ईश्वर पर विश्वास और उसकी सत्ता पर आश्रित होने के लिए अध्यात्म जगत में बहुत कहा जाता है, पर चाह कर भी व्यक्ति आश्रित हो नहीं पाता है। जीवन की विकट परिस्थितियों को लेकर अनसुलझे प्रश्नों को लेकर मनुष्य में भय - आशंका और चिंता बनी ही रहती है। मैं यहां पर क्रोध के विषय पर कुछ नहीं कहूँगा, चूँकि क्रोध कई बार अनेकों महत्वपूर्ण उद्देश्य साधने के लिए बड़ा आवश्यक भी हो जाता है। यहां हम बात करेंगे भय की, आशंका की, चिंता की, फ्रस्ट्रेशन की अर्थात खिन्नता की क्रोध और अखंडता दोनों बहुत अलग है। Anger and Frustration. खिन्नता में व्यक्ति अंदर ही अंदर से सुलगता रहता है। एक अजीब सी आशंका Anxiety भीतर बनी रहती है। एक आशंका कि पता नहीं क्या होने वाला है, एक विचित्र सी उहापोह। हम भली प्रकार जानते हैं कि यह सत्य अपने भीतर बार बार दोहराने पर भी व्यक्ति ईश्वर पर आश्रित नहीं हो पाता। मन टिकता ही नहीं, ठहरता ही नहीं। बार बार इस उपदेश को सुनने पर भी मन पुनः पुराने अभ्यास में में चला जाता है।
इसका मुख्य कारण एक यह भी है की ‘क्या जितना समय हम अपने आपको भय के भाव में, आशंका के भाव में खिन्नता के भाव में रखते हैं, उसके अनुपात में हम दायित्व के निर्वाह पर अर्थात जो करना चाहिए उसी को करने पर और साथ ही साथ सत-साहित्य इत्यादि पर उतना समय और ध्यान नहीं देते हैं। सत्य तो यह है कि ना तो अपने हिस्से का शत-प्रतिशत कर्तव्य पूरा करते हैं और ना ही हम अपने अंतःकरण को पवित्र करने के लिए उतने प्रयास जुटाते हैं जिससे भीतर की निर्मलता और बाहर की सफलता सुनिश्चित हो पाए। जो आहार हम अपने शरीर को देते हैं शरीर की शक्ति उसी पर आधारित है उसी प्रकार जो विचारों का आहार भावनाओं का आहार हम अपने मन को देते हैं उसी पर तो आधारित है हमारे भीतर स्वास्थ्य। भीतर सबल होना, संकल्प का शक्तिशाली होना यह इन्हीं दो पर आधारित है जिन्हें दायित्व निर्वाह और बुद्धि की निर्मलता के रूप में जाना जा सकता है। ईश्वर के प्रति समर्पण- पूर्ण आश्रय इन उपरोक्त के अभाव में सम्भव नहीं है।
10 साल पूर्व मैंने एक प्रयोग देखा था जिसमे एक मंत्र की ऊर्जा से रोगी का कठिन रोग का उपचार केवल 3 से 5 मिनट में किया गया और सारी प्रक्रिया अल्ट्रा साउंड के माध्यम से रिकॉर्ड भी की गई। वह सफल प्रयोग केवल इसी कारण से संभव हुआ, कि रोगी की मानसिकता इस बात के लिए पूर्णता तैयार और समर्पित थी कि मन्त्र ऊर्जा निश्चित रूप से मेरा कल्याण करेगी। उससे कम में आश्रय बनता है क्या? उससे कम में समर्पण बनता क्या?
नहीं समर्पण जब भी किसी का सिद्ध होगा निठल्ले, निकम्मे, अकर्मण्य का कभी नहीं सिद्ध होगा। जब भी समर्पण सिद्ध होगा तो उसका होगा जिसने अपना आपा शत-प्रतिशत अपने कर्तव्य में झोंक दिया। देखो साधक बुद्धि की सीढ़ियां जहां समाप्त होती है उसके बाद ब्रह्मांडीय मन का क्षेत्र आरम्भ होता है। मैं भगवान के प्रति समर्पण अंधविश्वासी का नहीं होगा। समर्पण और अंधविश्वास में अंतर बहुत बड़ा अंतर् है। बिना तर्क का समर्पण वास्तविक समर्पण नहीं है, ध्यान रहे यहां पर तर्क की बात हो रही है, कुतर्क की नहीं।
आप साधकों में ऐसे ढेरों हैं जिनके जीवन में ना जाने किस-किस प्रकार के अनुभूतियां घटित होती हैं। ईश्वरीय शक्तियों के अनदेखे जगत का हस्तक्षेप होता है। कौन कहता की ऐसा नहीं होता - होता है भाई पर उसके लिए छाती लगानी पड़ती अपने आप को मिटाना पड़ता है। केवल हाथ में माला पकड़ने से नहीं होगा कि मैं गायत्री का अनुष्ठान कर लूं मेरे सारे कार्य सिद्ध होंगे। कार्य तब सिद्ध होंगे जब अपने आप को मोर्चे पर मुस्तैदी से तैनात करोगे और साथ ही माला भी हाथ में होगी। माला देगी आत्म बल और सत्प्रेरणा, माला देगी वह नए विचार जो अभी तक तुम्हारी बुद्धि में नहीं आए और उसका अनुवाद उसका ट्रांसलेशन अपने कर्म करोगे तुम… और अर्जित होगी सफलता और आत्म उत्कर्ष। अपने आप को जांच और परख कर ही साधक आगे बढ़ता है समझे बाबू।