ब्रह्म मुहूर्त्त ध्यान उपरान्त सत्संग - आदिगुरू शंकराचार्य जी द्वारा रचित 'आत्मबोध' - श्लोक १५
पञ्चकोष आदि योगेन तत् तन्मय इव स्थित:।
शुद्धात्मा नीलवस्त्र आदि योगेन स्फटिको यथा ।१५।
पञ्चकोष आदि योगेन तत् - पंचकोषों पर तो अलग से भी कार्यशालाएँ हुई हैं और यथा क्षमता समय सीमा के अनुरूप उस पर उल्लेख भी आया है। यहाँ आदिगुरू कहते हैं पंचकोषों का सम्बनध उसके साथ किसके? आत्मा के साथ, 'तत्'। वह सम्बन्ध ऐसा बनता है कि वह दिखने में वैसा ही दिखने लगता है। जैसे ही उस पर आवरण आ जाता है (जैसा पिछले श्लोक में बताया गया कि पहली अविद्या जो अनादि है अनिवर्चनीय है वह कारण शरीर ही है), जैसे ही उसका अवतरण हुआ इन पंचकोषों की सम्भावनाएँ बन जाती हैं, आनन्दमय, विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय, अन्नमय।
यूँ तो कहने को अन्नमय ईत्यादि स्थूल शरीर से और पंचकोषों में बाकी के कोष, सूक्ष्म शरीर से जुड़े हुए आवरण माने जाते हैं। किन्तु वास्तविकता यह है कि अन्नमय कोष, कोष शब्द का अर्थ है खजाना Treasure, ये सारे के सारे कोष, अन्नमय कोष भी सूक्ष्म अवस्था में ही हैं। इसीलिए अन्नमय कोष के प्रभाव अगले जन्म तक जीवात्मा के साथ ही जाते हैं। स्थूल में तो वह (शरीर) दिखाई देता है पर जो कोष का भाग है वह बड़ा सूक्ष्म है। ये जितने भी कोष हैं ये आत्मा के साथ सम्बन्ध बनते हैं 'योगेन'। आत्मा तो निर्लिप्त है, मुक्त है। वह किसी के साथ योग कैसे बिठा लेगी?
सृष्टि की लीला ऐसी है, प्रकृति के सिद्धान्त ऐसे हैं कि आत्मा पर जब आवरण आकर के पड़ते हैं तो कुछ ऐसा होता है जैसे:
शुद्धात्मा नीलवस्त्र आदि योगेन स्फटिको यथा - जैसे किसी स्फटिक Crystal के सामने से, (Crystal - चमकने वाला पत्थर हम जानते हैं), उसके सामने से नीला कपड़ा निकाल दीजिए, तो क्या होगा? वह crystal अपने आप में कोई रंग नहीं रखता रंगहीन हैं, फिर भी वह सामने से निकलते हुए नीले कपड़े के कारण नीली छवि देना आरम्भ कर देता है। वह है पवित्र उसमें कोई रंग नहीं है। उसी प्रकार से वह शुद्धात्मा है, उसी स्फटिक क्रिस्टल की भाँति है, जिसका अपना कोई रंग नहीं, निर्लिप्त है पर सामने से पंचकोषों का आवरण जब आता है तो नीलवस्त्र की भाँति उसका एक संसर्ग होता है (यहाँ योग का तात्पर्य है केवल उतना संसर्ग मानना), संसर्ग होने से वैसी सी दिखनी आरम्भ हो जाती है वैसी होती नहीं है। आत्मा मुक्त थी, है, रहेगी। निर्लिप्त थी, है, रहेगी। तीनों गुणों से परे थी, है, रहेगी।
परन्तु पंचकोषों का जैसे ही सामने से एक पदार्पण होता है एक आवरण आता है तो तत्काल वह crystal की भाँति वैसी सी छवि प्रदर्शित करती है, वैसी हो नहीं जाती। उसमें अपने में कोई परिवर्तन नहीं आता, किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं। नीला कपड़ा यदि crystal के सामने से, स्फटिक के सामने से निकालें या सामने रख दें तो क्या crystal नीला हो जाएगा? नहीं होगा, दिखते हुए भी वह नीला नहीं होगा। कपड़ा हटा, क्रिस्टल अपने ही रंग में था, है, रहेगा। आत्मा भी आवरण आने पर पंचकोषों जैसे आवरण आने पर crystal की भाँति वैसी सी दिखनी आरम्भ होती है। आवरण छटते ही जैसी थी, है, रहेगी; आत्मा शुद्ध है।
हम लोग जब इसका उल्लेख करते हैं तो आप ध्यान कीजिए - जब कभी भी गहरी सजगता का ध्यान होता है तो क्या बोलते हैं? 'नित्य शुद्ध, नित्य बुद्ध, नित्य मुक्त', कहा जाता है न? 'नित्य शुद्ध, नित्य बुद्ध, नित्य मुक्त'; अत: आत्मा नित्य शुद्ध ही है पर crystal की भाँति पंचकोषों के आवरण आते हैं तो वैसी सी दिखती है, वे हट जाते है तो जो थी, वही है।
यह उन प्रश्नों का समाधान है कि आत्मा यदि मुक्त है तो फिर वह आत्मा हमें अपने स्वरूप में क्यों नहीं दिखती? हम अपने आप को इस स्वरूप में क्यों देख पा रहे हैं? हम यदि और भी भीतर जाएँ तो हम अपनी सूक्ष्म अवस्था को ही क्यों देख पाते हैं? और आगे जाएँगे तो कारण अवस्था को ही क्यों देख पाते हैं? क्यों नहीं आत्म स्वरूप में ही रह जाते? क्यों नहीं उस स्वरूप सुख को ही प्राप्त हो जाते? इसीलिए कहा कि लीला ऐसी रची गई है कि पंचकोषों के साथ एक संयोग है। यूँ तो आत्मा निर्लिप्त है, एक आवरण का संयोग होने से वैसी सी दिखनी आरम्भ हो जाती है!