ब्रह्म मुहूर्त्त ध्यान उपरान्त सत्संग - आदिगुरू शंकराचार्य जी द्वारा रचित 'आत्मबोध' - श्लोक १६

चावल धान की फसल जब काटते हैं तो छिलके के साथ होती है। उस छिलके को हटाने के लिए उसे जमीन पर लिटा करके लकड़ी की लाठी की तरह से पीटते हैं जिसमें और भी कुछ करते होंगे मुझे विशेष ज्ञान नहीं है। जितना मैंने जाना। ताकि धान का छिलका उसकी भूसी उससे अलग जाए, चावल (अक्षत) उसमें से अलग हो जाए। क्योंकि हम यथावत उस धान का प्रयोग नहीं कर पाते, वह छिलका हटाने की भूसा हटाने की हटाने की प्रक्रिया बड़ी महत्त्वपूर्ण है। उसी को एक उदाहरण बनाकर के आदिगुरू कहते हैं आत्मा पर भी यह आवरण है, शरीर रूपी, पंचकोषीय शरीर रूपी आवरण है। उन आवरणों को हटाने के लिए विवेक बुद्धि, प्रज्ञा बुद्धि की विवेचना के द्वारा, कौन सी बुद्धि? कुतर्क बुद्धि नहीं, प्रज्ञा बुद्धि, सार्थक बुद्धि, सकारात्मक बुद्धि। प्रज्ञा बुद्धि से विवेचना करते हुए अपने मूल अस्तित्व के ऊपर से वह छिलका उतारना चाहिए।

आत्मा के ऊपर से, कैसे? यह प्रश्न वह छिलका हटाने की प्रक्रिया का नाम है।
कौन सा प्रश्न? मैं कौन हूँ? Who Am I?

विज्ञानमय कोष की साधना जिसमें हम अभी केवल स्थापक स्तर पर ही है, उसका मूल क्या है? एक ही तो है, चावल चाहिए, ऊपर के छिलके हटने चाहिए। उसे हटाने के लिए दो प्रयास: एक सार्थक मनन निधि ध्यासनम, विचार करना - आखिर क्या? कब तक? क्यों? किसलिए? किन विषयों को प्राथमिकता देकर उलझे हुए हैं हम? किस विषय को कितना बल देना है कितना ध्यान देना है? यह सत्य है जीवन में कुछ भी छोड़ना बहुत कठिन होता है। जब हम अपने दायित्वों का निर्वाह करते हुए परिवार में रहकर व्यवसाय ईत्यादि करते हैं तो कहीं से भी कोई कमी नहीं छोड़ सकते। वह तो सत्य है पर किस विषय को कितना बल देना है और किससे आगे नहीं जाना, यह एक प्रशिक्षण है this is a training. मनुष्य को जीवन में यह प्रशिक्षण बहुत कम प्राप्त होता है कि इन विषयों पर इससे अधिक एनर्जी इससे अधिक ऊर्जा का क्षय खर्च नहीं करना है। मनुष्य उन विषयों पर जिन पर 2 ग्राम ऊर्जा जानी चाहिए उन पर 100 ग्राम ऊर्जा दे देता है। जिसके कारण वे सारे विषय जिन पर सौ ग्राम ऊर्जा होनी चाहिए, वे बेचारे कुपोषण का शिकार हो जाते हैं। जीवन के महत्त्वपूर्ण विषय सामान्यत: कुपोषण undernourished के शिकार रह जाते हैं। इसीलिए आवश्यक है कि प्रज्ञा बुद्धि से ऐसी कुटाई छटाई की जाए जिससे केवल जो चाहिए 'चावल', वह अलग हो जाए। भूसी आवश्यक है वह तो साथ आएगी, आवरण शक्ति आती है आनी चाहिए, माया शक्ति आएगी आनी चाहिए पर वह हम अलग कर सकें इसके लिए साधना तो है ही परन्तु साधना के लिए उपयुक्त मनोभूमि के बिना साधना हो सकती है? असम्भव! without right state of mind the desired activity shall never transpire. इसलिए उपयुक्त मनोभूमि का निर्माण मनन से है सार्थक मनन से है। जब मनुष्य सार्थक मनन को प्राप्त हो जाता है तो उसकी वह साधनात्मक मनोभूमि तैयार हो जाती है जो आँख बन्द करके मैं कौन हूँ का विश्लेषण विवेचना कर सके अन्यथा रटते रहो , कुछ नहीं होगा।

यही भाव आदिगुरू श्लोक में करते हैं:-
वपु: (शरीर) तुषादिभि: (छिलका आदि) कोशै (आवरण) युक्तं (ढका हुआ) युक्त्या (प्रज्ञा बुद्धि द्वारा) अवघातत: (छटाई करो)
आत्मानम् (वास्तविक स्वरूप) अन्तरं (अपने भीतर) शुद्धं विविच्यात् (पृथक करो) तण्डुलम् यथा (जैसे चावल)।१६।

वपु: - शरीर को कहा, तुषादिभि: - तुष छिलके को कहा, तुष आदिभि: अर्थात छिलका आदि, केवल छिलका नहीं, चावल के साथ डण्डी आदि भी तो आते हैं।
कोशै: - वह जो आवरण है
युक्तं - ढका हुआ है चावल
युक्त्या - उसे प्रज्ञा बुद्धि की विवेचना के द्वारा, मनन के द्वारा, निधिध्यासनम् के द्वारा
अवघातत: - उसको पीटकर के उसकी छटाई करनी है
आत्मानम - जो वास्तविक स्वरूप है
अन्तरम् - होना सब अपने भीतर ही है न? अज्ञान कहाँ हमारे भीतर, ज्ञान के लिए कसरत कहाँ होगी? हमारे भीतर
शुद्धं - नित्य शुद्ध नित्य बुद्ध नित्य मुक्त
विविच्यात - उसे अलग करो छटाई करो, जैसे
तण्डुलं यथा - जैसे चावल को, तण्डुल चावल को कहते हैं । जैसे चावल को अलग करते हैं

बिलकुल वैसे ही अपने भीतर प्रज्ञा बुद्धि की विवेचना के द्वारा अपने भीतर अनावश्यक को अलग करो, आसक्तियों को अलग करो, जितनी जब जिस विषय के लिए आवश्यक है बस उतनी ही, उससे आगे नहीं। यह भाव आदिगुरू शंकराचार्य इस श्लोक संख्या 16 में बहुत सुन्दर रूप से देते हुए आत्मबोध की श्रृंखला में हम निरन्तर सत्संग के अन्तर्गत हम आगे बढ़ रहे हैं। प्रतिदिन प्रात: ब्रह्म मुहूर्त्त के इस ब्रह्म विद्या के दिव्य ज्ञान से बुद्धि हमारी संस्कारित होती है यह उनकी कृपा के बिना न अवसर प्राप्त होता है न अभिरुचि।

   Copy article link to Share   



Other Articles / अन्य लेख