तप करना कठिन तो है

तप करना कठिन तो है

तप करना कठिन तो है

तप कठिन ना हो तो उसका प्रभाव भी इतना तीव्र नहीं हो सकता। तप के द्वारा आत्म उत्कर्ष की गति बहुत बढ़ जाती है। तप अनुशासन मांगता है। अपने प्रति कठोरता मांगता है। कमियां तो वायु जल अग्नि में भी है, तो फिर मनुष्य कहां बचा उससे, मनुष्य में भी ये सभी कमियाँ है . पर तप के प्रभाव से, तप के कठोर अनुशासन से धीरे-धीरे जो अन्यथा जन्मों में संभव नहीं था वो जल्दी हो जाता है।

आवश्यक नहीं कि एक जन्म में ही समस्त परिष्कार पर चेष्टा प्रबल हो तो हो ही जाता है। एक जन्म में भले ही कठिन हो है । कठिन इसके लिए कि संस्कार और कर्म बंधन दोनों साथ चलते हैं। तपस्वी को प्रकृति मार्ग दे देती है, वह अपना धर्म भी छोड़ देती है । कठिनाइयां कम तो नहीं होती है, वह तो सामान्य जीवन क्रम के अंतर्गत जो निर्धारित हैं वह आती ही है। पर प्रकृति अपना मार्ग छोड़ देती है।

प्रकृति केवल एक ही स्तर पर नहीं है अर्थात संस्कारों भी प्रकृति ही हैं। संस्कारों की प्रकृति बहुत बड़ी है, जिसे चित्रगुप्त कहते हैं। चित्रगुप्त अर्थात हमारे अनुभवों की स्मृतियाँ ही प्रकृति का एक बड़ा भाग हैं। जिसमें जड़ जमाए बैठे है हमारे पुराने अभ्यास हमारे बंधन इत्यादि । तपस्वी के लिए प्रकृति वह मार्ग छोड़ देती है, जिससे उत्कर्ष हो सके।

जितने भी साधक जो साधनों में लीन हैं, वह निश्चित रुप से अनुभव करते हैं की बिना तप के, बिना तुम्हारे सूक्ष्म संरक्षण के उत्कर्ष संभव नहीं है। सत्य तो यह भी है कि अगर सूक्ष्म संरक्षण नहीं हो, तो तप हो ही नहीं सकता। वह सूक्ष्म संरक्षण होता है तभी तप संभव होता है। अन्यथा मन की मूढ़ता और शरीर का आलस्य यूँ ही फिसल जाता है, अकारण फिसल जाता है। पर अगर तपस्वी इसे पार कर पाता है तो उसके तप का प्रभाव और साथ ही प्राप्त उसका सूक्ष्म संरक्षण उसे आत्म उत्कर्ष दिला डालते हैं।

तुम तपस्वी हो जिसका प्रभाव तुम्हारे जीवन में आ चुका है। प्रभाव को कहां अनुभव करना है बस यही ध्यान रखना है। तप का प्रभाव केवल अपने आत्म उत्कर्ष पर ही अनुभव करना अन्यथा बाकी तो दुनिया चल ही रही है। ट्रांसक्रिप्शन सुजाता केलकर

   Copy article link to Share   



Other Articles / अन्य लेख