आदि गुरु शंकराचार्य जी द्वारा रचित आत्मबोध श्लोक 23...
रागेच्छासुखदुःखादि (राग, इच्छा, सुख, दुःख आदि) बुद्धौ सत्यां (मन बुद्धि सक्रिय द्वारा) प्रवर्तते (अनुभव में आते),सुषुप्तौ (सुसुप्ति) नास्ति तन्नाशे (तत नाशे) तस्मात बुद्धेः (अतः यह मन के विषय) तु न आत्मनः (न कि आत्मा के)- 23
श्लोक का मर्म क्या है? राग और इच्छा, राग कहते हैं, आकर्षण को। इच्छा कहते हैं कामना को… राग अर्थात आकर्षण, जो हमारे पास है आकर्षण रहता है. इच्छा उसके प्रति जो हमारे पास नहीं है। सुख और दुख, सुख यहां पर लौकिक सुख को कहा है। जीवात्मा के स्वरूप सुख की बात नहीं है। यहां सुख शब्द को उस स्वरूप सुख आत्म सुख के रूप में नहीं लेना है, अपितु जो वृत्ति जन्य सुख है जो कंफर्ट की श्रेणी में इत्यादि में आता है, जो अस्थिर है, अभी है फिर नहीं है, यहां केवल उसको ही सुख मानना है। स्वरूप सुख को नहीं मानना, क्योंकि वह बहुत बड़ा शब्द है।
यूं तो सुख की परिधि में स्वरूप सुख ही आता है। तो राग, इच्छा, सुख और दुख, श्लोक कहता है कि जब तक हम जाग्रत होते है अनुभव में होते हैं। और जब हम गहरी निद्रा में चले जाते हैं सुषुप्ति अवस्था में डीप स्लीप जहां स्वप्न भी नहीं आते हैं यूं तो ये डीप स्लीप की अवस्था लोगों को प्रायः - प्रायः लोगों को कम अनुभव में आती है। पूरी रात सपना ही आते हैं, उठते हैं सवेरे तो अधूरी फिल्म को सपने में काट के उठते हैं। फिर भी यदा-कदा ही सही, साधकों तो अनुभव हो जाता है, यदा कदा ही सही ज़ब भी कभी गहरी निद्रा जहां कोई स्वप्न नहीं,, उस अवस्था में क्या कोई बोध रहता है? राग का, इच्छा का, किसी सुख का.. कोई बोध नहीं रहता। इसका तात्पर्य क्या हुआ?... कि जब तक ये मन बुद्धि रूपी उपकरण जागृत है,तब तक इसका बोध है जब ये सो गया तो इनका अस्तित्व है ही नहीं।
अर्थात यहां आत्मा के विषय को उस से पृथक किया गया है। तुम तो तब भी होते हो ना जब सुषुप्ति होती है, जब गहरी निद्रा है जब कोई बोध नहीं,,,ना नाम का ना पहचान का, ना प्रॉपर्टी का,,. कोई बोध नहीं होता तुम्हें। क्या तुम भी नहीं होते तभी? तुम तो होते हो, तुम हो और बोध कोई नहीं है क्योंकि जो कवरिंग है वो सब समाप्त है। तत् नाशे, उनका अस्तित्व उस समय नहीं है। जब उनका अस्तित्व उस समय नहीं है,,तब भी तुम तो हो ना! अर्थात तुम उन सब से पृथक हो, वो है तो भी तुम हो कहीं पीछे साक्षी के रूप में और नहीं है तो भी तुम हो... साक्षी के रूप मे। तुम वो नहीं हो अर्थात जो अनुभव कराते हैं राग इच्छा सुख दुख आदि। तुम अलग हो तुम्हें भले ही उसका बोध जागृत अवस्था में नहीं होता पर उसके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। एक उदाहरण देकर चेष्टा की है यह बताने की कि जब सुषुप्ति की अवस्था होती है, तब! तुम क्या होते ही नहीं हो क्या?.. तब तो उस समय कुछ exist नहीं करता, मतलब तुम कुछ और हो.. क्या हो? यही जानने का विषय है। मै कौन हूँ? पर तुम कुछ ओर हो जो वो सब नहीं है जो अनुभव कराता है। क्या?... सुख-दुख इच्छा आकर्षण इत्यादि। वो नहीं हो तुम... वो सोते हैं, जागते हैं,, तुम रहते हो तो फिर तुम क्या हो?..इसी का नाम तो आत्मबोध है।
यही धीरे - धीरे ब्रह्म ऋषि अनेक स्वरूपों में संकेतात्मक स्वरूप से बताने की की चेष्टा करते चले जा रहें है। आत्मबोध के श्लोक निरंतर कहीं छेड़ते हैं,, किसको? जो अभी तक की अभ्यस्त समझ में है, उसे आ के छेड़ते हैं। ऐसा देखो, ऐसा सोचा... तो बुद्धि जो अभी तक संशयात्मक मन के साथी थी वो एक बार के लिए तो प्रेरित होती है और बुद्धि को ही तो पकड़ना । मन के चंगुल से छुड़ा करके इसी बुद्धि ही को धियो यो नः प्रचोदयात् कराना है। इसी के द्वारा उत्कर्ष संभव होगा।