इन्द्रियों का स्वामी आकाश की भांति स्वरूप से मुक्त है , आत्म बोध आदि शंकराचार्य जी द्वारा रचित श्लोक 10

इन्द्रियों का स्वामी आकाश की भांति स्वरूप से मुक्त है , आत्म बोध आदि शंकराचार्य जी द्वारा रचित श्लोक 10

ब्रह्म मुहूर्त्त ध्यान उपरान्त सत्संग - आदिगुरू शंकराचार्य जी द्वारा रचित 'आत्मबोध' - श्लोक 10

इस श्लोक में आदिगुरू कहते हैं इन इन्द्रियों का जो स्वामी है आत्मा, वह परमात्मा का अंश है। इन इन्द्रियों का जो स्वामी है उसका अपना कोई नाम, अपना कोई रूप नहीं है। वह आकाश की भाँति है, like space, सब जगह है जहाँ जो रूप रचा जाता है वह उस रूप में समाहित हो जाता है। दीवारें खड़ी कर दी तो कमरे में आकाश, ओट बना लो तो ओट में आकाश, मुख फुलाकर भर लो तो मुख में आकाश। आकाश किसी भी पहचान का दास नहीं है। यहाँ पहचान शब्द के लिए उन्होंने बहुत सुन्दर शब्द प्रयोग किया उपाधि। उसकी अपनी कोई उपाधि नहीं है। समस्त उपाधियाँ जो भी आती हैं उसे प्राप्त होती हैं चाहे वह जन्मों के रूप में हों, इस जन्म में कन्हैया लाल, अगले जन्म में राम लाल, उसके बाद नत्थू लाल, सब उपाधियाँ हैं। आज वह साहब है, पिछले जन्म में किसान थे, अगले जन्म में सैनिक योद्धा हैं; सब उपाधियाँ हैं। इन उपाधियों को प्राप्त होता है इन इन्द्रियों का स्वामी। इन्द्रियों का स्वामी कौन? आत्मा! उसका कोई अपना कुछ नहीं अर्थात न अपनी कोई पहचान, न कोई रूप, न कोई नाम। यह जो कुछ भी उपाधि रूप में है ये सब आकर के उसके समक्ष प्रगट होते हैं, चले जाते हैं, उसे अन्तर नहीं पड़ता।

जैसे कहा जाता है एक ज्ञानी का उदाहरण मैंने पढ़ा अच्छा लगा कि जिस प्रकार किसी क्रिस्टल के सामने (क्रिस्टल जो चमकने वाला पत्थर जिसे हम कह सकते हैं), क्रिस्टल के समक्ष कोई भी रंग ले आओ वह रंग उसमें दिखेगा पर उस रंग से क्या वह क्रिस्टल मैला हो जाएगा? नहीं, वह केवल जो सामने आया उसको एक बार के लिए उसकी प्रतीति देगा पर वह स्वयं में प्रभावित नहीं होगा। स्वयं जो वह है वही है, वह रंगहीन है। वह क्रिस्टल मैंने क्रिस्टल शब्द प्रयोग किया, चमकने वाला जिसके सामने जो रंग रख दो वह रंग उसमें दिखाई देगा, उसका अपना कोई रंग नहीं है और न वह किसी रंग से प्रभावित होने वाला। एक रंग उसमें दिख गया वह उसी रंग का हो गया। यह उदाहरण भी अच्छा है। चेष्टाएँ हैं बुद्धि को समझाने के लिए। आओ श्लोक देखते हैं:-

यथा आकाशो हृषिकेशो नाना उपाधि गत: विभु:।
तद्भेदाद्भिन्नवद्भाति (तन भेदात भिन्नवत भाती) तन्नाशे केवलो भवेत् ।१०।

हृषिकेशो - हृषिक अर्थात इन्द्रियाँ , ईश अर्थात उनका स्वामी, इन्द्रियों का स्वामी। यहाँ इन्द्रियों का स्वामी कौन है? आत्मा! जैसे आकाश की भाँति इन्द्रियों का स्वामी नाना प्रकार की उपाधियाँ प्राप्त करता है, अन्यथा वह मुक्त है और व्याप्त है; केवल मुक्त ही नहीं है व्याप्त है। गत: विभु: - ये शब्द यहाँ पर परमात्मा और आत्मा दोनों को ही समाहित करके प्रयोग किया गया है। क्योंकि विभु शब्द बहुत बड़ी व्यापकता और विस्तार का है, अनन्तता का है। आकाश की ही भाँति इन्द्रियों का स्वामी आत्मा, उपाधियाँ प्राप्त करता पर वह स्वयं उपाधि रहित है, वह तो व्याप्त है मुक्त है।

तद्भेदाद्भिन्नवद्भाति - जैसे-जैसे भेद सामने आते हैं वैसा वह प्रतीति देता है। आज जीवात्मा के रूप में एक नाम, एक शैक्षिक योग्यता, एक business, एक title , एक सम्बन्ध ईत्यादि। जैसे ही काया गई अगली कोख में नई पहचान, नया नाम, नई उपाधि, नया सब कुछ। पर क्या जीवात्मा उससे प्रभावित होती है? नहीं, उसका स्वरूप नहीं जाता। उसके सामने उपाधियाँ आती हैं चली जाती हैं, भेद आते हैं चले जाते हैं।
तन्नाशे केवलो भवेत् - और जब ये उपाधियाँ समाप्त हो जाती हैं, जितने भी भेद सामने आते हैं ये जब समाप्त हो जाते हैं तो क्या बचता है? केवलो? केवल किसे कहा गया? केवल भी यहाँ विशुद्ध स्वरूप में आत्मा को ही कहा गया। आत्मा अनात्मा के भेद को समझाने की बड़ी गहरी चेष्टाएँ हैं। आत्मबोध - आत्मा और अनात्मा!

अनात्मा अर्थात जो आत्मा नहीं है जो परिवर्तनशील है, आत्मा जो नित्य है जो नहीं बदलता है। उसके भेद को, इस बुद्धि को जो नाना प्रकार की परिवार की whatsapp की youtube facebook business job रिश्ते चिन्ताओं में जहाँ-जहाँ ग्रसित है, उसे एक बार अवसर देकर के बीच-बीच में चेताने का प्रयास है। किसका भेद? अनात्म और आत्म का भेद; कि तुम अनात्म हो आत्म नहीं हो। अभी तुम्हें प्रतीति नहीं है, मूल में तुम वही हो और उसी की ओर जाना है। यह भाव आत्मबोध के प्रत्येक श्लोक में निहित है, एक-एक श्लोक इसी की ओर जाता है, एक-एक श्लोक इसी की ओर लपकता है कि मनुष्य में आत्मा-आनात्मा का, नित्य-अनित्य का भेद उत्पन्न किया जाए।

एक प्रकार से कहा जाए तो आदिगुरू शंकराचार्य जी की अधिकांश रचनाएँ, अधिकांश; स्तुति ईत्यादि छोड़कर अधिकांश रचनाएँ उपनिषद ही हैं। अर्थात उनमें उपनिषद ही तो गूँज रहा है और कुछ नहीं गूँज रहा उपनिषद गूँज रहा है। वेदान्त के रस टपक-टपक कर उसमें गिर रहे हैं।

तो हम उस आकाश की भाँति हैं जो किसी भी नाम रूप किसी भी परिधि में बँधने वाला नहीं है, प्रतीति होती है पर वह मुक्त है। बुद्धि सोचती है कि हम इसी को बार-बार हर श्लोक में पढ़ते तो हैं पर अनुभूति क्यों नहीं है? क्योंकि आवरण शक्ति का बड़ा गहरा प्रभाव है। आवरण शक्ति ने इतने गहरे प्रभाव में लिया हुआ है कि हम जानकर भी नहीं जान पा रहे जो हम हैं। और यह जानने की चेष्टा ही तो साधना है! और साधना इसके अतिरिक्त क्या है? यह जानने की चेष्टा ही साधना है।

आत्मानो मोक्षार्थ, through (बीच में अंग्रेजी का शब्द ले रहा हूँ मैं) जगत हिताय च! यही तो हमारी साधना के प्रयास हैं

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