भटकते मन को वैसे जैसे दाना दाना बीन कर लाते

भटकते मन को वैसे जैसे दाना दाना बीन कर लाते

जैसे बिखरे हुए मोती इकट्ठा करके माला बनाते है उसी प्रकार ध्यान में भी सजगता के लिए हम एक-एक पल इकट्ठे करते हैं।

सजगता बिखर जाती है, भटक जाती है, कल्पना में, विचारों में, इन सब में बिखरी हुई सजगता के पल को एक-एक करके बीनते हैं। और साधक के लिए तो यह बहुत सहज होना चाहिए। सहज इस दृष्टि से नहीं कि ऐसा क्यों होता है? क्यों का प्रश्न नहीं है यहां, मुझे ऐसा करना है, मुझे ही इसे करना है। साधक के मन मे बस यही भाव रहना चाहिए की सजगता को इकठ्ठा करना ही होगा।

मेरा मन क्यों भटकता है ऐसा नहीं सोचना है, मुझे तो बस अपना मन बीन करके लाना है, ध्यान मे ऐसा ही सोचोगे, तो द्वंद्व समाप्त हो जाएगा। ऐसा विचार करने से अपने आप से खिन्नता नहीं होंगी। साधक का धर्म है अर्थात उसका दायित्व है की वह अपनी सजगता के बिखरे पल पूरे मानस मंडल से बीन कर लाना है। ध्यान के बीच-बीच में अपने आप को सजग करना है और फिर से वापस आना है। जो बार-बार वापस आना है वही साधना है।

इसी प्रकार सजगता के बटोरे गए पल धीरे-धीरे साधक के लिए एक लंबा अंतराल बनते हैं। एक लंबा अंतराल जिसमें लंबे समय के लिए साधक एकाग्र चित्त हो सकता है।

विषय खिन्नता का नहीं है कि मन टिकता नहीं। आज से अपना यह विषय बदल दो और यह सोचो कि मेरा स्वधर्म यही है की मुझे बिखरी हुई सजगता के पल इकट्ठे करने हैं। और जितना संभव है उतना मैं करूंगा, खिन्न बिल्कुल नहीं होना है अपितु अपने धर्म का निर्वाह करना है। यहीं साधना है। भटकाव बहुत होता है उसकी चिंता मत करना उसका तो साम्राज्य है अपना, तुम अपने आप को ढूंढो, साम्राज्य को मत देखो, तुम केवल अपने गणराज्य को देखो, तुम कहां हो, तुम्हारी स्वप्रभुता कहाँ है। वह तुम्हारे भीतर ही है, उसे खोज के बीनो, इकट्ठा करो, अभ्यास बड़ेगा और एकाग्रता की यह अवधि लंबी होगी। बाकी सब भी आवश्यक है जैसे संयम इत्यादि। वो भी बहुत आवश्यक है। आज से सोच बदल देना है। ट्रांसक्रिप्शन सुजाता केलकर

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