ब्रह्म मुहूर्त्त ध्यान उपरान्त सत्संग - आदिगुरू शंकराचार्य जी द्वारा रचित 'आत्मबोध' - श्लोक १४
मनुष्य के शरीर, अस्तित्व, उपाधि; उपाधि स्वरूप उसके अस्तित्व के तीन भाग - स्थूल, सूक्ष्म और कारण। आदिगुरू ने स्थूल को कहा - आयातनम, घरौंदा। यह आत्मा का एक घरौंदा है। सूक्ष्म के विषय में कहा - यह भोग भोगने के लिए है। जितने भी भोग हम भोगते हैं वे वस्तुत: इस शरीर के द्वारा ही भोगे जाते हैं जिसमें तन्मात्राएँ इन्द्रियों को सक्रिय करती हैं। यदि ये तन्मात्राएँ न हों तो ये चमड़े की बनी इन्द्रियाँ बाहरी इन्द्रियाँ अनुभव के लिए किसी काम की नहीं हैं। तीसरा और सबसे पीछा खड़ा है - कारण शरीर।
कारण शरीर को जो उन्होंने नाम दिया, यूँ तो ज्ञानियों ने उसको बड़ा विस्तार दिया उसकी परिभाषा का। पर उतनी विस्तृत परिभाषा में न जाते हुए केवल एक ही शब्द पर थोड़ा सा प्रकाश लेकर आगे बढ़ेंगे। उन्होंने कहा कि यह 'अविद्या' है और ऐसी अविद्या है, किसे कहा? कारण शरीर को। इसे अविद्या भी कौन सी कहा? अनादि। सुनने में अटपटा लगता है क्योंकि हम जानते हैं कि ब्रह्म ऋषि अपने कारण शरीर में रहते हैं। तो क्या वे अनादि, अनादि शब्द दे दिया और अनिवर्चनीय अर्थात जिसको समझाया नहीं जा सकता, बताया नहीं जा सकता। अनादि है, अनिवर्चनीय है और अविद्या है ignorance! पर यह अविद्या क्यों कहा? जबकि कारण शरीर बड़ा पवित्र शरीर है, सबसे पीछा खड़ा है, सबसे शक्तिशाली है, उसकी व्याप्ति पूरी पृथ्वी पर मैं कह सकता हूँ ब्रह्माण्डों का नहीं पता, पृथ्वी का तो ब्रह्म ऋषियों को जानते ही हैं। तो कारण शरीर जिसकी इतनी व्याप्ति है उसे अनादि, अनिवर्चनीय और अविद्या है; अविद्या कहना था तो फिर अनिवर्चनीय क्यों कहा? अर्थात समझाया नहीं जा सकता, बताया नहीं जा सकता, बहुत कठिन है indescribable. फिर यह कहने की आवश्यकता थी?
इसके पीछे का मूल भाव ज्ञानी देते हैं कि अविद्या अर्थात आत्मा जब सबसे पहले आवरण शक्ति को प्राप्त हुई, विक्षेप शक्ति को प्राप्त हुई, अस्थिरता और माया को प्राप्त हुई, सबसे पहले, जो सबसे पहले उस पर आवरण आया वह कारण शरीर के रूप में ही आया। आत्मा का जीवात्मा के स्वरुप में परिणत होने का पहला, जिसे कहते हैं पहली अविद्या जो अनादि है। जिसके विषय में नहीं कहा जा सकता कि 'क्यों है? कैसे है?' कहने से परे है। इसीलिए कारण शरीर को उन्होंने अनादि, अनिवर्चनीय, अविद्या के नाम से सम्बोधित किया। चूँकि सबसे पहले आत्मा पर यदि आवरण और विक्षेप (विक्षेप तो तुम समझते हो अस्थिरताएँ नाना प्रकार की), आवरण भी जानते हो, पहली layer जिसे कह सकते हैं वह कारण की है। इसीलिए यह एक अविद्या के रूप में सम्बोधित की गई है यहाँ पर। अन्यथा कारण शरीर बहुत ऊँची अवस्था का है। जो ब्रह्म ऋषि कारण शरीर में हैं उनकी व्याप्ति तो क्या जानिए आप। उनकी व्याप्ति, उनकी क्षमता कहना कठिन है। अत: आदिगुरू ने कारण शरीर को सबसे पीछे होते हुए अविद्या का प्राथमिक चरण माना है अर्थात इसी से आरम्भ है, यह मूल है। यहीं से आरम्भ होती है माया की लीला।
इसीलिए सम्भवत: कहते हैं कि ब्रह्म ज्ञानी जब पूर्ण विलय को, आत्म साक्षात्कार को प्राप्त होते हैं तो उनकी ग्रन्थियाँ खुलती हैं। कुण्डलिनी जागरण से मोक्ष नहीं है, तीन ग्रन्थियों से हैं, नाम हम सब जानते हैं ब्रह्म ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि, रुद्र ग्रन्थि, तीनों के नाम हम जानते हैं। वे तीन ग्रन्थियाँ जब तक नहीं खुलती तब तक आत्मा मुक्त नहीं होती है। उन तीनों ग्रन्थियों के उपरान्त ही आत्मा अपने उस सम्पूर्ण स्वरूप को प्राप्त हो जाती है जो वह है। तो जो पहला आवरण आया, जो पहला विक्षेप आया वह 'कारण' के रूप में आया और वह 'अनादि' है; ऐसा ही होता आया है ऐसा ही होता रहेगा और इसको बताया भी नहीं जा सकता। कहने से परे का खेल है।
आइए इसे श्लोक में भी जानते हैं:-
अनाद्यविद्या (अनादि अविद्या) अनिर्वाच्या (वर्णन से परे) कारणोपाधि (कारण शरीर) उच्यते।
उपाधित्रितयात (तीनों उपाधि से) अन्यम् (इतर) आत्मानम (आत्मा) अवधारयेत् (समझो) ।१४।
अनाद्यविद्या (अनादि अविद्या) अनिर्वाच्या (वर्णन से परे) कारणोपाधि (कारण शरीर)
उच्यते - जानी जाती है , है उपाधि आत्मा नहीं है। आत्मा पर आया हुआ एक आवरण है।
उपाधित्रितयात (तीनों उपाधि से) - तीनों कौन सी, स्थूल सूक्ष्म कारण उपाधि त्रितयात अन्यम् आत्मानम आत्मा इन तीनों उपाधियों से अलग है।
अवधारयेत् - ऐसा जानो, ऐसा समझो। यह अनादि, अविद्या जो अनिवर्चनीय है इसे कारण के नाम से उपाधि जानो कहते हैं। पर इन तीनों उपाधियों से आत्मा भिन्न है। सूक्ष्म शरीर कितना भी शक्तिशाली हो, कारण शरीर कितना भी बड़ा व्यापक क्यों न हो, वह सब होने पर भी कारण शरीर अविद्या की श्रेणी में, एक बन्धन की श्रेणी में आएगा। आत्मा नहीं है वह, आत्मा उससे भी पीछे है। वहाँ कोई अविद्या, कोई आवरण कोई विक्षेप शक्ति नहीं कार्य करती। वह अपने आप में ब्रह्म स्वरूप ही है।
श्लोक के माध्यम से वेदान्त के अद्भुत अनूठे रस का श्रवण आदिगुरू शंकराचार्य जी की एक-एक रचना के माध्यम से होता है। अध्यात्म, ज्ञान की दृष्टि से एक ही कार्य के लिए है नित्य अनित्य का भेद समझाना , आत्म अनात्म का भेद समझाना ज्ञात नहीं भी हो पर बुद्धि को स्मरण कराते चले जाना क्योंकि जो पथ पर आ गए उन्हें अब सतत प्रकाश की यात्रा मार्ग में आवश्यकता है। यह सतत पूरा मार्ग प्रकाशित किया गया है इस प्रकार के ज्ञान अध्ययन मनन चिंतन निधि ध्यासन से
6 मार्च को साधक जिज्ञासा नाम से कार्यक्रम, जितने लोगों के आवेदन आ गए उन्हें हम कार्यक्रम का लिंक भेज देंगे बाकी जो रह गए सो रह गए