हम उसे भी ठीक से भाँप नहीं पाते। जो आँखों से दिख भी रहा है आँखों से दिखने वाली सृष्टि के भी रहस्य और मर्म को हम पूरी तरह नहीं जानते क्योंकि हम अभी सीमित अवस्था में हैं। आत्मा अभी जीवात्मा है, उस पर अज्ञानता के पाँच आवरण हैं। जब तक मेरे और तुम्हारे वे अज्ञानता के आवरण नहीं जाएँगे, अनुभव नहीं होता।
परिछिन्न इव अज्ञानात - 'इव' संकेत है इस आत्मा के प्रति। जब तक इसके सीमित स्वरूप रुपी अज्ञान का नाश नहीं होगा, सति शब्द यहाँ सजगता के लिए दिया गया है awareness, absolute awareness. जब तक नाश नहीं होगा, सति केवल: 'केवल:' शब्द का यहाँ अभिप्राय है 'बिखराव समाप्त', अपने स्वरूप को प्राप्त हो जाना, स्वरूप सुख आत्म सुख, उसे केवल: कहा just be only that यहाँ संकेतों में कहा गया है। जब तक अपने सीमित स्वरूप रूपी अज्ञान का नाश (सीमित स्वरूप जिसका अभी हमें ज्ञान है), हमें अपना सीमित स्वरूप ही पता है न? जब तक इस सीमित स्वरूप रूपी अज्ञान का नाश नहीं होगा, सजगता पूरी तरह प्रकाश से जागृत नहीं होगी, स्थापित नहीं होगी। यह अपने मूल स्वरूप को 'आत्मबोध' नहीं हो पाता और जब यह होता है तब:
स्वयं प्रकाशते ह्यात्मा - आत्मा स्वयं प्रकाशित है वह तो पहले से ही प्रकाशित है। उसे क्या लगाना? उसे कोई वोल्टेज भी कोई तेज नहीं करनी है, उसके तो आसपास के आवरण छँटने हैं जैसे
मेघापायेम् ऽशुमानिव - जैसे बादलों के छटने पर सूर्य का प्रचण्ड स्वरूप जो पहले से ही था कहीं नहीं गया था। उसमें कुछ भी घटा-बढ़ा नहीं है, घट-बढ़ हुई है तो आवरण में। काले बादल आ गए दिन में भी अँधेरा हो गया। बादल छँट गए खिल गई धूप चारों तरफ, प्रकाशित ऊष्मा ऊर्जा से अच्छादित। कुछ ऐसा ही, आदिगुरू कहते हैं कुछ ऐसा ही मनुष्य के उस बोध की अवस्था में होता है जब वह आत्मबोध को प्राप्त होता है, सब कुछ उसे भीतर से प्राप्त होना आरम्भ हो जाता है, उसे बाहर से कुछ नहीं चाहिए। आत्मतृप्त आत्मलीन आत्मतुष्ट, उसे कुछ नहीं चाहिए वह अपने आप में सम्पूर्ण है। उसकी सम्पूर्णता खण्डित है उसकी प्रतीति में उसकी प्रतीति में; उसकी प्रतीति। वह ठीक है कि सब प्रकृतिवश है यह है तो प्रकृतिवश not by choice, my choice or your choice. मेरी और तुम्हारी choice पर छोड़ा जाए तो हम कहेंगे खत्म करो ये टंटे सारे। आज ही बादल हटा दो आज ही प्रचण्ड सूर्य कर दो बस टंटा छूटे रोज-रोज।
यह हमारी choice में नहीं है ये ईश्वर की रची सृष्टि के अन्तर्गत में नियम हैं। ईश्वर - अनुशासन को वरण करने वाले ने एक अनुशासन हमारे लिए भी बनाया है जिसमें उत्कर्ष को भी हम प्राप्त होंगे। मैंने कई सत्संग में बार-बार कहा - यह कभी मत पूछना आखिर ऐसा क्यों करता है वह? क्योंकि 'इस क्यों' का उत्तर कोई नहीं दे सका। इसलिए नहीं दे सका क्योंकि रचयिता ही स्वयं जानता होगा why? उस why का उत्तर नहीं है। how के उत्तर तो हैं, how का विस्तार है पूरा विज्ञान है परन्तु why का नहीं है। why का कोई संकेत नहीं मिलता, कहीं नहीं मिलता। याज्ञवल्क्य ने गार्गी को भी कहा 'गार्गी! उलझ जाओगी कुछ नहीं मिलेगा, इस प्रश्न को छोड़ दो बाकी सब पूछो, सब जानने की चेष्टा करो'। हमारे साथ भी यही है क्योंकि बीच-बीच में बुद्धि पूछती है न? why the hell all this ruckus क्यों? किसलिए? बुद्धि का पूछना बिलकुल वैधानिक है उसे पूछना चाहिए? पर साथ-साथ अपनी सीमाओं को जानकर भी आगे बढ़ना है। आत्मा परिपूर्ण है, यह एक ही बात कि आत्मा परिपूर्ण है, पर चूँकि उसकी प्रतीति अभी खण्डित है, वह अपने 'मैं' को अभी अनेक रूपों में कटा-बटा अधूरा मानती है। मानती मने उसकी प्रतीति उसे देती है इसलिए उसको कुछ नहीं पता, जिस दिन यह अज्ञानता का आवरण इस 'मैं' की साधना में छँट जाएगा उस दिन सूर्य पहले से ही भीतर है, प्रचण्ड होकर सामने आएगा]
यह भाव आदिगुरू शंकराचार्य जी का हमें अनेकों रूपों में स्मरण कराता है और यह स्मरण करना ही सबसे बड़ा अध्यात्मिक उत्कर्ष का एक रहस्य भी है। इन श्लोकों के माध्यम से बार-बार आत्मबोध की पुनरावृत्ति एक अध्यात्मिक साधक के लिए बहुत बड़ा अनुदान वरदान है।