Part - 5. अर्जुन के रथ की पताका पर कौन हैं - व्यवस्थित चिन्तन विचारों की शक्ति का आधार है

Part - 5. अर्जुन के रथ की पताका पर कौन हैं - व्यवस्थित चिन्तन विचारों की शक्ति का आधार है

Transcription Ashok Satyamev

केशव वाणी:
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्र समवेता युयुत्सवा:
मामका पाण्डवाश्चैव किम् कुर्वत संजय:॥


धर्मक्षेत्रे - इस सौन्दर्य का वर्णन कल हो चुका कि श्रीमद भगवद गीता संवाद तो केशव और अर्जुन के बीच का है पर धृतराष्ट्र को पहला श्लोक दे दिया गया॥ श्रीमद भगवद गीता की गहराई की ओर एक संकेत किया गया, "इसे केवल उतना न जानना कि एक संग्राम के क्षेत्र में केवल एक प्रेरणा दी जा रही है"; नहीं, यह मात्र प्रेरणा नहीं है, यह कुछ और भी है॥ इस श्लोक पर आधारित इन बातों की ओर ध्यान दिलाने से पूर्व; हमारे इस विषय के अन्तर्गत पुनरावलोकन करें कि व्यवस्थित चिंतन ही विचारों की शक्ति का आधार है॥


'व्यवस्थित चिंतन ही विचारों की शक्ति का आधार है'


इस विषय के साथ मनोमय कोष के अन्तर्गत जिस व्यायाम को लेकर हम इस श्लोक के साथ आगे बढ़ रहे हैं॥ उसी श्लोक के प्रकाश में और भी बहुत कुछ कहना है॥ इसी के बीच में पुन: दोहराना अनिवार्य होगा कि व्यवस्थित चिंतन हेतु उपासना साधना , उपासना में जप ध्यान ईत्यादि आ गया॥ साधना में आत्म परिष्कार है, पूर्ण आत्म परिष्कार और तप भी है॥ मनोमय कोष की साधना किए बिना परिष्कार सम्भव नहीं है॥ मन में जड़ जमाए संस्कार जो विचारों को प्रतिपल प्रेरित करते हैं, ऐसी अस्थिरता बनाए रखते हैं कि मनुष्य का चिंतन अव्यवस्थित रहे; और अव्यवस्था से ही अराजकता फैलती है॥ When there is no order, there is no harmony. Rule of Law क्या होता है? यही तो है॥ भीतर जब व्यवस्था नहीं हो तो अराजकता फैलेगी और वह अराजकता हमारे भीतर होती है॥


इस श्लोक के प्रकाश में हमें जानना है कि व्यवस्थित चिंतन के द्वारा विचारों को शक्ति प्राप्त हो, इस हेतु हमें श्लोक में निहित गहरे मर्म को समझें॥ और इसके प्रकाश में यह भी देखें कि युद्धक्षेत्र एक जीवन का संग्राम है॥ यह कुरुक्षेत्र 'कर्म का क्षेत्र' है, क्योंकि पहले शब्द दो हैं धर्मक्षेत्रे, कुरुक्षेत्रे, मैंने कुरुक्षेत्र को पहले लिया॥ यह कुरु का क्षेत्र, कर्म का क्षेत्र है, वह कर्म का क्षेत्र जिसमें प्रतिपल जूझना है, प्रतिपल संग्राम है, भीतर भी, बाहर भी, दोनों स्थानों पर॥ और उस संग्राम के चलते मनुष्य में बहुत ऊर्जा भी व्यय होती है॥


कभी ध्यान से देखा कि जिस रथ पर अर्जुन सवार है उस रथ की पताका पर किसका चित्र है? कभी ध्यान से अनुभव करना, यदि बनाने वाले ने ठीक से चित्र बनाया होगा तो प्राचीन भारतीय मनीषा के सन्दर्भ में, कुरुक्षेत्र में खड़े अर्जुन के रथ की पताका पर पवनसुत हनुमान का चित्र है॥


एक अलग युग के पात्र को इस युग में लाने की आवश्यकता क्या थी?
केशव स्वयं ब्रह्म का स्वरूप हैं, विराट रूप व्यक्त करते हैं उनके होते हुए पवनपुत्र कैसे? पवनपुत्र का उल्लेख अर्जुन की ध्वजा पर क्यों है? यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है॥ यह बताता है कि जीवन का संग्राम कुरुक्षेत्र है॥ वह कुरुक्षेत्र भी है जहाँ कभी कोई संग्राम हुआ होगा॥ पर यह जो महान भारत की रचना प्रतिपल होती है 'महाभारत' महा = महान, भा = भावनाओं में, रत = रमा हुआ, महान भावनाओं में रमण करने वाला॥ यह महाभारत की रचना, महान भावनाओं का क्षेत्र तो भीतर ही है॥ यह महाभारत का जो क्षेत्र है उसमें प्रतिपल ऊर्जा खर्च होती है शक्ति व्यय होती है॥ हनुमान किसके प्रतीक हैं? सर्वप्रथम प्राण ऊर्जा के प्रतीक हैं॥ वायुपुत्र हैं, पवनपुत्र प्राण ऊर्जा का प्रतीक है, प्राण शक्ति का प्रतीक है, बल का प्रतीक है, पराक्रम का प्रतीक है, साहस का प्रतीक है॥ उनमें कोई कमी नहीं है, गायत्री सिद्ध हैं, हनुमान गायत्री सिद्ध हैं॥ बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेश विकार॥ तो प्राण का प्रतीक हैं हनुमान॥

इसीलिए प्राण के प्रतीक अर्जुन के रथ की पताका पर विद्यमान हैं॥ पताका का अर्थ क्या होता है? जब भी कभी कोई आधिपत्य अधिकार स्थापित करना हो, तो वहाँ पताका के द्वारा, ध्वजा के द्वारा ही स्थापना होती है॥ ध्वजा प्रतीक है स्थापना का, Establishment का॥ कोई भी कहीं यदि अपनी स्थापना करता है, अपना आधिपत्य अधिकार स्थापित करता है तो पताका के द्वारा, ध्वजा के द्वारा ही तो करता है॥ अपनी-अपनी ध्वजा, राष्ट्र की ध्वजा, संगठन की ध्वजा, हर रेजीमेंट की ध्वजा॥ ध्वजा प्रतीक है स्थापना की॥ पताका पर कौन? पवनपुत्र; संयम के प्रतीक, तप, बल, बुद्धि के प्रतीक, साहस, पराक्रम के प्रतीक - ये पवनपुत्र हैं॥ जिनके बिना जीवन रूपी संग्राम में उतर कर विजय प्राप्ति नहीं है॥

इसीलिए सफलता के 6 सूत्र, 6 घटक सबसे पहले दिए थे॥ आज इस प्रथम श्लोक के प्रकाश में हम समझ रहे हैं जो कुछ Graphical Representation के रूप में एक चित्र के रूप में उपलब्ध है॥ केवल महाभारत में ही नहीं, उपनिषदों में भी इस छवि का उल्लेख आया है और मैंने पढ़ाया भी है॥ ठीक है वहाँ केशव नहीं, केशव भगवद गीता में आ गए अर्जुन सहित॥ तो समझना आवश्यक है, चीजों को ठीक से अपने स्थान पर रखकर समझते चलो साधक॥

व्यवस्थित चिंतन का आधार, उपासना और साधना है॥ व्यवस्थित चिंतन से विचारों को शक्ति प्राप्त होगी॥ विचारों की शक्ति से जीवन में बहुत कुछ सम्भव है॥ उपासना और साधना में, उपासना, जप और ध्यान ईत्यादि॥ साधना में 'मनोमय कोष का परिष्कार' जिसके अन्तर्गत वे व्यायाम हैं जो मन और चिंतन के परिशोधन के लिए प्रेरित करें॥ जिसके लिए हमने एक श्लोक लिया है भगवद गीता का पहला श्लोक लिया है॥ जो भीतर के व्यायाम हेतु, परिष्कार हेतु सहायता करेगा॥ उस श्लोक को लेने से पूर्व हम यह समझने की चेष्टा कर रहे हैं कि श्लोक का संवाद किनके बीच में कहाँ हुआ? क्या स्थिति थी वहाँ? केवल वहीं तक हम समझना चाहते हैं जिससे श्लोक का मर्म, श्लोक का भाव और गहरा हो जाए॥ इसीलिए हमने यह जाना कि यह भगवद गीता अर्जुन और कृष्ण The mentor and the subject disciple उनके मध्य संवाद होते हुए भी पहला श्लोक धृतराष्ट्र और संजय के मध्य (संजय की परिभाषा कल हो चुकी) क्यों और कैसे; क्यों पहला श्लोक धृतराष्ट्र को दिया गया॥

कुरुक्षेत्र कर्म का क्षेत्र है, Activity का क्षेत्र है, प्रतिपल we have to slog into activity and struggle. यह संघर्ष का क्षेत्र है और संघर्ष के क्षेत्र में रथ पर आसीन अर्जुन और कृष्ण; अर्जुन के रथ पर पताका हनुमान की है॥ हनुमान किसका प्रतीक है और जीवन के संग्राम से उस पताका पर उस इष्ट के होने की आवश्यकता क्या है॥ यहाँ हनुमान को केवल हनुमान नहीं मानना ॥उन सब बातों को मानना जिनके लिए हनुमान जाने जाते हैं॥ संयम, समर्पण बल पराक्रम प्राण ईत्यादि वह सब मानना॥ उनके बिना जीवन रूपी संग्राम में विजय सम्भव नहीं है॥

यहाँ तक कि शनि की दशा में भी (विषय भिन्न होते हुए भी जोड़ रहा हूँ) हनुमान की उपासना के लिए कहा जाता है॥ उसके पीछे भी एक मर्म है॥ शनि अर्थात जो शनै शनै चले॥ अब जो धीरे-धीरे चलेगा गति से नहीं चलेगा, और जब धीरे-धीरे चीजें हों, not at the required speed, तो चीजें बिगड़ती भी हैं॥ इसीलिए अनुबन्ध हुआ हनुमान जी और शनि का, कि मेरे भक्तों को तुम प्रभावित नहीं करोगे॥ इसके पीछे का मर्म जाकर देखोगे तो निश्चित रूप से, जब चीजें बहुत धीमी चल रही हों, हो ही न रही हों, बिगड़ रही हों तो ऐसे में प्राण की आवश्यकता है, Energy की आवश्यकता है, बल की आवश्यकता है, धैर्य की आवश्यकता है, पराक्रम की आवश्यकता है, साहस की आवश्यकता है, समर्पण की आवश्यकता है, जिससे अपने अस्तित्व को समेटकर के एकत्र करके संघर्ष का काल व्यतीत किया जाए॥

यूँ ही हनुमान अर्जुन की पताका पर नहीं हैं॥ अब यह श्लोक और उसका मर्म, जितना अब तक सोचा, जितना अब तक जाना उससे कई गुणा आगे चला गया॥ अब यह मात्र उतना नहीं रहा साधक जितना तुम सोच रहे थे॥ अब यह उससे बहुत गहरा गया

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्र समवेता युयुत्सवा:
मामका पाण्डवाश्चैव किम् कुर्वत संजय:॥

अब जिस पृष्ठभूमि में जिस परिप्रेक्ष्य में यह श्लोक घट रहा है अब वह साधारण नहीं है॥ अब वह जीवन रूपी संग्राम में आ गया अब यह मनोमय कोष में परिष्कार हेतु एक बहुत महत्त्वपूर्ण कसरत बनने वाला है॥ मनुष्य के भीतर की एक शल्य चिकित्सा की एक पद्धति बनने वाला है For an internal surgery. अब इस पूरे प्रकाश और पूरे प्रकरण को समझते हुए कल के सत्संग में पुन: हम एकत्र होंगे और इस गहराई को लेकर आगे चलेंगे॥ जब तक यह श्लोक पूर्ण होगा मुझे विश्वास है तुम्हारे जीवन में इसकी स्थापना बहुत गहरे रूप से होगी॥ मैंने पढ़ाया पहले भी है पर इतनी गहराई से मैंने इसे अब तक नहीं पढ़ाया जितना वर्तमान में लेकर चल रहा हूँ॥

व्यवस्थित चिंतन ही विचारों की शक्ति का आधार है और व्यवस्थित चिंतन हेतु उपासना साधना॥ हम साधना में हैं और मनोमय कोष की साधना में हैं॥

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