साधकों को जीवन की प्रतिकूलताओं पर कैसे मन बनाना होगा

साधकों को जीवन की प्रतिकूलताओं पर कैसे मन बनाना होगा

अध्यात्म में चलने वाले साधक को एक विचित्र अनुभव का सामना जीवन भर करना पड़ता है॥ अब अनेक वर्ष बीत गए इसलिए मैं यह कह सकता हूँ कि जीवन भर विचित्र अनुभव करना पड़ता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है॥ क्या? अध्यात्म मार्ग पर चलते हुए वह बाहर की प्रतिकूलताओं से बच नहीं पाता॥ अर्थात उसके आसपास, उसके व्यवहार में, उसके जीवन में अटपटा घटता ही रहता है॥ उसे कई बार अपने आप पर बड़ा खेद होता है मैं अध्यात्म में हूँ पूरी तन्मयता से साधना में रत हूँ, अनुष्ठान करता हूँ करती हूँ ध्यान करता हूँ करती हूँ॥ प्रतिपल मन में एक ही भाव कि मुझसे किसी का गलत न हो जाए मैं किसी के लिए अहित का कारण नहीं बनूँ॥ यदि गलती से हो भी जाता है तो मन स्वत:ही भीतर तत्काल दु:खी होता है मुझसे गलत हो गया मैं इसका क्या प्रायश्चित करूँ? मैं इससे मुक्त कैसे हो जाऊँ? मैं इस कर्म बन्धन में नहीं बँधना चाहता नहीं बँधना चाहती हूँ॥ अर्थात सजगता विकसित हो जाती है कि गलत चाहकर भी होता नहीं और यदि हो जाए तो उसके प्रभाव को निर्मूल करने के लिए diffuse के लिए, साधक विचलित हो जाता है॥ पर उसका कोई भी प्रभाव अपने प्रति आसपास बहुधा दिखता नहीं है अथवा कम दिखता है॥

जब साधक के साथ ऐसी विकटताएँ सामने आती है तो प्रश्न बार-बार खड़े होते हैं आखिर ऐसा मेरे साथ क्यों हो रहा है़? मैं तो इस पथ पर हूँ मैं तो इस मार्ग पर हूँ मैं तो केवल कल्याण ही सोचता सोचती हूँ फिर भी मेरे साथ ऐसा क्यों?

उसका सोचना गलत नहीं है पर यह आधी सोच है पूरी नहीं है॥ पूरी सोच क्या है? पूरी सोच नहीं पूरा यथार्थ है॥ क्या? समुद्र मन्थन कभी किसी एक काल में हुआ होगा यह पुराणों की गाथा है, हुआ होगा मान लेते हैं॥ पर समुद्र मन्थन क्या केवल एक ही बार घटा होगा ? असम्भव है, समुद्र मन्थन प्रतिपल चल रहा है॥ कहाँ नहीं है समुद्र मन्थन ? समुद्र मन्थन कहाँ नहीं है? क्या तुम्हारे जीवन में इस वर्तमान प्रवाह में नहीं है? प्रतिपल समुद्र मन्थन है॥ समुद्र मन्थन के लिए तो मनुष्य के शरीर की कोई कोशिका नहीं बची कोई कोशिका नहीं बची, कोई जीवाणु नहीं बचा जहाँ समुद्र मन्थन नहीं चल रहा॥ कोई पदार्थ नहीं है जहाँ समुद्र मन्थन नहीं चल रहा॥ समुद्र मन्थन हर स्थान पर चल रहा है और जहाँ समुद्र मन्थन होगा वहाँ मानकर चलना कि वहाँ आदि शिव होंगे॥ अब उन्हें आप उस रूप में मत मानो, आदि शिव को जो जगत का कारण है उसे केवल उतना मत मानो जितना सशरीर हमने उनकी आकृति रची और उन्होंने हमारे भाव रूप में स्वीकार कर ली॥ वे केवल उतने नहीं हैं उनकी व्याप्ति का स्वरूप तो वायु की भाँति है उससे भी सूक्ष्म है॥ वह हर स्थान पर है हर स्थान पर उनका होना अनिवार्य है॥ वहीं देव वृत्तियों का होना भी आवश्यक है अन्यथा मन्थन नहीं होगा॥ अभी भी अधूरा है, असुरों का होना भी आवश्यक है यह हम जानते तो हैं कुछ-कुछ जानते हैं पर पूरी तरह मानने को तैयार नहीं हैं॥

विडम्बना यही है कि हम यथार्थ को पूरी तरह मानने को तैयार नहीं कि जहाँ मन्थन होगा, और मन्थन कहाँ होगा? उसके बिना कोई स्थान बचा ही नहीं इस सृष्टि में जहाँ मन्थन न हो॥ मन्थन प्रतिपल हर स्थान पर हो रहा है जड़ चेतन दोनों में हो रहा है॥ जहाँ मन्थन है वहाँ आदि शिव है और जहाँ आदि शिव है वहाँ देव शक्तियाँ हैं और जहाँ देव शक्तियाँ हैं वहाँ असुरों की उपस्थिति भी है॥ वे अपना प्रभाव दिखाते हैं पर हमें अपने अस्तित्व में रहना है॥ हमारा अस्तित्व दुष्प्रभावित न हो यही साधना है और क्या हमारे मन पर उसका दुष्प्रभाव नहीं आएगा? जब जीवन मे कोई विकटता, कोई इस प्रकार की दु:खद घटनाएँ, अप्रिय घटनाएँ मैं कहूँगा, जो अच्छी नहीं लगती बस होती हैं हमारे साथ तो क्या देव वृत्ति का जीव अध्यात्मिक साधक दु:खी नहीं होगा? क्या उसे दु:खी नहीं होना चाहिए? नहीं मैं यह नहीं कहूँगा कि उसे दु:खी नहीं होना चाहिए पर मैं यह निश्चित रूप से यह अवश्य कहूँगा कि अन्ततोगत्वा उसे स्वयं ही उठाना है स्वयं ही जगाना है और स्वयं ही अपने शिव को पकड़ना है क्योंकि शिव के बिना अस्तित्व इन दोनों का नहीं है न असुर का न देव का॥ दोनों अस्तित्व विहीन हैं इनके बिना इन्हीं में विलय हैं दोनों॥

गंगा के तट पर ब्रह्म ऋषि महात्मा तैलंग स्वामी जी से ब्रह्म ऋषि स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी ने पूछा था देव और असुर इन दोनों का स्रोत, उन्होंने आकाश की ओर उँगली उठा कर संकेत कर दिया था दोनों एक ही स्थान से आए हैं॥ शिव की बारात भी वहीं है और शिव के भक्त भी वहीं है॥ उनकी बारात और उनके भक्त वहीं है॥ भक्तों को मार्ग निकाल कर के चलना है अपने आप को समझाकर के अपने शिव तत्त्व को पकड़ कर चलना है॥ जो यह मान ले कि मैं बड़े महानगर में सड़क पर चलूँ और ट्रैफिक न हो, होगा॥ क्या ट्रैफिक पूर्ण मेरे नियन्त्रण में होगा? नहीं होगा॥ तो मैं यात्रा छोड़ दूँ? नहीं, यात्रा नहीं छोड़ी जा सकती॥ फिर प्रतिदिन इतना कष्ट लेकर के जाम में से होकर निकलना उसपर अनेक लोग बहुत विकृत दृष्टि से देख जाते है, जरा सी बात पर, गलती न हो तो भी॥ तो क्या गाड़ी में जाना छोड़ दें? क्या कहते हैं अपने आपको? छोड़ो हटो, आगे चलो, कई बार यह कहना आसान होता है कई बार आसान नहीं होता॥ फिर भी विकल्प नहीं है, तो क्या ईश्वर ने हमारा हाथ नहीं पकड़ा, क्या ईश्वर ने हमारा संरक्षण नहीं किया? ऐसी घटनाएँ ऐसे लोग ऐसा व्यवहार हमारे प्रति कभी हुआ ही नहीं? ईश्वर ने कभी हाथ न पकड़ा होता तो तुम्हारे भीतर इतनी सजगता जागृत ही न हो पाती॥ तुम चाह कर भी बदलना चाहो तो बदल नहीं सकते हो॥ क्यों? क्योंकि ईश्वर ने हाथ पकड़ा है पर तुम्हें उस यथार्थ को स्वीकार कर के उसमें चलना पड़ेगा॥ यह सब भी होगा, विकट भी होगा प्रतिकूल भी होगा॥ प्रतिकूलताएँ आएँगी विचित्र आसुरी प्रवृत्ति के लोग भी समक्ष आएँगे॥ उनमें से होकर के निकलना है अपने शिव तत्त्व को पकड़ कर चलना है॥ शिव परास्त नहीं होने देगा, पीठ नहीं लगने देगा युद्ध तुम्हें करना है आगे तुम्हें बढ़ना है अपने आप को सँभालना ही सबसे बड़ा जीवन संग्राम है॥ जीवन संग्राम और कुछ है कि नहीं मैं नहीं जानता मेरा अनुभव कहता है॥ अनुभव कहता है कि अपने आप को सँभालकर के अपने मार्ग पर चलते रहना ही जीवन संग्राम है॥ जहाँ बाहर कोई नियन्त्रण नहीं जो कुछ नियन्त्रण है अपने भीतर है॥ बहुत दुख हुआ किसी घटना से, बहुत प्रभावित हुए किसी घटना से तो हो सकता है कुछ दिन चले॥

मैं यह नहीं कहता कि किसी ने कुछ बहुत अप्रिय बोल दिया अपमान कर दिया और आप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा॥ पड़ेगा बहुत दुख होगा प्रतिशोध की भी बात मन में आएगी पर उससे कुछ दिन तो आप पीड़ित रहोगे पर उसके उपरान्त अध्यात्म पथ का साधक धीरे-धीरे उभरता है॥ कौन उभारता है उसे नहीं पता कौन उभारता है चेष्टा वह करता है पर उभारने वाला पहले भी साथ था अब भी साथ है॥ क्योंकि उसे उस देव तत्त्व को और विकसित करना है॥ असुर हों तो भी आने वाले समय में उसे प्रभावित न करें॥ वह ऐसी राह पर आ जाए, ऐसा देवरहा बन जाए कि जहाँ असुर भी सामने हैं तो उसको प्रभावित नहीं कर पा रहे, वह उनसे प्रभावित नहीं है॥ फिर महात्मा तैलंग स्वामी की भाँति सहर्ष चूने का पानी पी जाएँगे और पीड़ा किसको होगी जो पिलाने आया था छाछ समझकर॥ यह स्थितियाँ फिर धीरे-धीरे बनती हैं॥ ईश्वर ने हाथ पकड़ा न हो शिव का हाथ न हो तो उत्कर्ष हो नहीं सकता उसकी सृष्टि का नियम है यह॥ इसलिए अध्यात्म पथ के साधक को अपने आप को दो बातें समझाकर चलनी है॥ यूँ तो बहुत कुछ है समझने के लिए है, केवल ये दो नहीं॥ किन्तु उनमें दो मुख्य मानो:
1) शिव के बिना, शिव अर्थात परमेश्वर परमात्मा, शिव के बिना तुम इस पथ पर रह ही नहीं सकते
2) इन प्रतिकूलताओं को तुम रोक नहीं सकते तुम्हें स्वयं सँभलना है स्वयं को सँभालना है, समय लगे तो भी
कई बार एकदम बात नहीं बनती, न बने तो भी॥ जिससे तुम्हारा देव तत्त्व पुष्ट होते हुए उस अवस्था को प्राप्त हो जाए जहाँ केवल शिव बचे, शिव के अन्तर्गत आने वाला अशिव भी तुम्हें प्रभावित न कर पाए॥ यह भाव साधक को विशेष रूप से दृढ़भूमि कर लेना होगा, दृढ़भूमि, बहुत गहराई तक॥

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