ब्रह्मानंदम परम सुखदम से बाहर क्यों
शरीर के बंधन साधक को ब्रह्मानन्द परमसुख की अस्थाई अनुभूति से वापस लाने को विवश करते हैं। यह आवश्यक भी है। ऐसा विधि का विधान है। ऐसा क्यों है? किस लिए है? यह प्रश्न नहीं कर सकते। कर्म बंधन का निर्वहन आवश्यक है। पर एक साधक को योगी भाव में यह आभास हो जाता है कि वह(ब्रह्मानंदम परम सुखदम) कोई ऐसी स्थिति है जिसके अतिरिक्त फिर कुछ और होने को शेष नहीं रह जाता है। यह आभास हो जाता है। वह आभास जितना भी हो पाए। अंशो मे। वर्तमान में वह आभास पूर्ण मस्तिष्क के आधार पर रह जाता है। गहरी शांति, परमानंद के रूप में, अच्छा लगता है, बहुत सुखद लगता है, ऐसी अवस्था से बाहर आने का मन नहीं करता है। पर अभी यह शरीर और मन के धरातल की प्रक्रिया है।
समर्थ बताते की ब्रह्मानंदम परम सुखदम की वास्तविकता तो इससे भी हजारों गुणा ऊपर है। वास्तविकता तो सर्वव्यापकता है। एक ऐसी व्याप्ति जिसमें हम ही हैं। इसमें सात्विक अहंकार वाला हम नहीं है। वह व्याप्ति भी अनिर्वचनीय है। पर अभी माया की दहलीज पर जैसे कदम बाहर आता है। साधक देखता है कि दहलीज से बाहर आते ही वासनाएं पुनः आ जाती हैं। फिर से, तृष्णाएं आ जाती हैं। फिर से, अनियमितता आती है। सब कुछ फिर से यथावत हो जाता है। यह सब मायावती की लीला है जिसके प्रभाव से हम नहीं बच सकते। किन्तु कम से कम साधक में और अन्य सामान्य मे यह अंतर अवश्य है कि साधक माया के प्रभाव से बच भले ही ना पाए पर वह इस द्व्न्द को देख तो पाता है। इस विचित्र अवस्था में भेद तो कर पाता है। वह जान पाता है की मैं वर्तमान में आसक्ति मे हूँ, मै वासना में हूँ, मै असयंम मे हूँ, यह सब साधक साक्षी रूप से देख पाता है।
वहीं सामान्य जीव साक्षी रूप यह सभी कुछ अनुभव भी नहीं कर पाता है, भेद नहीं कर पाता। साधक भेद कर पाता है। बच पाए की ना बच पाए उसके लिए कोई अंतर नहीं पड़ता लेकिन वह भेद अवश्य करता है। और यही उत्कर्ष है। योग का अर्थ है अधूरे पन से पूर्णता की ओर। ट्रांसक्रिप्शन सुजाता केलकर