साफ दर्पण में जैसे छवि वैसे शुद्ध बुद्धि में आत्मा का प्रकाश झलकता । शंकराचार्य द्वारा रचित आत्म बोध श् -17

साफ दर्पण में जैसे छवि वैसे शुद्ध बुद्धि में आत्मा का प्रकाश झलकता । शंकराचार्य द्वारा रचित आत्म बोध श् -17

सभी श्लोक बहुत महत्वपूर्ण है।आत्म अनात्म की ओर संकेत है। एक ही बात को अनेकों प्रकार से समझाने की चेष्टा की गई है, पर यह विशेष श्लोक है आज का बड़ा महत्वपूर्ण है। श्लोक स्थापना करता है गायत्री महामंत्र के मर्म का , गायत्री महामंत्र का मर्म ईश्वर का प्रकाश बुद्धि को प्रेरित करता है. ब्रह्म का तेज बुद्धि को प्रेरित करता है। मनुष्य जैसे जैसे आत्म परिष्कार को प्राप्त होता है, उसके आत्मा से आवरण झटते हैं। और बाद में अंदर बैठा ईश्वर का अंश अपने तेज को बाहर प्रकाशित करना आरंभ करता है। यही भाव श्लोक के माध्यम से बताने की चेष्टा है।

ये आत्मा का प्रकाश अगर कहीं दिखता है, कहीं वह प्रदर्शित होती है तो वह बुद्धि है, बुद्धि का मूल तत्व सतोगुणी है, पवित्र सतोगुणी बुद्धि में आत्मा का प्रकाश दिखता है। पवित्र बुद्धि उस गहरे बोध को, बोध क्या है? प्रोसेस है, प्रक्रिया ह,जिसके द्वारा आत्म संकेत प्राप्त होने आरंभ होते हैं, आते कहां से हैं? आत्मा से!.. आत्मा परमात्मा का अंश है, अपने आप में संपूर्ण है वो। पवित्र बुद्धि के अतिरिक्त किसी और मार्ग से आत्मा का प्रकाश प्रदर्शित नहीं होता। यूं तो आत्मा सर्वव्यापक है, हर स्थान पर विद्यमान विस्तार प्राप्त करती है आत्मा, उसकी व्यापकता पूरे जगत में है फिर भी अगर उसका प्रकाश कहीं बाहर आता है,वो बुद्धि से आता है। सभी स्थानों पर व्याप्त होने पर भी प्रकाश बाहर बुद्धि से ही आता है,.... उसी प्रकार जैसे आप हर स्थान पर खड़े हैं पर आप की छवि आप का प्रतिबिंब साफ दर्पण के समक्ष ही सामने दिखता है.... आधुनिक जगत में आप कैमरा में भी दिखते हैं। कैमरे को भी दर्पण मानो एक प्रकार से,, मूल दर्पण एक ही है जो प्रतिबिंब दिखाता है साफ दर्पण... धुंधला दर्पण नहीं जिसमें चिकनाई लगी हुई है वह दर्पण नहीं... दर्पण साफ होगा तो आत्मा का प्रकाश अपने प्रचंड स्वरूप में जो वह है दिखना आरंभ हो जाता है।

ब्रह्म ऋषि ने मेरे कहां है... के मनुष्य जब आत्म परिष्कार को प्राप्त होता है, बुद्धि में उसके पवित्रता आती है तो उसमे हम जानते हैं बड़ी सिद्धियां वह कहीं और से नहीं तो हमारे ही भीतर से, पवित्र अंतःकरण से, पवित्र बुद्धि के द्वारा वह सिद्धियां बाहर प्रदर्शित होना आरंभ हो जाती है, पहले से ही वह थी कहीं से आई नहीं केवल वो मलिनता हटानी है... यहां मां आनंदमई का उदाहरण है वह कहती थी की.. " कहां से आएगा कुछ, कहीं से नहीं आएगा... जो कुछ है वो सब हम में ही हैं. हमें ही सब कुछ है कहां से आएगा कुछ,, कहीं से नहीं... आत्मा की व्यापकता हर स्थान पर है.. पर होते हुए भी उसका दर्शन उसका प्रकाश सतोगुणसे बनी बुद्धि मे ही अवतरित होती है, इसलिए पवित्र बुद्धि इतनी बड़ी संपत्ति है कि इसकी तुलना विश्व में किसी अन्य सम्पदा से करना असंभव है। परिष्कृत पवित्र बुद्धि ईश्वर के प्रति खुला हुआ द्वार है। आइए श्लोक देखते हैं....

सदा सर्वगतः अपि आत्मा न सर्वत्र अवभासते (प्रतीति - प्रकाशित), बुद्धौ एव अवभासेत स्वच्छेषु प्रतिबिम्बवत् (जैसे स्वछ दर्पण में प्रतिबिम्ब)

साधक आप भी जानते हो आत्मा सब इधर व्याप्त है। साधना करते करते कई बार अपने अस्तित्व का विस्तार होने लगता है, साधक कहता है धीरे-धीरे हमारा फैलाव बढ़ता जा रहा है,, शरीर का आकार तो उतना ही रहता है पर एक आभास आता है अपने व्याप्ति का, व्यापक स्वरूप का, यह सत्य है वह सब धीरे धीरे होता है ......

बुद्धो एव अवभासेत स्वच्छेषु प्रतिबिंबवत्।.... केवल बुद्धि मे हीं वह आकर के अपनी प्रतीति देती हैं जैसे स्वच्छ दर्पण में आपका प्रतिबिंब दिखाई देता है, उदाहरण जितने भी पदार्थ जगत से दिए जाएंगे वह चेतना जगत के लिए सदैव अपूर्ण ही रहेंगे... निस्संदेह पर फिर भी. समझने के लिए कुछ निकटवर्ती चाहिए आसपास.. पवित्र बुद्धि इतनी महत्वपूर्ण अवस्था है के उसमें ही सर्वस्व है। परमात्मा कहीं है तो वह पवित्र बुद्धि में ही है। इसलिए गायत्री महामंत्र है क्योंकि गायत्री के चौबीस शक्तियां मिल कर के एक कार्य करती है,,, वह बुद्धि पर से आवरण हटाने की चेष्टा करती है। यकायक भले ही कुछ ना दिखता हो, अधीनता है उतनी गति से ना छटती हो तो भी साधना के बाद परिष्कार धीरे धीरे चालू रहता है.. धीरे-धीरे स्वभाव में परिवर्तन होने लगता है, फिर स्वभाव से उठ करके बादमे धीरे-धीरे वह सुप्त क्षमताओं के जागरण के रूप मे भी आने आरम्भ जाते है। कल्याणकारी सिद्धियां ईश्वर का ही प्रकाश है। केवल पदार्थ जगत पर काम करने वाली सिद्धियां यही के प्रपंच है पंचकोषों के... यहीं पर समाप्त हो जाते हैं... पर जो कल्याणकारी सिद्धियां या शक्तियां है केवल कल्याण करने के लिए वह आत्मा का प्रकाश माना ईश्वर का प्रकाश है वही शिवत्व का अवतरण है। गायत्री मंत्र की बहुत सुंदर स्थापना करता हुआ यह श्लोक आता है।

लेख ट्रांसक्रिप्शन ; सुजाता केलकर

   Copy article link to Share   



Other Articles / अन्य लेख